बिहार का राज दिलाएगा राहुल को कांग्रेस का ताज?
02-Dec-2015 08:08 AM 1234847

कांग्रेस ने सांकेतिक संदेश देते हुए अकबर रोड स्थित मुख्यालय पर जीत के जश्न की अगुवाई करने और पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा-आरएसएस पर हमला बोलने के लिए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के बजाय उपाध्यक्ष राहुल गांधी को ही आगे किया गया। बिहार चुनाव को साफ तौर पर राहुल गांधी के नेतृत्व और कांग्रेस के रिवाइवल के उनके प्लान के लिए टॉनिक की तरह देखा रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए पार्टी के कई नेता पहले से ही ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सत्र जल्द (अगले महीने या अगले साल के शुरू में) बुलाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। हालांकि, हाल में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की हुई बैठक में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी का कार्यकाल एक साल के लिए बढ़ाया गया है।
माना जा रहा है कि बिहार में सफलता के बाद कांग्रेस इसी माहौल में राहुल की ताजपोशी पर भी विचार कर सकती है। चुनाव नतीजों के तुरंत बाद पार्टी के कई नेताओं और सांसदों ने राहुल को महागठबंधन का आर्किटेक्ट बताते हुए उनकी तारीफों के पुल बांध डाले। इन नेताओं ने याद दिलाया कि किस तरह चुनाव से पहले नीतीश कुमार के साथ बैठक कर राहुल ने लीडरशिप का मसला निपटाया और लालू यादव भी सीएम कैंडिडेट के तौर पर नीतीश कुमार का समर्थन करने पर सहमत हुए। इन नेताओं का मानना है कि बिहार चुनाव के नतीजों से राहुल को अपनी इमेज दुरुस्त करने में भी मदद मिलेगी। उनका अगला काम पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नेतृत्व मसले को ठीक करना और बाकी राज्यों की पार्टी इकाइयों के कामकाज को दुरुस्त करना हो सकता है। कांग्रेस के कुछ नेताओं, खासतौर पर कथित टीम राहुल ने यह कहना शुरू कर दिया है कि राहुल के लिए पार्टी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने का यह उपयुक्त मौका है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसका अपना सुनहरा अतीत था, इन दिनों अंतिम सांसे गिन रही है। देश भर के कांग्रेसी कार्यकर्ता अपनी प्रिय पार्टी की दुर्दशा देख कर खून के आंसू रो रहे हैं, किन्तु मठाधीश बेफिक्र है। दरबारी उनकी चाटुकारिता में कसीदे पढऩे में मशगूल है। पराजय का सिलसिला थम नहीं रहा है, किन्तु आत्ममंथन की किंचित भी सुगबुगाहट नहीं। अपनी कमजोरियों को ढूंढने की चिंता नहीं। यह मालूम है कि यदि इसी तरह पार्टी दस जनपथ की दीवारों के भीतर ही रही तो एक दिन दम तोड़ देगी, किन्तु किसी में इतना साहस नहीं बचा है कि वो पार्टी को बंदीगृह से बाहार निकाल कर उसका सही इलाज करने के लिए आवाज उठाये। विडम्बना यह है कि स्वयं की हालत नाजुक बनी हुई है, किन्तु अपने विरोधी की भी सेहत खराब होने पर खुशी मनायी जा रही है। दिल्ली विधानसभा के चुनावों में अपमानजनक पराजय पर भाजपा में गहन मंथन हो रहा हैं। पार्टी के नेता खुल कर पार्टी नेतृत्व द्वारा बनायी गयी रणनीति की आलोचना कर रहे हैं। पार्टी नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं की आवज को गम्भीरता से ले रहा है और उनके आक्रोश को सही मान रहा है, किन्तु कांग्रेस नेतृत्व को अपनी ऐतिहासिक पराजय पर कोई रंजोगम नहीं। अलबता इस बात पर संतोष व्यक्त किया जा रहा है कि हमारी तरह भाजपा की भी बुरी पराजय हुई है। जबकि भाजपा के वोटबैंक में थोड़ा बहुत नुकसान हुआ है, परन्तु कांग्रेस ने अपना पूरा वोट बैंक केजरीवाल को समर्पित कर दिया। क्या कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा को हराने के लिए अपनी पार्टी को रसातल में नहीं धकेला है? दिल्ली कांग्रेस का मजबूत  गढ़ रहा है। जिस प्रदेश में पन्द्रह वर्षों तक पार्टी का शासन रहा, वहां पार्टी के अधिकांश उम्मीदवारों की जमानते जब्त हो जाय और पार्टी को एक भी सीट नहीं मिले, यह बात गले नहीं उतरती। क्या ऐसा तो नहीं  है कि भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने जानबूझ कर केजरीवाल एण्ड पार्टी के साथ गुप्त समझौता कर ऐसी परिस्थितियां पैदा की?
कांग्रेस-केजरीवाल षडय़ंत्र से दिल्ली विधानसभा का पूरा सदन विपक्ष विहिन हो गया। क्या लोकतंत्र में ऐसी अप्रिय स्थिति को अच्छा समझा जाता है ? यदि यह साबित हो जाता है कि कांग्रेस नेतृत्व ऐसी परिस्थितियां पैदा करने का जिम्मेदार है, तो यह देशद्रोह हैं, क्योंकि केजरीवाल की आश्चर्यजनक जीत पर  पाकिस्तान में घी के दिये जला कर जश्न मनाया गया। दुबई में कई भारत विरोधी ताकतों ने खुशी जाहिर की। पिछले दो वर्षों में भारत की कई विधानसभा और लोकसभा के चुनाव हुए हैं, किसी भी चुनाव के परिणाम को ले कर पाकिस्तान खुश नहीं हुआ, फिर केजरीवाल की जीत पर खुशी क्यों मनायी गयी? क्या इस घटना से यह सिद्ध नहीं होता कि केजरीवाल एण्ड़ पार्टी के तार भारत विरोधी ताकतों से जुड़े हुए हैं? कल यदि इसी तरह नक्सली किसी प्रदेश की जनता को असम्भव वादों से प्रभावित कर प्रदेश का चुनाव जीत लेंगे, तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। कांग्रेस पार्टी भारत की जिम्मेदार पार्टी है, उसे अपने गढ़ को बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक देनी चाहिये थी। यदि ऐसा होता जनता के बीच भाजपा को ले कर जो गुस्सा था, उसका लाभ कांग्रेस उठा सकती थी।
यह नहीं माना जा सकता कि शीला दीक्षित सरकार ने  अपने पन्द्रह वर्षों के शासनकाल में कोई काम नहीं किये। यदि ऐसा होता, तो कांग्रेस लगातार दो चुनाव नहीं जीतती। जब केजरीवल अपने 49 दिन के झूठ को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रचारित कर सकते है, तो  कांग्रेस  अपने पंद्रह वर्ष के शासन के सच को प्रचारित नहीं कर सकती थी? कोई भी राजनीतिक पार्टी अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी को हराने के लिए स्वयं आत्महत्या नहीं करती और यदि ऐसा करती है, तो ऐसे नेतृत्व पर सवाल उठाये जा सकते हैं। कांग्रेस नेतृत्व की नासमझी से दिल्ली विधानसभा का सदन आप पार्टी का सभा हॉल बन गया है, जिसे दुर्भाग्यजनक स्थिति कहा जा सकता है।
कांग्रेस को अपने पूरे राजनीतिक इतिहास में ऐसा निकृष्टतम नेतृत्व नहीं मिला, जो अपनी लगातार विफलता पर कुछ भी कहना नहीं चाहता। अपनी दुर्बलताओं को ढूंढना नहीं चाहत। कभी भी गम्भीर आत्ममंथन की पहल नहींं करता।  ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पहली बार पराजय हो कर सत्ता से बाहर हुई हेै। इंदिरा जी भी पराजित हुई थी, किन्तु उन्होंने अपना आत्मविश्वास नहीं खोाया था। उन्होंने निरन्तर सक्रिय रह कर फिर जनता का विश्वास जीत लिया था। राजीव गांधी भी सत्ता से बाहर हो गये थे, किन्तु उन्होंने अपनी पराजय से सबक ले कर तैयारी प्रारम्भ कर दी थी। यदि राजीव जीवित रहते तो एक बार फिर प्रधानमंत्री बन जाते, किन्तु अब तो ऐसी परिस्थतियां बन गयी है कि अगले दस वर्षों तक कोई कोई कांग्रेसी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता।
जब पार्टी नेतृत्व इतना अक्षम हो तो उसे स्वीकार करने की क्या विवशता है? जिस नेतृत्व से कांग्रेस का भविष्य खतरे में दिखाई दे रहा है, उसके समक्ष आंख बंद कर नतमस्तक हो जाना राजनीतिक समझदारी नहीं है। यदि आने वाले  बिहार और पश्चिमी बंगाल के विधानसभा चुनावों में दिल्ली प्रयोग- अपने को मिटाने की कीमत पर भाजपा को हरा दो, दोहराया गया, तो यह पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होगा। आप पार्टी भाजपा शासित प्रदेशों में जहां उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस है, अपना प्रभाव बढ़ाने की तैयारी कर सकती हैं। यदि ऐसा होता है, तो कांग्रेस को पूरी तरह नष्ट करने की एक शुरुआत समझा जा सकता है।
कांगे्रस एक राष्ट्रीय पार्टी है, जिसकी जड़े भारत के हर गांव और शहर में है। पार्टी नेतृत्व की दुर्बलताओं के कारण पार्टी का इस तरह बंठा ढार हो रहा है। पार्टी नेतृत्व से जुड़े चंद मु_ी भर नेताओं के हुजूम  को कांग्रेस नाम देना एक ऐतिहासिक पार्टी के साथ मजाक करना है। कांग्रेस दरअसल दस जनपथ के भवन में बंदी है और मुक्ति के लिए छटपटा रही है। यदि इसे उस भवन की चाहर दीवारी से बाहर नहीं निकाला गया, तो निश्चित रुप से एक दिन दम तोड़ देगी। कांग्रेस को बचाने के लिए वे चाटुकार नेता आवाज नहीं उठायेंगे, जो चाटुकारिता के एवज में लाभ उठाते रहें हैं। आवाज अब भारत के शहर और गांवों के कार्याकर्ताओं को उठानी चाहिये, जो भावात्मक रुप से पार्टी से वर्षों से जुड़े हुए हैं। दस जनपथ बंदीगृह से मुक्ति से ही कांग्रेस का भविष्य बचेगा, अन्यथा एक राष्ट्रीय पार्टी की अकाल मृत्यु हो जायेगी। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह दुखद हादसा होगा।
राहुल देश का चिंतन कब करेंगे...?
अक्सर कहा जाता है कि राहुल चिंतन कर रहे हैं।  हकीकत यह है कि राहुल ने कभी देश की समस्याओं के बारें में चितन नहीं किया। उनका भारत के इतिहास  और संस्कृति के बारें में ज्ञान शून्य है। उन्होंने कभी भारतीय संविधान, भारत की राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का अध्ययन नहीं किया। गरीबों और मजदूरों की समस्याओं का उन्हें ज्ञान नहीं है। दरअसल  उनका अपना कोई निज विचार  है ही नहीं। भारत के संबंध में वे क्या सोचते हैं और उनका क्या चिंतन है, न तो उन्होंने किसी लेख में लिपिबद्ध किया और न ही किसी भाषण में अभिव्यक्त किया।  चिंतन और चिंता से वे कोसो दूर है। चिंतन शब्द उन्हें उनके अनन्य भक्तों ने भेंट किया है। राहुल के ईर्द-गिर्द भी कोई चिंतक नहीं है। जो भी उनके स्क्रीप्ट राईटर है, वे उनके व्यक्तित्व को और अधिक छिछोरा बना रहे हैं। सम्भवत: कांग्रेस के पतन का कारण भी गांधी परिवार के साये के साथ जुड़े हुए वे लोग हैं, जिनकी सलाह पर चल कर इस परिवार ने कांग्रेस पार्टी को गहरी क्षति पहुंचाई है। राहुल को नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान का उपहास उड़ाना कहां जरुरी था? क्या स्वच्छता के पीछे उन्हें कोई उद्धेश्य छुपा नहीं दिखाई दे रहा है? स्वच्छ भारत का नारा दे कर प्रधानमंत्री ने कौन-सा पाप कर दिया ? इसी तरह योग को प्रोत्साहित करने का जो विश्वस्तरीय प्रयास नरेन्द्र मोदी ने किया है, उसकी सराहना दुनियां कर रही है, किन्तु ऐसे मिशन की आलोचना करना राहुल अपना परम कर्तव्य समझते हैं। मेक इन इंडिय़ा के नारे के पीछे का अर्थ समझे बिना राहुल ने कह दिया- टेक इंडिय़ा। यह कितनी ओछी ओर बेतुकी बात है। क्या नरेन्द्र मोदी ने बुलेट के बल पर सत्ता पर नियंत्रण किया है ? बेलेट से जीती हुई जंग का मजाक उड़ा कर राहुल उन करोड़ो भारतीयों का अपमान नहीं कर रहे है, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में मतदान किया था ? राहुल इस बात को समझ क्यों नहीं पा रहे हैं कि भारतीय जनता ने एक परिवार को सत्ता से बाहर कर साधारण परिवार से ऊपर उठे एक कर्मयोगी पर भरोसा कर सत्ता सौंपी है। यह लोकतंत्र की परिपक्कता की निशानी है, जो साबित करती है कि राहुल गांधी भारत के आम नागरिक से भी कम राजनीतिक सोच रखते हैं।
-अरविंद नारद

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