मोदी और शिवराज कैसे बचेगा राज...?
01-Dec-2015 10:39 AM 1234890

वक्त कम है जितना दम है लगा दो...कुछ लोगों को मैं जगाता हूं...कुछ लोगों को तुम जगा दोÓ लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने जब इस जुमले के सहारे भाजपा के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को आव्हान किया था तब आलम

यह था पूरा देश भगवा रंग में रंग गया था। देश की जनता को मोदी में अपना उद्धारक (महंगाई, भ्रष्टाचार, अनाचार और बेरोजगारी से मुक्ति दिलाने वाला) नजर आने लगा। चुनाव में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली और जनता को लगा कि अब उनका उद्धार होगा, लेकिन भाजपाईयों पर सत्ता का गुमान नजर आने लगा। अपने वोट में खोट देख दिल्ली की जनता ने भाजपा के दमदार पहलवानों को सचेत करने के लिए राजनीति के नौसिखिए पहलवान अरविंद केजरिवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी की पार्टी का साथ दिया। लेकिन मोदी और उनके मदमस्त साथी इस हार से सबक नहीं ले सके। जहां प्रधानमंत्री अपने चुनावी वादे पूरे करने की जगह मन की बात करके लोगों को बहलाने लगे, देश की समस्याओं को हल करने की बजाय विदेशों में भारत की धाक जमाने में लगे रहे। इस कारण महंगाई निरंतर बढ़ती रही, गरीब जनता पेट्रोल-डीजल के साथ प्याज, दाल की महंगाई का जुल्म सहती रही। इसका परिणाम यह हुआ कि बिहार की जनता ने भी साथ छोड़ दिया और मोदी राज का 18 महिना पूरा होते-होते कांग्रेस ने शिव (शिवराज सिंह चौहान) से अपना गढ़ (रतलाम-झाबुआ संसदीय सीट) छिन लिया। हालांकि रतलाम-झाबुआ क्षेत्र हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है, लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान गुजरात की सीमा पर स्थित इस क्षेत्र में भी मोदी के मैजिक ने असर दिखाया और कांग्रेस से भाजपा में आए दिलीप सिंह भूरिया ने यह सीट भाजपा की झोली में डाल दिया। लेकिन दिलीप सिंह भूरिया के देहांत के बाद हुए उपचुनाव में यह सीट भाजपा के हाथ से जाती रही। बिहार में पार्टी को मिली हार के बाद इस सीट पर हुए चुनाव में पूरे देश की नजर इस ओर थी, भाजपा के सब तरह के मैनेजमेंट फेल हा गए, जीतने के लिए सत्ताधारी दल भाजपा ने पूरी ताकत झोंकी, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 16 दिन लोकसभा क्षेत्र में सक्रिय रहे, लगभग 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा के निर्माण कार्य और योजनाओं की घोषणाएं कीं, भूमिपूजन किया, 15 मंत्री, 16 सांसद और 60 विधायक चुनाव प्रचार में लगे रहे, लेकिन आदिवासी अंचल ने भाजपा को नकार दिया, इतनी बड़ी पराजय की जरा भी कल्पना नहीं थी। अब इस हार के बाद तो देश में यह सवाल उठने लगा है कि क्या मोदी मैजिक हवा होने लगा...? क्या भाजपा के दिन लदने लगे हैं...? क्या शिवराज का जादू मद्मि पडऩे लगा है...?
हालांकि अभी यह यक्ष प्रश्र हैं, क्योंकि 18 माह में किसी सरकार की सफलता और विफलता का फैसला करना जल्दबाजी होगा, लेकिन यह बात तो साफ हो गई केंद्र सरकार की कथनी और करनी से जनता संतुष्ट नहीं है। केंद्र सरकार के अब तक के कार्यकाल को देखें तो हम पाते हैं कि मोदी सरकार में इस दौरान हर कदम पर अहंकार दिखा है, चाहें संसद हो या कोई अन्य आयोजन या कार्यक्रम। ऐसा लगता है कि मोदी रास्ता भटक गए हैं और नहीं जानते कि नौकरशाही की खामियों पर किस तरह काबू पाया जा सकता है, ऐसी चीज जिसका सामना पहले शासन करने वालों को करना पड़ा था। पार्टी की ओर से घोषित आर्थिक सुधार देश को दक्षिण पंथ की ओर ले जाता है। अगर देश में जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी  पद्धति बहुत ज्यादा है, तो ज्यादातर गरीब जनता वाले देश में  भाजपा अमीरों और कार्पोरेट समर्थक होने का आभास नहीं दे सकती और उसे दक्षिणपंथी नीतियों से बाहर आना होगा। मैं इसमें नहीं जाना चाहता कि भाजपा से कहां चूक हुई क्योंकि पार्टी में चुनाव मैनेजर हैं जो इसका विश्लेषण करेंगे। लेकिन मैं अधिकार के साथ कह सकता हूं कि बिहार और रतलाम-झाबुआ के उदाहरण ने भविष्य में आ रहे चुनावों के लिए एक ढांचा दे दिया है। अगर भाजपा अब नहीं संभली तो उसे बहुत देर हो जाएगी।  क्योंकि देश और प्रदेश में आकर्मण्यता के डेढ़ और दो साल तो बीत गए हैं। पांच साल के जनादेश को डेढ़ साल के जनमत संग्रह ने ठुकरा दिया है। अभी भी दिल्ली बचाने के लिए साढ़े तीन और भोपाल  की गद्दी बचाने के लिए तीन साल का वक्त बाकी है। इसलिए जरूरी है कि केन्द्र सरकार अपने अच्छे दिन वाले वादे पूरा करे वहीं राज्य सरकार बिजली, सड़क, पानी की अपनी विशिष्ट छवि को वापस लौटाएं। फर्जी आंकड़ों के मकडज़ाल से बचें।  प्रदेश में विकास को और सरकारी खजाने पर डाका डाल रहे अफसरों से निजात जितनी जल्दी पाएं जाएं उतना ही बेहतर होगा। मुख्यमंत्री उद्योगिक विकास की बात करते हैं और वित्त विभाग प्रदेश में नए-नए करों का पहाड़ खड़ा करके निवेश की संभावनाओं पर पलिता लगा रहा है। संभलने की जरूरत मोदी को है तो शिवराज को भी है। यदि अभी नहीं तो संभले तो जनता लंबे राजनीति वनवास पर भेजने में देर नहीं करेगी।
शिवराज सरकार की जीत के अश्वमेध के घोड़े को झाबुआ में कांतिलाल भूरिया ने रोक दिया तो पूरी सरकार और संगठन में हाहाकार मच गया, रुदन शुरू हो गया और छाती-माथा पीटे जाने लगे। एक महीने के लंबे मैनेजमेंट और सारी तिकड़मों को आदिवासी अंचल ने नकार दिया और सत्ता के बजाय विपक्ष का सांसद पसंद किया। आदिवासी अंचल बरसों-बरस से कांग्रेस के साथ रहा है। इंदिरा अम्मा की पार्टी कांग्रेस के प्रति उसकी निष्ठा रही है, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में कांतिलाल भूरिया 1 लाख से अधिक वोटों से पराजित हो गए थे। उस समय विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के विधायकों को अच्छी सफलता मिली थी, लेकिन विधानसभा चुनाव जीतने के बाद आदिवासी विधायक अपने इन क्षेत्रों में नहीं गए, जिससे जनता में उनके प्रति खासा गुस्सा रहा। पेटलावद हादसे ने आग में घी का काम किया और हाल ही में जब दिलीपसिंह भूरिया के निधन के बाद उपचुनाव की बारी आई तो भाजपा ने सहानुभूति लहर पर सवार होने की कोशिश की और दिलीपसिंह भूरिया के स्थान पर उनकी ही बेटी को उत्तराधिकारी बनाकर चुनाव मैदान में उसी तरह उतार दिया, जिस तरह देवास में तुकोजीराव पवार के निधन के बाद उनकी पत्नी गायत्रीराजे को उतारा था। निर्मला भूरिया शुरू दिन से ही बतौर प्रत्याशी आम कार्यकर्ता और जनता के गले नहीं उतर रही थीं। उनके बजाय नागरसिंह चौहान को पसंद किया जा रहा था, लेकिन शिव सरकार और संगठन तो सहानुभूति लहर पर चलना चाहता था, इस कारण निष्क्रिय विधायक निर्मला भूरिया को टिकट दिया। वह गूंगी गुडिय़ा की तरह पूरे चुनाव प्रचार में नजर आईं और जनता ने भाजपा सरकार और संगठन की पसंद पर करारा तमाचा मारा। झाबुआ में भाजपा की हार हो गई दु:ख इसका नहीं है। संगठन और सरकार को दु:ख इस बात का है कि उसके इतने सारे प्रपंचों के बावजूद जनता ने उसे पसंद नहीं किया। कार्यकर्ता से लेकर मंत्री तक झोंके गए। दर्जनों सेक्टर बनाए गए, पैसा पूरी ताकत से बहाया गया, लेकिन आदिवासियों ने खा-पीकर वोट कांग्रेस के पक्ष में डाल दिया।  81 हजार वोटों से भाजपा की करारी हार होगी  यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। जितने भी भाजपाई चुनाव के मोर्चे पर लगे थे, वे मतदान के बाद अपने-अपने सेक्टर में जीत के दावे जता रहे थे और जीत का आंकड़ा 80 हजार से 1 लाख तक पहुंच गया था। लेकिन उलटा 88 हजार से हार हुई तो पूरी पार्टी और सरकार सदमे में चली गई, रुदन शुरू हो गया और हाथ आई सीट वापस कांग्रेस के पास चली गई, इसका अफसोस किया जाने लगा। भाजपा की हार के 10 प्रमुख कारणों में भाजपा प्रत्याशी का गूंगी गुडिय़ा की तरह रहना, प्रत्याशी की नकारात्मक छवि, पेटलावद का बम विस्फोट, भाजपा नेताओं की कार्यशैली और व्यवहार, अनाप-शनाप बिजली के बिल, मनरेगा की विफलता, अफसरों की बेरुखी, मतदाताओं का उदासीन रवैया, बाहरी लोगों का चुनाव में दखल और चुनाव के भाजपा-कांग्रेस के बजाय शिवराज बनाम भूरिया में बदलना बताया गया है। शिवराज मामा के बजाय आदिवासी अंचल ने ओरिजनल मामा को जिताने में अपनी भलाई समझी।
कांग्रेस की जीत या मोदी सरकार की हार?
मध्य प्रदेश में जीत के लिए लंबे अर्से से बेचैन कांग्रेस के लिए एक सुखद अहसास लेकर आया। कांग्रेस ने लोकसभा उपचुनाव में रतलाम-झाबुआ की सीट भाजपा से छीन कर 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से मिली हार का बदला ले लिया।  माना जा रहा है कि रतलाम झाबुआ के नतीजे शिवराज सिंह से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज पर जनता की प्रतिक्रिया हैं। दरअसल, जिस तरह से 12 साल की ऐंटी इनकंबेंसी और व्यापमं मामले के सामने आने के बावजूद शिवराज देवास की विधानसभा सीट बचाने में सफल रहे हैं, उससे कहीं न कहीं माना जा रहा है कि राज्य सरकार से ज्यादा केंद्र सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी है। इधर, प्रदेश में कांग्रेस 2018  के चुनावों में पूरी एकजुटता के साथ जुट रही है। रतलाम-झाबुआ सीट पर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह ने मनमुटाव भुलाकर पार्टी को जो दिया है, वह बहुत कुछ संकेत देती है। फिर संगठन में बड़े स्तर पर फेरबदल हो रहा है। बिहार में पार्टी की जीत और मप्र में एक ही सीट ने कुछ तो ताकत पार्टी को दी है, लिहाजा पार्टी इसे गंभीरता से ले रही है। माना जा रहा है कि सोनिया संभवत: कमलनाथ को प्रदेश चुनाव की बागडोर हाथ में दे। जाहिर है खुद के कर्म और विपक्षियों का हमला और सक्रियता क्या होती है भाजपा इसे बखूबी जानती है और शिवराज भी।
कार्यकर्ताओं को सत्ता की चमक-दमक की राजनीति से दूर रहने के लिए ये परिणाम संकेत दे रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि संगठन को भी सत्ता के अधीन रखने की प्रवृत्ति में अब बदलाव लाना होगा। जब संगठन और सबल होगा उसका नेतृत्व प्रभावी होगा। तभी कार्यकर्ता भी पूरी उर्जा के साथ चुनावी समर में उतरेगा। कई मायनों में ये चुनाव भाजपा को संदेश दे रहा है कि पेटलावद हादसे में जिस माफियागिरी से दोषियों को बचाने की कोशिश की गई, पार्टी को उसी का दंड भुगतना पड़ा है। पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश से बीमारू और पिछड़े राज्य का तमगा हटाने में संघ के सबसे कर्मठ कार्यकर्ता रहे शिवराज सिंह चौहान का अभूतपूर्व योगदान रहा है, और राज्य पिछले एक दशक में कृषि, शिक्षा, संचार व्यवस्था, इंफ्रास्ट्रक्चर, सहित हर क्षेत्र में ऐतिहासिक प्रगति की ओर बढ़ रहा है। हालांकि इस बात में कोई दो राय नहीं कि इन सभी योजनाओं में राज्य में कृषि क्षेत्र में जो विकास किया है, और राज्य जिस तरह से लगातार तीन सालों से कर्मण पुरस्कार जीत रहा है, वहीं लाड़ली लक्ष्मी योजना को लेकर देश में शिवराज और मप्र की प्रशंसा होती रही है, वहां बदलाव तो हैं, लेकिन बावजूद इसके अब इन योजनाओं की जमीनी हकीकत क्या है, इसकी असलियत तो आगामी विधानसभा चुनाव, यानी की 2018 में ही सामने आएगी। काम किया होगा,  तो शिवराज चौथी बार मप्र की बागडोर संभालेंगे, जैसी काम के बूते नीतीश ने तीसरी बार बिहार की
संभाली है।
वैसे देखा जाए तो 2018 में एक ओर जहां शिवराज की लोकप्रियता और किए गए कामों और दावों की परीक्षा होगी तो, वहीं मोदी लहर भी दांव पर होगी क्योंकि 2018  में मप्र में होने वाले चुनावों से पूर्व भाजपा और सबसे ज्यादा बड़ी मोदी की असली परीक्षा बंगाल में 2016 के चुनावों में और 2017  में यूपी और पंजाब के  चुनावों में हो चुकी होगी। यानी की इस बार शिवराज सिंह के लिए चुनाव जीतना इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि बिहार का असर बंगाल पर और बंगाल का असर यूपी और पंजाब में पड़ा तो फिर दोनों का ही असर मप्र में पडऩा ही चाहिए। खैर, यह अलग-अलग राज्यों का मसला है।
बहरहाल, बातें बहुत सारी हैं, लेकिन इन सवालों के साथ ही है कि क्या वाकई में शिवराज सिंह की लोकप्रियता पर ग्रहण लग रहा है क्या प्रतिष्ठा को व्यापमं ने ठेस पहुंचाई है या फिर जनता निचले स्तर पर बाबुओं, अधिकारियों के रवैये, भ्रष्टाचार से तंग आ रही है और वह उसका जवाब देने की तैयारी में है और अब उसे मोदी लहर से भी कोई लेना-देना नहीं है। जाहिर है अभी हाल ही में प्रदेश के भर के आदिवासियों और दलितों की पांच एकड़ जमीन की मांग के साथ भोपाल पहुंचकर महाप्रदर्शन की हकीकत भी दूरस्थ क्षेत्रों में असंतुष्टि के लक्षण ही हैं। ये तमाम बातें आने वाले समय में प्रदेश की सियासत में खुद शिवराज और मोदी के लिए कठिन परीक्षा की होंगी। यकीनन लोकप्रियता जितनी तेजी से फैलती है, उतनी ही तेजी से चेहरे धूमिल भी हो जाते हैं।  मोदी और उनकी पार्टी जितनी जल्दी यह समझ लें, उतना ही बेहतर होगा।
कई जीत बाकी हैं .. कई हार बाकी हैं..
अभी तो जिंदगी का सार बाकी है..
यहां से चले हैं नयी मजिल के लिए ..
ये एक पन्ना था अभी तो किताब बाकी है..
जैसे हर सांसे जिंदगी देती है
वैसे ही हर पड़ाव कामयाबी देता है..
इस पड़ाव पे इस कामयाबी का शुक्रिया ..
अभी कामयाबी बेहिसाब बाकी है ..!
मोतियों से जैसे जुड़ती माला ..
रास्ते ऐसे ही मंजिल बनाते हैं
सफर में शामिल हुआ एक और रास्ता..
सफर का अभी किस्सा बाकी है!!

 

कई मुद्दे और महंगाई ने भाजपा को किया कमजोर
बीते 12 सालों में अधिकांश उपचुनाव भाजपा ने जीते। केंद्र में सरकार बनने के बाद प्रदेश का पहला लोकसभा उपचुनाव रतलाम में पार्टी क्यों हारी? इस पर पार्टी में मंथन का दौर शुरू हो गया है। पार्टी के नेता कह रहे हैं कि पेटलावद के विस्फोट में बेकसूर लोग मारे गए। आम लोगों को इंसाफ नहीं मिल पाया। सारा मामला कानूनी दांवपेंच में दब गया। सरकार को जिस तरह सख्ती और कठोरता से कार्रवाई करनी थी, सरकार ने उतनी गंभीरता नहीं दिखाई। उसी का नतीजा है कि जनता की नाराजगी वोटों में तब्दील हो गई और पूरे प्रयास के बाद भी हार का सामना करना पड़ा। दोषियों को बचाने की कोशिश का दंड भाजपा को भुगतना पड़ा।
आदिवासियों की नाराजगी बताती है कि सत्ता और संगठन में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। रतलाम के चुनाव में कोई एक मुद्दा अकेला नहीं था। चाहे व्यापमं घोटाले की बात की जाए तो मेघनगर की नम्रता डामोर की हत्या, पत्रकार अक्षय सिंह की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत, किसानों की आत्महत्या, आरक्षण, भूमि अधिग्रहण कानून, फसल चौपट होने के बाद किसान मजदूरों की बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों ने मतदाताओं को प्रभावित किया। दो सौ रुपए किलो की दाल ने भी असर दिखाया। नोटा को मिले 24 हजार से ज्यादा मतदाताओं ने कहीं न कहीं वंशवाद के खिलाफ अपना संदेश साफ तौर पर दोनों पाटियों को दिया है। बाहरी कार्यकर्ता और नेताओं की फौज का भी मतदाताओं के दिल-दिमाग पर बुरा असर पड़ा। वे मत तो दिला नहीं पाए, स्थानीय कार्यकर्ताओं को नाराज जरूर कर बैठे।
बदली-बदली भाजपा, बदले-बदले मोदी
दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद बिहार में भी मिली करारी हार के बाद प्रधानमंत्री के तेवर कुछ बदले-बदले से नजर आ रहे हैं। विपक्ष के नेताओं से बातचीत नहीं करने को लेकर लगातार विपक्ष के निशाने पर रहने वाले पीएम नरेंद्र मोदी का संसद में भी बदला अंदाज नजर आया। मजे की बात देखिए कि जिस कांग्रेस को नरेन्द्र भाई अहंकारी बताते नहीं थकते थे वही कांग्रेस और कुछ-कुछ हाशिए पर बैठे भाजपाई बुजुर्ग भी उन्हें अहंकारी होने का तमगा देने लगे जो कमोबेश सही भी था। लेकिन लगता है बिहार की कुश्ती में धोबी पछाड़ हार और संसद में विपक्षियों की एकजुटता के सामने मोदी कम्पनी ने अपने अहंकार को दूर रखना ही श्रेयस्कर समझा। उन्होंने न केवल संसद में संयत भाषण दिया वरन पुराने अर्थशास्त्री मौन मोहन सिंह और कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी को अपने घर चाय पर भी बुलाया।
नरेंद्र मोदी आमतौर पर संसद में विपक्ष के नेताओं से ज्यादा बातचीत नहीं करते हैं और अपने संबोधन या भाषण में आक्रामक रवैया अपनाते हैं। वहीं संसद के इस शीतकालीन सत्र में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने आपसी भाईचारे की बात की और केवल एक पार्टी से उपर उठकर सोचने की सलाह दी। उन्होंने कहा विपक्ष की आलोचनाएं झेलते हुए सरकार नहीं चलायी जा सकती। विपक्ष के साथ मिलकर देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण फैसले लेने होंगे। 18 महीने में पहली बार प्रधानमंत्री सदन में पहुंचने के बाद प्रमुख विपक्षी नेताओं से गर्मजोशी से मिले और उनका मिजाज भी काफी नरम नजर आ रहा था। सरकार पर संवाद न करने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस अब बोल रही है कि जनता के दबाव में पीएम का रुख बदला है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम के न्यौते पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा, यह पब्लिक प्रेशर की वजह से हो रहा है। यह उनका इंन्टेंट पहले कभी नहीं रहा।
अब मैहर की तैयारी
प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस अब मैहर विधानसभा क्षेत्र में होने वाले उपचुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि वे वहां से नारायण त्रिपाठी को ही चुनाव मैदान में उतारंगे। हालांकि त्रिपाठी को लेकर क्षेत्र में माहौल ठीक नहीं है फिर भी मुख्यमंत्री का कहना है कि आलाकमान की मंशा है कि  त्रिपाठी ही चुनाव लड़ें। उधर कांग्रेस अभी तक प्रत्याशी का फैसला नहीं कर सकी है।
सहानुभूति लहर से मिली जीत, पर लीड हुई कम
देवास की सियासत पर रियासत का जादू बरकरार है, लेकिन लीड कम होना चिंता भी बढ़ाता है। कम समय में इस बार देवास उपचुनाव में कांग्रेस ने एकजुटता दिखाकर मेहनत की। उसके पास सहानुभूति लहर का तोड़ नहीं था। बेहतर चुनाव प्रबंधन, अनुभवी संगठन और पैलेसÓ से जनता के भावनात्मक लगाव ने गायत्री राजे पवार के सिर पर जीत का सेहरा बांधा जरूर, लेकिन असली परीक्षा शुरू होना बाकी है। उन्हें 30 हजार वोटों की लीड मिली। दो साल पहले हुए चुनाव में उनके पति तुकोजीराव पवार 50 हजार मतों के अंतर से जीते थे। 19 हजार वोटों की लीड दो साल में कम हुई। जीत के साथ यह संकेत भी है कि विधानसभा चुनाव में अभी तीन साल बाकी हैं। टाइम मैनेजमेंट यदि गड़बड़ाया तो इसका असर आने वाले चुनाव पर पड़ सकता है। कांग्रेस ने उपचुनाव में फिर वही गलती दोहराई। उम्मीदवारों की घोषणा समय पर कांग्रेस कभी नहीं कर सकती।

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