15-Dec-2015 09:30 AM
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पिछले डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से बुंदेलखंड के किसान आत्महत्या और सर्वाधिक जल संकट से जूझ रहे हैं। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो अप्रैल वर्ष 2003 से मार्च 2015 तक 3280 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सूखे की भीषण मार

झेल रही बुन्देलखण्ड की बंजर धरती के किसान इस बार भी पहले सूखे और फिर हाड़तोड़ मेहनत के बाद तैयार फसल पर ओलों की बारिश से आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। पिछले 2 महीनों में शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो, जब गांव से निकलती खबर में किसी किसान के आत्महत्या का मामला न आया हो। लाशो पर आंदोलन और सियासत का माहौल गर्म है, मगर उन गांव का हाल जस का तस है, जहां सन्नाटे को चीरती किसान परिवारों की चींखे सिसकियों के साथ हमदर्दी जताने वालों की होड़ में बार बार शर्मसार होती है। सूखे का आलम इतना विकराल है की अब यहां के किसान उसी छाते का प्रयोग अपने दो वक्त की रोजी रोटी के लिए कर रहे हैं, जिसका प्रयोग प्राय: लोग पानी बरसने पर अपनी शरीर ढंकने के लिए करते हैं।
बुन्देलखन्ड के आम जनजीवन पर आई ताजा रिपोर्ट से सरकार को उलझन मससूस हो सकती है, पर यहां के हालात बहुत चिंताजनक हैं। इस पर कोई दोराय नहीं। बुंदेलों की धरती पिछले तीन साल से बंजर पड़ी है, जलस्रोत लगभग सूख चुके हैं। पीने का पानी खत्म होता जा रहा है यहां से लगभग ज्यादातर युवाओं का पलायन हो चुका है। फूल पत्ती, अनाज के पौधे तो क्या बड़े पेड़ पौधे, जीव जंतुओं और इंसान तक के अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया है। यहां के अधिकतर लोगों ने अपने पालतू पशुओं को हमेशा के लिए खूंटे से छोड़ दिया है, जिससे अन्ना प्रथा में अचानक बहुत तेजी आ गई है। यहां के किसानों ने पिछले तीन सालों से ठीक प्रकार से बाजरा, मूंग, सोयबीन की फसल नही देखी। ये फसलें पानी के अभाव में लगातार चौपट हो रही हैं। इन्हें उगाने वाले अधिकांश किसान बर्बादी की कगार पर हैं। 104 गांवों के एक हजार से ज्यादा लोगो के सर्वे से तैयार रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है, कि हर पांचवां आदमी घास की रोटी खाने को मजबूर हैं। करीब इतनी ही आबादी भूखा रहने पर मजबूर हैं। गरीबी की रेखा के नीचे आने वाले करीब आधे लोग ऐसे हैं, जिन्हें आठ महीने से दाल नसीब नही हुई है। फल-फूल, हरी-सब्जिया नसीब होती नहीं, दुधारू पशु घर पर हैं नही! ऐसे में भुखमरी और कुपोषण फैलना स्वाभाविक है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां साठ फीसदी आबादी अभी भी रोजगार के लिए कृषि पर आधारित है, वहीं मानसून से किसानों की बहुत सी उम्मीदें जुड़ी हुई है।
62 लाख से अधिक किसानों ने किया पलायन
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित बुन्देलखण्ड इलाका पिछले कई वर्षो से प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेल रहा है। भुखमरी और सूखे की त्रासदी से अब तक 62 लाख से अधिक किसान वीरों की धरती से पलायन कर चुके हैं। यहां के किसानों को उम्मीद थी की अब की बार के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दल सूखा और पलायन को अपना मुद्दा बनाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नही और एक बार फिर यह मुद्दा जातीय बयार में दब सा गया है। यहां का किसान कर्जÓ और मर्जÓ के मकडज़ाल में जकड़ा है। तकरीबन सभी राजनीतिक दल किसानों के लिए झूठी हमदर्दी जताते रहे, लेकिन यहां से पलायन कर रहे किसानों के मुद्दे को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया गया। उत्तर प्रदेश के हिस्से वालें बुन्देलखण्ड के जिलों में बांदा से 7 लाख 37 हजार 920, चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार 801,महोबा से 2 लाख 97 हजार 547, हमीरपुर से 4 लाख 17 हजार 489, उरई (जालौन) से 5 लाख 38 हजार 147, झांसी से 5 लाख 58 हजार 377 व ललितपुर से 3 लाख 81 हजार 316 और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले जनपदों में टीकमगढ़ से 5 लाख 89 हजार 371, छतरपुर से 7 लाख 66 हजार 809, सागर से 8 लाख 49 हजार 148, दतिया से 2 लाख 901, पन्ना से 2 लाख 56 हजार 270 और दतिया से 2 लाख 70 हजार 277 किसान और कामगार आर्थिक तंगी की वजह से महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं।
-रजनीकांत पारे