मैसूर का शेर या भेडिय़ाÓ?
02-Dec-2015 08:11 AM 1234952

इतिहास की किताबों में हम पढ़ते आए हैं कि टीपू सुल्तान मैसूर का शेर था। संघ परिवार के लोग उसे भेडिय़ाÓ बता रहे हैं! आज से लगभग दो वर्ष पहले भी संघ परिवार ने इसी तरह जमकर बवाल काटा था जब कर्नाटक सरकार ने टीपू सुल्तान के नाम पर मैसूर के पास एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने की कोशिश की थी। हालिया मामला बीती 10 नवंबर का है जिस दिन राज्य सरकार ने टीपू सुल्तान की 266वीं जयंती मनाई। मादिकेरी जिला मुख्यालय में एक जयंती जुलूस के आमने-सामने सुनियोजित वीएचपी कार्यकर्ता भिड़ गए जिसमें पुलिसिया लाठीचार्ज के बाद मची भगदड़ में वीएचपी के जिला संगठन सचिव डीएस कुटप्पा (67 वर्ष) की जान चली गई। मृतक के पुत्र डीके डॉली का कहना है कि अगर सरकार ने टीपू सुल्तान की जयंती मनाने का निर्णय नहीं लिया होता तो उसके पिता आज जीवित होते और सरकार कहती है कि अगर वह जयंती का विरोध करने नहीं गए होते तो भी शायद आज जीवित होते!
लेकिन मामला इतना आसान नहीं है। प्रश्न यह उठता है कि कर्नाटक सरकार ने इस वर्ष ही जयंती मनाने का निर्णय क्यों किया? और जब टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवंबर को हुआ था तो जयंती 10 नवंबर को क्यों? राज्य सरकार ने इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा कि नरक चतुर्दशी के दिन 10 नवंबर को ही कर्नाटक में दीपावली मनाई जानी थी? यह कार्यक्रम कोई आज तय नहीं हुआ था बल्कि एक वर्ष पहले ही इसकी घोषणा कर दी गई थी। संघ परिवार ने तब से ही अल्टीमेटम दे रखा था कि अगर जयंती मनाई गई तो वह आयोजन को तहसनहस कर देगा। इस सबके बावजूद कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने स्थिति का सही आकलन करके अपने कदम क्यों नहीं खींचे? या फिर सरकार जानबूझ कर इन बिगड़े हालात से हुए ध्रुवीकरण का फायदा उठाना चाहती थी। कांग्रेस सिर्फ  यह कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि राज्य सरकार के अल्पसंख्यक विभाग से कुछ मुस्लिम संगठनों ने जयंती मनाने के लिए आग्रह किया था। दरअसल सारा मामला वोट बैंक पॉलिटिक्स का है।
मुस्लिम समाज के स्वाभिमान की रक्षा के लिए टीपू को महानायक बनाने का तर्क भी यहां फेल हो जाता है क्योंकि टीपू सुल्तान को सिर्फ मुसलमानों ही नहीं पूरे देश के महानायक के तौर पर जाना जाता है। श्रीरंगपट्टनम में उसकी समाधि पर आज भी मुसलमानों से ज्यादा हिंदू जाते हैं।  प्रश्न यह भी उठता है कि टीपू सुल्तान की जयंती एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार द्वारा क्यों मनाई जानी चाहिए? जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ठीक ही कहते हैं कि कोई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन या एनजीओ जयंती मनाता तो कोई बात नहीं थी लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार द्वारा किसी राजतंत्रवादी या सामंती शासक की जयंती मनाना जायज नहीं है। कोई लोकतांत्रिक सरकार महाराणा प्रताप या ऐसे ही किसी ऐतिहासिक चरित्र की जयंती मनाएगी तो वह उसकी भी आलोचना करेंगे। हालांकि गुहा ने यह भी रेखांकित किया है कि ऐसी सूरत में वीएचपी वाले कभी विरोध नहीं करेंगे। यहां मेरा मानना है कि अगर टीपू सुल्तान अंगेजों की बजाए फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों अथवा डचों से युद्ध करते हुए मारा गया होता तो इतना बड़ा नायक ही न बन पाता। टीपू की मौत के बाद अंग्रेजों ने भारत पर शोषण और दमनकारी राज्य किया, इस रोशनी में टीपू की छवि ब्लैक एंड व्हाइट में ज्यादा उजली हुई थी (हम यहां फ्रांसीसियों से उसके गठजोड़ के इतिहास पर नहीं जा रहे)।
टीपू सुल्तान धर्मनिरपेक्ष था या इस्लाम का रखवाला, इस नुक्ते पर बहस फंसाने का कोई मतलब नहीं है। उसके जमाने में सेक्युलर या एंटीसेक्युलर जैसी कोई चीज ही नहीं थी। टीपू भारत के लिए कोई स्वतंत्रता संग्राम नहीं कर रहा था। उस समय राष्ट्र की वैसी कल्पना ही नहीं थी जैसी कि आज है। अन्य राजाओं और सुल्तानों की तरह वह भी अपने राज्य की रक्षा और उसके विस्तार के लिए पड़ोसी हिंदू-मुसलमान शासकों और अंग्रेजों से युद्ध कर रहा था। टीपू के इतिहास को हिंदू-मुस्लिम कोण से देखने वालों को किताबी मोतियाबिंद की शिकायत है। वे यह नहीं देख पाते कि टीपू ने अपनी ताकत बढ़ाने और पिता हैदर अली की मौत का बदला चुकाने के लिए मुस्लिम और निजाम शासकों का कितना खून बहाया था। टीपू सुल्तान मुसलमान था और इसमें कोई शक नहीं कि उसने हजारों हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूल करवाया, जो उसने अपनी चिठ्ठियों में खुद कबूल किया है। लेकिन कोई यह कहे कि वह ऐसा करके खलीफा बनना चाहता था तो ठीक नहीं है। यह विद्रोह को कुचलने का उसका अपना तरीका था। उसके विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देने वाले मैंगलोरियन ईसाइयों की तरफ भी टीपू ने यही रुख अख्तियार किया था।
-बृजेश साहू

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