किसानों की आत्महत्या से बेफिक्र है सरकार
04-Apr-2013 07:18 AM 1234791

मध्यप्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उनकी आत्महत्या को अलग-अलग तरीके से परिभाषित कर सरकार बेफिक्री का राग अलाप रही है। पिछले दिनों विधानसभा के बजट सत्र में जब

विधायक महेंद्र सिंह के एक प्रश्न के उत्तर में गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने यह बताया कि राष्ट्रीय अभिलेख ब्यूरो में उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार मध्यप्रदेश में वर्ष 2011 में स्वरोजगार के अंतर्गत कृषि कार्य से जुड़े 1326 व्यक्तियों ने आत्महत्या की है तो सरकार की संवेदना की धज्जियां उड़ती नजर आईं। मध्यप्रदेश के अपने किसान आत्महत्या कर रहे हैं और उनकी हितैषी बनने का ढोंग करने वाली सरकार के पास नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं है वह राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के ऊपर निर्भर है। जिसकी चाल कछुआ चाल की तरह धीमी है और आंकड़े जमा करते-करते वर्षों बीत जाते हैं। हमेशा पुराने आंकड़े ही उपलब्ध होते हैं। बहरहाल आंकड़ेबाजी से अलग यह एक दुखद तथ्य है कि किसानों की आत्महत्या के मामले में वर्ष 2011 तक मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के बाद चौथे नंबर पर था आज क्या हालात हैं इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। हालांकि राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के रिकार्ड का आंकलन करें तो वर्ष 2004 के मुकाबले वर्ष 2011 में वर्ष दर वर्ष किसानों की आत्महत्या के मामले लगातार कम होते आए हैं, लेकिन वर्ष 2010 में जहां 1237 किसानों ने आत्महत्या की वहीं वर्ष 2011 में किसानों की आत्महत्या के प्रकरण में अचानक उछाल आ गया और यह संख्या 1326 पर पहुंच गई। लगभग एक हजार की बढ़ोतरी। वैसे वर्ष 2004 से तुलना करें तो मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या में गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2004 में 1638 किसानों ने आत्महत्या की थी जबकि 2011 में यह संख्या घटकर 1326 तक आई है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि किसानों के लिए हालात बदल चुके हैं। दरअसल 2011 में किसानों की आत्महत्या की दर में अचानक वृद्धि उससे पहले वर्ष के मुकाबले जो दर्ज की गई थी वह चिंता का विषय है। सरकार कहती है कि किसानों ने पारिवारिक विवाद, शारीरिक-मानसिक बीमारी के कारण, नशे की लत के कारण आत्महत्या की है। आर्थिक कारणों से कुल 16 आत्महत्याएं हुई है, लेकिन इन्हीं आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2011 में 508 किसानों ने विभिन्न अन्य कारणों से आत्महत्या की थी। यह अन्य कारण क्या हैं इनकी तह में जाने की आवश्यकता है। विपक्ष का आरोप है कि किसानों की आत्महत्या का कारण बैंक के कर्जें और उन पर पड़ा आर्थिक भार है, लेकिन क्या यह सब सच है। नेशनल क्राइम ब्यूरो की गत वर्षों की रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो देश में हर साल हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं। देशभर में वर्ष 2008 में जहां 18196 किसानों ने आत्महत्या की वहीं 2009 में बढ़कर यह संख्या 17368 तक पहुंच गई थी। इसमें प्रतिवर्ष मौत को गले लगाने वालों किसानों में 66 फीसदी मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ से थे। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार मधयप्रदेश में वर्ष 2009 में करीब 1395 किसानों ने आत्महत्या की, जबकि वर्ष 2008 में 1379 अन्नदाताओं ने मौत को गले लगाया। इसी तरह वर्ष 2007 में 1263, वर्ष 2006 में 1375, वर्ष 2005 में 1248 और वर्ष 2004 में 1638 किसानों ने आत्महत्या की। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण कर्ज है। इसके साथ ही बिजली संकट, सिंचाई के लिए पानी, खाद, बीज, कीटनाशकों की उपलब्धता में कमी और मौसमी प्रकोप भी जिम्मेदार है, जिससे कृषि क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और किसान आत्महत्या को मजबूर है। खेती पर निर्भर किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य भी न मिलना शामिल है, जिससे वह कर्ज के बोझ में दबता चला जाता है।
एक ओर प्रदेश सरकार खेती को जहां लाभ का धंधा बनाने का राग अलापती नहीं थक रही है वहीं सरकार द्वारा किसान कल्याण व कृषि संवर्धन के लिए चलाई जा रही योजनाओं में राजनीतिक भेदभाव और भ्रष्टाचार से किसानों को सरकार की प्रोत्साहनकारी और रियायती योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है। प्रदेश में किसानों की हालत इस कदर बदहाल है कि कई सहकारी संस्थाओं ने किसानों को घटिया खाद-बीज के साथ ही कीटनाशकों की आपूर्ति कर किसानों को बेवजह कर्जदार बना दिया है तो वहीं खराब खाद-बीज और दवाइयों के कारण फसल भी चौपट हो गई, पर इंतहा तो तब हो गई जब प्रदेश के पीडि़त किसानों को सरकार भी न्याय दिलाने में असफल रही। हाल ही में जब ओला-पाला के कारण किसानों की फसलें तबाह हुई तो मुख्यमंत्री ने तहेदिल से किसानों की मदद करने की पहल की। लेकिन उनकी पहल को अमली जामा पहनाने वाली नौकरशाही खामोश बैठी रही और प्रदेश में कई जगह अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को देय। जैसे हालात देखे गए। मध्यप्रदेश में पिछले वर्ष तक 32 लाख 11 हजार से अधिाक किसान आज भी ऋणग्रस्त हैं। प्रदेश में औसतन हर किसान पर 14 हजार 218 रुपए के कर्ज का बोझ था, जबकि मध्यप्रदेश में तकरीबन 30 फीसदी से अधिक किसान ऐसे हैं, जिनके पास महज एक से तीन हेक्टेयर तक ही कृषि योग्य भूमि है। इतनी छोटी जोत के मालिक इन किसानों की दुर्दशा से शिवराज तो भलीभांति वाकिफ हैं, इसीलिए किसान पंचायत में उन्होंने किसानों के लिए कई घोषणाएं भी की थीं, लेकिन अन्नदाता को इन घोषणाओं का लाभ कब मिलेगा यह कहना असंभव है।
प्रश्न यह है कि जिन प्रदेशों में कर्ज की वजह से किसान आत्महत्या करता है उन प्रदेशों में नौकरशाह, व्यापारी, विधायक, नेता, मंत्री आत्महत्या क्यों नहीं करते। सीधी सी बात है उनकी आर्थिक स्थिति दमदार रहती है। वे लाभ पाने वालों की सूची में हैं घाटा उठाने वाले किसानों की सूची में नहीं है। मध्यप्रदेश में ओलावृष्टि के बाद किसानों के साथ जो मजाक किया गया वह काबिलेगौर है। सरकार 15 हजार रुपए हेक्टेयर के हिसाब से मुआवजा दे रही है। जिन किसानों की 50 हजार की फसल बर्बाद हुई है या 5 लाख की फसल बर्बाद हुई है उनके लिए तो यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। जरा कल्पना कीजिए उस किसान की जिसकी जोत मात्र एक एकड़ है उसे कितना मुआवजा मिलेगा। जो पैसा मिलेगा वह तो दौड़-धूप में ही खर्च हो जाएगा। यदि अधिकारी महोदय ईमानदार हुए तो पूरा पैसा दे देंगे नहीं तो यदि उन्होंने पैसा अपना कमीशन काटकर दिया या चेक देने से पहले कमीशन रखवा लिया तो कितना पैसा मिलेगा यह समझा जा सकता है। किसान मजदूर प्रजा पार्टी के संस्थापक, संरक्षक शिवकुमार शर्मा ने एक वाकया बताया कि एक किसान को जब ओलावृष्टि का मुआवजा एक हजार रुपए दिया गया तो उसने मुआवजे का चेक कलेक्टर को वापस करते हुए 10 का नोट भी थमाया और कहा कि चाय पी लेना। इस महंगाई के जमाने में 1000-500 के मुआवजे हास्यास्पद लगते हैं और इनसे यह प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री का मार्गदर्शन करने वाली नौकरशाही बेदर्द है। उसे किसानों की समस्याओं को गंभीरता से देखने का दिल ही नहीं है। हालांकि मुख्यमंत्री हर संभव कोशिश कर रहे हैं कि किसानों को उचित मुआवजा मिल सके। इस संबंध में उन्होंने कई घोषणाएं भी की हैं, लेकिन यह घोषणाएं अभी अमल में नहीं आ पाई हैं। मध्यप्रदेश में वैसे भी किसानों के ऊपर बहुत करारोपण है। कृषि यंत्रों, उर्वरकों, डीजल, पेट्रोल के अलावा बिजली का भारी भरकम बिल किसानों की कमर तोड़ देता है। देश के कई राज्य ऐसे हैं जहां किसानों को बिजली का बिल नहीं चुकाना पड़ता। कुछ राज्यों में अधिकतम सीमा निर्धारित कर रखी है। हालांकि मुख्यमंत्री की पहल पर मध्यप्रदेश में किसानों का बिजली का सरचार्ज माफ कर दिया गया है और बिजली के बिल में भी आधी छूट दी जा रही है। शेष राशि पांच वर्षों में वसूलने का प्रावधान है, लेकिन इन रियायतों के बाद भी किसानों की परेशानियां कम नहीं हुई है। किसानों का कहना है कि सरकार ने जो रियायतें दी हैं वे रियायतें केवल दिखावे की हैं उन्हें अमली जामा पहनाने वाले नदारत है। इसी कारण किसानों को उनका हक नहीं मिल पा रहा है। शून्य प्रतिशत दर पर ब्याज देने की घोषणा भी केवल कागजों तक सिमट कर रही गई है। सरकार का कहना है कि उसने फसल की हानि के लिए दी जाने वाली आर्थिक सहायता में इजाफा कर दिया है और अलग-अलग श्रेणियों में दी जाने वाली मुआवजे की राशि 8 से 30 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर बढ़ा दी गई है। सरकार का कहना है कि बिजली बिलों की माफी से ही 1784 करोड़ रुपए का भार खजाने पर पड़ेगा। यदि किसानों की कर्जमाफी की जाती है तो यह भार और अधिक बढ़ सकता है, लेकिन सरकार को हर हाल में किसानों को राहत देनी ही होगी। क्योंकि सरकार ने गीला गेहूं खरीदने से साफ इनकार कर दिया है इसलिए किसान विकल्पहीन हैं। उनके खेतों में खड़ी हुई फसलें खराब हो चुकी है और उनकी आर्थिक स्थिति चरमरा गई है। इसी तरह की दुरावस्थाएं किसानों को आत्महत्या की तरफ धकेलती है। कारण चाहे जो हो लेकिन अन्नदाता की आत्महत्या के नेपथ्य में कहीं न कहीं आर्थिक पहलू जुड़ ही जाता है।

 

सरकार पाखंड छिपा रही है। जिन भी किसानों ने आत्महत्या की है उसका मूल कारण कहीं न कहीं कर्ज है। सरकार को सबसे पहले पीडि़त परिवार को सहायता तथा सहारा देना चाहिए। मध्यप्रदेश में खेती के ऊपर बहुत करारोपण है इसी कारण खेती लाभ का सौदा नहीं है।
-शिवकुमार शर्मा, किसान मजदूर प्रजा पार्टी

किसानों के साथ आर्थिक अन्याय होता है जिसके कारण वे तनाव में रहते हैं और आत्महत्या की तरफ प्रेरित होते हैं। बुनियादी कारण आर्थिक है। ऋण सब्सिडी या अन्य तरह के उपाय ग्लूकोज की बाटल के समान है। इनसे पूरी तरह रोग नहीं मिटता।
-सुरेश गुर्जर, अध्यक्ष किसान संघ

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