ज्योतिरादित्य को राहुल की खुली छूट
04-Apr-2013 06:54 AM 1234776

मध्यप्रदेश में प्रदेशाध्यक्ष से सलाह मशविरा किए बगैर मनमाने दौरे और सभाएं कर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के आत्मविश्वास का राज क्या है। इसकी तह में थोड़ा सा ही झांकने पर अंदाज हो जाता है कि ग्वालियर के महाराजा को दिल्ली के राजा ने भीतर ही भीतर एक राजनीतिक खेल के तह त फ्री हैंड दे रखा है और जानबूझकर उनकी अनुशासनहीनता से मुंह मोड़ रहे हैं। कांग्रेस के एक भीतरी सर्वेक्षण में 43 प्रतिशत कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री के रूप में ज्योतिरादित्य को पसंद किया है। जबकि दिग्विजय अभी भी 35 प्रतिशत कार्यकर्ताओं की पसंद बने हुए हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की लोकप्रियता का तोड़ फिलहाल कांग्रेस तलाशने में असफल रही है। इसीलिए देखा जाए तो राहुल गांधी की मंशा तो यही है कि ज्योतिरादित्य अगले मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट हों, लेकिन उन्हें घोषित करके चुनाव लडऩा शायद संभव न हो। इसीलिए मुख्यमंत्री कौन बनेगा इसका फैसला दिल्ली से होगा इस आधार पर कांग्रेस चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में है। चुनाव से 10 माह पूर्व भी नेतृत्व को लेकर कांग्रेस में छायी धुंध कार्यकर्ताओं को मायूस कर रही है। जब यह पता हो कि भावी मुख्यमंत्री कौन होगा तो चुनावी मैदान में उतरने का फायदा मिलता है।
भारतीय जनता पार्टी ने तो सदैव ही अपनी स्पष्टनीति बनाए रखी थी, लेकिन कांग्रेस गुजरात की तरह मध्यप्रदेश में भी मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने में असफल रही। इसी का नतीजा है कि गुजरात में लगातार पराजय का सामना कांग्रेस को करना पड़ा और नरेंद्र मोदी तो हैट्रिक बनाने में भी कामयाब हो गए। अब कुछ ऐसे ही हालात मध्यप्रदेश में हैं। जहां शिवराज के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार फिलहाल अविजित है। यह सच है कि भाजपा की लोकप्रियता में कमी आई है, जातिगत समीकरण भी कांग्रेस के पक्ष में हैं, एंटीइनकमबैंसी का फायदा भी कांग्रेस को मिल सकता है। लेकिन इस फायदे को वोट में बदलने वाले नेतृत्व की दरकार कांग्रेस को है। जिसे पूरा करना आलाकमान को कठिन जान पड़ रहा है क्योंकि कई दिग्गज नेता एक-दूसरे के नेतृत्व में काम करने को तैयार ही नहीं हैं। यदि यही हाल रहा तो भाजपा की जीत असंभव नहीं है। बल्कि भाजपा हैट्रिक बना लेगी इस बात की पूरी संभावना है। उधर राहुल गांधी के रुख को देखकर दिग्गजों ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी-अपनी दावेदारी जताना शुरू कर दिया है। कांतिलाल भूरिया, अजय सिंह, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह भी कहीं न कहीं मध्यप्रदेश में सक्रिय होने की मंशा रखते हैं। ज्योतिरादित्य, अजय सिंह और कांतिलाल भूरिया तो मध्यप्रदेश में लगातार दौरे भी कर रहे हैं। अजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह लाभ है कि वे राहुल गांधी के सीधे संपर्क में हैं। जबकि कांतिलाल भूरिया आदिवासी होने के नाते प्रदेश में उसी आधार पर आगे बढ़ सकते हैं जिस आधार पर कभी अजीत जोगी तुरुप का पत्ता साबित हुए थे। कमलनाथ सोनिया गांधी के पसंदीदा देता रहे हैं और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पकड़ निर्विवाद है। छिंदवाड़ा तथा आसपास के क्षेत्रों में उनका अच्छा प्रभाव है। दिग्विजय सिंह मुकद्दर के सिकंदर हैं वे पिछली बार भी जब मुख्यमंत्री चुने गए थे उस समय हालात कुछ ऐसे ही थे जैसे वर्तमान में हैं, लेकिन उन हालातों में और वर्तमान हालात में फर्क यह है कि उस वक्त कांग्रेस चुनाव जीत गई थी और नेता का चयन किया जाना था। इस समय कांग्रेस को चुनाव जीतना है, लेकिन उससे पहले नेता भी घोषित करना है ताकि जनता के मन में भावी मुख्यमंत्री के रूप में दोनों प्रमुख दलों के प्रत्याशियों की तस्वीर स्पष्ट हो सके। लेकिन कांग्रेस में तो आलम यह है कि यहां तो जिला कांग्रेस कमेटी का ही अता-पता नहीं है भोपाल जिला कांग्रेस कमेटी की घोषणा पिछले डेढ़ दखक से अटकी पड़ी है। हर बार खबर आती है कि सूची तैयार है भूरिया के अनुमोदन का इंतजार है। लेकिन भूरिया हैं कि अनुमोदन ही नहीं करते और उधर बिना कमेटी के ही ब्लाक कांग्रेस को बैठक आयोजित करनी पड़ती है। वीके हरि प्रसाद ने इस व्यवस्था को सुधारने की भरसक कोशिश की लेकिन सुधार नहीं सके। हारकार उन्होंने कह दिया कि ब्लॉक कांग्रेस की बैठक बिना कमेटी के ही कर ली जाए। आलम यह है कि 488 ब्लॉक में ज्यादातर में कमेटी का गठन ही नहीं हुआ है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसका कोई समाधान कांग्रेस के पास नहीं है। अब प्रश्न यह है कि जब ब्लॉक अध्यक्षों के पास अपने क्षेत्र के कांग्रेसजनों की कोई सूची ही उपलब्ध नहीं है तो बैठकें आयोजित कैसे की जाएंगी। दिग्विजय सिंह चाहते हैं कि वीके हरिप्रसाद प्रभारी पद से हट जाए। शायद इसीलिए हरवंश सिंह का नाम उभरकर सामने आया है। चर्चा यह है कि उन्हें कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जा सकता है या फिर वीके हरिप्रसाद की तरह कोई दायित्व दिया जा सकता है।
फिलहाल वे विधानसभा में उपाध्यक्ष हैं। हरवंश सिंह कभी दिग्विजय मंत्रीमंडल में परिवहन मंत्री हुआ करते थे, लेकिन एक बार दिग्विजय सिंह की उनसे ठन गई थी, जिसके चलते लगभग छह माह तक उन्हें वनवास भोगना पड़ा। बाद में दिल्ली के नेताओं ने दिग्विजय सिंह से उनकी सुलह करवाई। आज राजनीति ने करवट बदली है तो हरवंश सिंह दिग्विजय सिंह के मोहरे बनकर सत्ता की बिसात पर आने को तैयार बैठे हैं। इससे लग रहा है कि पार्टी में ठाकुरवाद का बोलबाला बढ़ रहा है। हाल ही में जब स्विस महिला के साथ ज्यादती के बाद भोपाल में गृममंत्री उमाशंकर गुप्ता के इस्तीफे की मांग को लेकर कांग्रेस ने बोर्ड ऑफिस चौराहे पर धरना दिया तो वहां भी गुटबाजी देखने में आई। धरने में शामिल होने पहुंचे स्थानीय विधायक आरिफ अकील, मंच पर बैठने की बजाए आम कार्यकर्ताओं के बीच बैठ गए। क्योंकि वे मंच पर भीड़ देखकर नाराज हो गए थे। उससे पहले अकील के नेतृत्व में महिलाओं के एक  समूह ने लिली टॉकीज पर प्रदर्शन करके     गिरफ्तारी भी दी थी। अकील जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा  कांग्रेस को आगामी चुनाव में महंगी पड़ सकती है। अंदरूनी समस्याओं का समाधान तत्काल जरूरी है।

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