सेवानिवृत्ति के बाद का इंतजाम एक अनार सौ बीमार
02-Dec-2015 07:55 AM 1235026

मोदी सरकार में अवकाश प्राप्त बाबुओं के लिए नौकरियों की कमी हो गई है। राजनेता अब गवर्नर बनाए जा रहे हैं। योजना आयोग का स्वरूप बदल गया है और कमेटियों की संख्या बहुत कम रह गई है। ऐसे में इन बाबुओं की आखिर उम्मीद सिर्फ नियामक संस्थाएं रह गई हैं। सूत्र बताते हैं कि यही वजह है कि नियामक संस्थाओं में निकलने वाली नौकरियों के लिए आवेदन की भरमार हो गई है और इस तरह की नियुक्तियों में देरी हो रही है। आरएस शर्मा को ट्राई का चेयरमैन नियुक्त करने में महीनों लग गए। शर्मा को 77 उम्मीदवारों के बीच से चुना गया। दिलचस्प रूप से उनके पूर्ववर्ती राहुल खुल्लर को 2012 में जब ट्राई का मुखिया नियुक्त किया गया था, उस समय केवल 10 उम्मीदवार ही दौड़ में थे। अभी अवकाश प्राप्त बाबू तीन प्रतिष्ठित पदों के लिए हाय-तौबा मचाए हुए हैं। कॉम्पीटिशन कमीशन ऑफ  इंडिया के चेयरमैन अशोक चावला के जाने के बाद कथित तौर पर इस पद के लिए सौ आवेदन आए। इसी तरह सेबी के मुखिया पद के लिए 55 आवेदन आए। म़ुकाबला सख्त है। आशा की जानी चाहिए कि नियुक्ति में देरी नहीं होनी चाहिए।
एक शीर्ष स्तर के सरकारी अधिकारी के मुताबिक आखिर नौकरशाह सेवानिवृत्ति क्यों नहीं चाहते हैं, इसका प्रमाण नियामक के पद के लिए लगी होड़ से मिल सकता है। भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग (सीसीआई) के अध्यक्ष पद के लिए 100 आवेदन, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के शीर्ष पद के लिए 55 आवेदन और कुछ महीने पहले भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के प्रमुख के पद के लिए 77 आवेदनों की भरमार हो गई। हालांकि ऐसे पदों के उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी दिख रही है। एक सेवानिवृत नौकरशाह कहते हैं कि पूर्व नौकरशाहों को राज्यपाल के पदों पर अब नियुक्त नहीं किया जा रहा है, योजना आयोग के पद अब खत्म हो गए हैं और कई सरकारी समितियों में प्रशासनिक सेवा के अलावा दूसरे क्षेत्रों के लोगों की नियुक्ति की जा रही है। वह कहते हैं, ऐसे हालात में नियामकीय पद ज्यादा आकर्षक लग रहा है।
एक नियामक की शक्तियां और दबदबे के अलावा वित्तीय पहलू भी ऐसे पदों को आकर्षक बनाता है। सीसीआई, ट्राई, सेबी या दूसरी संस्थाओं में अध्यक्ष पद किसी मंत्रालय के शीर्ष स्तर के नौकरशाहों के वेतन के तिगुने से भी ज्यादा अहम है जो किसी के करियर के आखिरी पड़ाव पर मिलता है। किसी सचिव को करीब 1.6 लाख रुपये वेतन मिलता है और उसकी तुलना में एक नियामकीय प्राधिकरण के अध्यक्ष को 4.5 लाख रुपये मिलते हैं। हालांकि एक नियामक को कोई आवास या कार नहीं मिलती है जैसा कि एक नौकरशाह के मामले में होता है।
एक सूत्र का कहना है कि ऐसी कई सिफारिशें वेतन आयोग के पास गई हैं कि एक सरकारी सचिव और किसी नियामकीय संस्था के अध्यक्ष (भारतीय रिजर्व बैंक को छोड़कर) के वेतन पैकेज के बीच कम से कम 3.75 गुना अंतर बना रहना चाहिए। दरअसल बाजार के हिसाब से नियामक के पद के लिए वेतन तय किया जाता है ताकि सबसे बेहतर प्रतिभा की सेवाएं ली जा सकें। ऐसे पदों का यह मकसद बिल्कुल भी नहीं है कि एक सेवानिवृत्त नौकरशाह के लिए कोई जगह तैयार की जाए। पूर्व कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर ने पहले भी कई खोज समिति का नेतृत्व किया है, हालांकि उनका मानना है कि सिर्फ वेतन से ही नियामक का पद तय नहीं होता है। वह कहते हैं, जो लोग इतने बड़े पदों के लिए आवेदन करते हैं उन्हें अपने वेतन पैकेज के बारे में कोई ज्यादा चिंता नहीं करते हैं। इसमें कई गैर-वित्तीय पहलू हैं जो अहम हो जाते हैं।
सीसीआई अध्यक्ष के लिए विमल जुल्का भी कतार में
सीसीआई अध्यक्ष के पद के लिए आवेदन करने वाले कई ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्होंने पहले ट्राई के प्रमुख का पद और बाद में सेबी के प्रमुख के पद के लिए कोशिश की थी। आवेदन करने वालों में शहरी विकास सचिव मधुसूदन प्रसाद, पूर्व सूचना एवं प्रसारण सचिव विमल जुल्का, आरबीआई के पूर्व उप गवर्नर सुबीर गोकर्ण, डब्ल्यूटीओ में पूर्व उप महानिदेशक हर्षवर्धन सिंह और छह सीसीआई सदस्य, एस एल बुंकर, यू सी नाहटा, एम एस साहू, सुधीर मित्तल, ऑगस्टाइन पीटर और जी पी मित्तल शामिल हैं। हालांकि चंद्रशेखर का मानना है कि समान लोग विभिन्न नियामकीय पदों के लिए किस्मत आजमा रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि प्रतिभा की कमी है। एक पूर्व नौकरशाह कहते हैं, अगर कोई व्यक्ति एक से ज्यादा पदों के लिए योग्य है तो उसे एक से ज्यादा पदों के लिए आवेदन करने पर कोई रोक नहीं है। यह बात केवल नियामकीय पदों पर नहीं बल्कि सभी पदों पर लागू होती है। मसलन अगर कोई व्यक्ति प्रशासनिक सेवा के लिए आवेदन करता है तो वह बैंक, निजी संस्थानों, अकादमिक संस्थानों आदि के लिए भी आवेदन करेगा और यह उनकी योग्यता और अनुभव पर निर्भर करता है। एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, अब तक प्रशासनिक सेवा से इतर कोई बेहतर प्रतिभा नहीं दिखी है। आवेदकों की बढ़ती तादाद के साथ-साथ कुछ लोगों का तर्क है कि नियामक की नौकरी बेहद जवाबदेह होती है।
-ऋतेन्द्र माथुर

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