17-Nov-2015 09:09 AM
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भाजपा की जीत के रथ पर सवार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को रोकने के लिए बिहार में नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव की जोड़ी ने बिहार बनाम बाहरी का जो मुद्दा उछाला था उसी का परिणाम है

कि वहां भाजपा को करारी हार मिली। अब इस फार्मूले को प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी आजमाएंगी। क्योंकि प. बंगाल में भी भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसको सामने करके वह ममता बनर्जी को चुनौती देगी। ऐसे में यहां भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही संभवत: चुनावी चेहरा होंगे। ऐसे में बंगालियों के बीच अभी से प्रचारित किया जा रहा है कि बाहरियों को महत्व न दिया जाए।
नीतीश कुमार की जीत पर ममता ने ट्वीट पर अपने बधाई संदेश में सहिष्णुता की जीत हुई और असहिष्णुता की हार बताई है। चुनाव प्रचार के दौरान ममता ने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाने की भी अपील की थी। ऐसी अपील दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी की थी - और फिर दोनों ने बढ़-चढ़ कर जीत की बधाई भी दी। क्या बंगाल में भी वैसी ही बहार आएगी जैसी बिहार में आई है? क्या बंगाल में भी फिर एक बार ममता का स्लोगन चलेगा? क्या बंगाल में भी बीजेपी ममता बनर्जी को भी वैसे ही चैलेंज करेगी जैसे केजरीवाल और नीतीश को किया? अगर ऐसा हुआ तो, पश्चिम बंगाल चुनाव में भी बंगाली बनाम बाहरी मुद्दा बनेगा? बीजेपी अब शायद ही वैसा रिस्क ले। वैसे भी बिहार और बंगाल में कुछ समानताएं हैं, मगर हालात एक जैसे बिलकुल नहीं हैं। ममता जैसी हैं वैसी हैं। उनका जो तेवर है वो वैसा ही है जैसा केंद्र की गठबंधन सरकारों का हिस्सा रहते हुआ। उनके अंदाज में कोई तब्दीली नहीं आई है। हां, बिहार के मांझी फैक्टर जैसा एक मामला सामने जरूर आया है। कभी ममता के बेहद करीबी रहे मुकुल रॉय अब अलग रास्ते पर हैं। मुकुल चुनावों में ममता को चुनौती देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ये चुनौती वो अकेले देंगे? कांग्रेस से हाथ मिलाकर देंगे? या फिर बीजेपी के बूते देंगे? ये सब अभी साफ नहीं है। लेकिन ऐसी चुनौतियों का हश्र बिहार में देखा जा चुका है। चाहे वो पप्पू यादव हों, चाहे जीतन राम मांझी - इस मामले में बेहतरीन मिसाल हैं। महागठबंधन यूपी में कैसा रूप लेता है? अभी वक्त है। बाकी राज्यों में भी अलग अलग हालात हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में? पश्चिम बंगाल के मामले में बड़ा पेंच है। महागठबंधन में कांग्रेस है जिसके साथ ममता राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हुईं। बाद की बातें और हैं।
ममता को नीतीश पसंद हैं। फिलहाल लालू भी पसंद हैं। लेकिन अगर मुलायम फिर से नये समीकरणों में महागठबंधन का हिस्सा बन जाते हैं, फिर क्या होगा? क्या राष्ट्रपति चुनाव के वक्त रात भर में ही मुलायम का वो यू-टर्न ममता भुला देंगी। मान लेते हैं कि राजनीति में सब चलता है। क्या ममता की राजनीतिक स्टाइल में भी ये सब चलता है। इसका जवाब हां और ना में फिफ्टी-फिफ्टी ही हो सकता है। केजरीवाल कोआपरेटिव फेडरलिज्म की मुहिम चला रहे हैं। इसमें सभी गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों को एक कॉमन प्लेटफॉर्म पर लाने की कोशिश है। ये कोशिशें अब तक कोशिश ही नजर आई है। कामयाबी के संकेत कतई नहीं दिख रहे। कभी केजरीवाल ऐसी बैठकों से खुद को दूर रखते हैं तो कभी अखिलेश यादव। कभी ममता भी बहाने बना सकती हैं। कोई दबाव नहीं तो मूड नहीं होगा - ऐसा भी तो हो सकता है। क्या कांग्रेस को दरकिनार कर नीतीश निकट भविष्य में ममता के साथ जा पाएंगे हैं? जिस वजह से अखिलेश केजरीवाल वाली मीटिंग से परहेज किया, वो वजह तो ममता के मामले में भी तो लागू होती है। भाजपा में किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि बिहार में पार्टी की ऐसी जबर्दस्त पराजय हो सकती है। इसलिए पार्टी नेताओं को हार को पचाने में वक्त लगेगा। मगर नतीजों पर पार्टी का जैसा रुख सामने आया है कि उससे नहीं लगता कि हार की कोई जवाबदेही तय होगी। कोई नैतिक रूप से भी अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखता। चुनाव परिणाम आते ही भाजपा में और साथ ही राजग में भी आपसी खींचतान तेज हो गई। इस पृष्ठभूमि में भाजपा के संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई तो माना जा रहा था कि हार के सारे कारण चिह्नित किए जाएंगे। लेकिन संसदीय बोर्ड ने किसी को जिम्मेवार नहीं माना है तथा उन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी, जिनके बयानों को हार के लिए कसूरवार माना जा रहा है। दरअसल, इस मामले में भाजपा की समस्या गहरी है। अगर सिर्फ स्थानीय स्तर के कुछ कार्यकर्ताओं को सजा देने की बात होती तो शायद आसानी से तय हो जाती। मगर जहां शीर्षस्थ नेताओं की गलतियों पर अंगुलियां उठ रही हों, वहां भलाई इसी में है कि हार का ठीकरा किसी पर भी न फूटे। लिहाजा, हार की सामूहिक जिम्मेदारी के नाम पर वास्तव में आधिकारिक रूप से चुप्पी साध ली गई है। मगर अंदरखाने आरोप-प्रत्यारोप पर विराम अभी शायद न लग पाए। दिल्ली के बाद बिहार चुनाव का दंश पार्टी के लिए बहुत गहरा है और वह इतनी जल्दी इसे भुला नहीं पाएगी। एक तो राजग की हार बहुत बड़े अंतर से हुई है, जबकि डेढ़ साल पहले ही लोकसभा चुनावों में उसे शानदार सफलता मिली थी। दूसरे, अगले अठारह महीनों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, और पार्टी को अंदेशा है कि कहीं बिहार के नतीजों का असर अन्य राज्यों पर भी न पड़े। हालांकि ममता बनर्जी ने संकेत दे दिया है कि वे पं. बंगाल में भाजपा को चुनौती देने के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
-इंद्र कुमार