कैसे मिलेगा चौथी बार कृषि कर्मण अवार्ड...?
17-Nov-2015 08:35 AM 1234926

एक तरफ मध्यप्रदेश सूखे से तड़प रहा है... पानी की कमी के कारण यहां के खेतों में दरारें पढ़ गई हैं... सोयाबीन और खरीफ की अन्य फसलें बर्बाद होने से किसान बेहाल हैं... सरकार कह रही है कि उसके पास किसानों के देने के लिए पैसा नहीं है... मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य बार-बार दिल्ली जाकर केन्द्र सरकार से राहत पैकेज की गुहार लगा रहे हैं... ऐसे में छह नवंबर को इंडिया टूडे स्टेट ऑफ स्टेट कॉनक्लेव नई दिल्ली में मध्यप्रदेश को कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों और उपलब्धियों के लिए पहला पुरस्कार दिया जाता है। केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से
पुरस्कार लेते हुए  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुश तो दिखते हैं लेकिन उनके चेहरे पर आए भाव यह दर्शाते हैं कि वे इससे उतने खुश
नहीं है जितने वे पूर्व में चार बार
कृषि कर्मण अवार्ड लेते समय खुश थे। दरअसल किसानों पर आई विपदा ने उनकी खुशी छीन ली है। वे स्वयं किसान हैं इसलिए जानते हैं कि प्रदेश का किसान इस समय किस दौर से गुजर रहा है। प्रदेश में सोयाबीन और खरीफ की अन्य फसलेें तो बर्बाद हो ही गई हैं। अब रबी की फसल बोने के लिए पानी भी नहीं है। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि आखिर प्रदेश में ऐसी स्थिति क्यों निर्मित हुई है? सरकारी आंकड़ों पर नजर डाले तो हम पाते हैं कि हमारा सिंचाई रकबा साढ़े सात लाख हेक्टेयर से बढ़कर 36 लाख हेक्टेयर का हो गया है फिर भी हमारे खेतों में पानी क्यों नहीं पहुंच पा रहा है। क्या तीन बार लगातार कृषि कर्मण अवार्ड लेने वाला प्रदेश इस साल इतना बेहाल हो गया है कि वह चौथी बार कृषि कर्मण अवार्ड की कल्पना भी नहीं कर पा रहा है। दरअसल, प्रदेश सरकार खेती को लाभ का धंधा बनाना तो चाहती है, लेकिन लाभदायक खेती के लिए सरकार के पास दीर्घकालीन नीति नहीं है। इस कारण जब भी आपदा आती है मप्र की खेती-किसानी पूरी तरह बर्बाद हो जाती है।
शिवराज सिंह चौहान जब से मुख्यमंत्री बने हैं प्रदेश में सबसे अधिक जोर खेती-किसानी पर दिया जा रहा है। सब जानते हैं कि मध्यप्रदेश की अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है और कृषि का आधार सिंचाई। वैसे तो प्रदेश की कृषि मुख्यत: वर्षा आधारित है लेकिन राज्य सरकार ने बीते एक दशक में सिंचाई पर विशेष ध्यान दिया है। राज्य सरकार द्वारा सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने को कितना महत्व दिया गया है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2003-04 में सिंचाई के लिए जहां 1005.57 करोड़ का प्रावधान किया गया था, वहीं वर्ष 2015-16 में 6255.83 करोड़ का प्रावधान किया गया है। दस साल पहले जहाँ प्रदेश में 7.50 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती थी, वहीं अब 36 लाख हेक्टेयर में सिंचाई हो रही है। प्रदेश में सिंचाई के क्षेत्र में किए गए अभूतपूर्व कार्यों की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी तारीफ की है। केन्द्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने हाल ही में अपनी भोपाल यात्रा के दौरान कहा कि मध्यप्रदेश से यह सीख मिली है कि सिंचाई परियोजनाओं पर भी अब पैसा खर्च करो। अभी तक हम इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट में पैसा दे रहे थे। केन्द्र सरकार वॉटर ट्रांसपोर्टेशन और छोटी सिंचाई परियोजनाओं पर भी ध्यान देगी। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इस बार ऐसी क्या स्थिति निर्मित हुई है कि प्रदेश में 44 लाख हेक्टेयर खेत सूखे की चपेट में आ गए हैं। इससे 33,000 गांव के लोग प्रभावित हुए हैं। क्या सिंचाई परियोजनाएं केवल कागजों पर ही हैं या उन्हें धरातल पर भी उतारा गया है।
यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि प्रदेश में पिछले 7 साल से कागजों पर तालाब खोदकर सरकार को करोड़ों रूपए चूना लगाने का मामला सामने आया है। जब मामला उजागर हुआ है तो प्रारंभिक पड़ताल में करीब 8055 से अधिक तालाब लापता बताए जा रहे हैं। इस मामले में जांच चल रही है और रोज नए खुलासे हो रहे हैं। इन सब के बीच हमारे किसान अपने पसीने से सींचकर खेती कर रहे हैं जिसका प्रतिफल है कि वर्ष 2014-15 में प्रदेश के कृषि उत्पादन में 181 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। आज मध्यप्रदेश का कृषि उत्पादन लगभग 4 करोड़ मीट्रिक टन है। गत 3 वर्ष में प्रदेश की कृषि विकास दर प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत से अधिक रही है। कृषि में शानदार उपलब्धियों की बदौलत प्रदेश को बीते तीन साल से भारत सरकार का प्रतिष्ठित कृषि कर्मण अवार्ड मिल रहा है। मध्यप्रदेश आज गेहूं के उत्पादन में पांचवें स्थान से दूसरे स्थान पर, धान के उत्पादन में 17वें से सातवें स्थान पर और मक्का के उत्पादन में आठवें से पांचवें स्थान पर है। लेकिन इस साल स्थिति भयावह नजर आ रही है। सोयाबीन, मक्का और अन्य खरीफ फसल के साथ धान भी बर्बाद हो गया है। वहीं कहीं पानी के अभाव में गेंहू की बोवनी नहीं हो पाई है और जहां हुई है वहां पानी न मिलने से पौधे सूखने लगे हैं। खरीफ फसल के बर्बाद होने के बाद से किसान अब इतना सक्षम नहीं रह गया है कि वह अपने खेत में कुंआ खुदवा सके। वह खराब हुई खरीफ फसल के मुआवजे और बीमा के लिए  सरकार की ओर टकटकी लगाए हुए है, लेकिन सरकार खजाना खाली होने का अलाप करते हुए केंद्र सरकार की तरफ देख रही है।
कई बार लगाई गुहार नहीं मिला धेला भी
प्रदेश में सूखे से बेहाल किसानों को राहत देने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्रियों से मिलकर कई बार राहत राशि की मांग कर चुके हैं, लेकिन अभी तक केंद्र ने प्रदेश को राहत राशि नहीं दी है। ऐसे में प्रदेश सरकार ने अपने संसाधनों से 1600 करोड़ रुपए की मदद किसानों को की है। जबकि यूपीए शासन काल में किसी भी प्रकार की राहत राशि की जरूरत पडऩे पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी अपने हक की तरह केंद्र पर दबाव डालकर राहत राहत राशि ले आते थे। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि यूपीए शासनकाल में प्रदेश के किसानों को राहत पहुंचाने के लिए राहत राशि की मांग को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 7 मार्च 2014 को अपने मंत्रियों के साथ उपवास पर बैठते है और वहीं मध्य प्रदेश के भाजपा सांसदों ने सुषमा स्वराज के नेतृत्व में दिल्ली जाकर राष्ट्रपति से मुलाकात की। लेकिन अब ये लोग चुप्पी क्यों साध रखे हैं। जबकि इस बार तो हालात पहले से बदत्तर है। नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे कहते हैं कि बात-बात पर पूर्व प्रधानमंत्री से पैकेज लाने वाले शिवराज सिंह चौहान अब क्यों नहीं केंद्र पर दबाव बना रहे हैं।
कांग्रेस के आरोपों के इतर देखा जाए तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई है। वे किसान पुत्र हैं और मुख्यमंत्री होते हुए भी उनका मुख्य पेशा खेती है। इसलिए वह चाहते हैं कि किसानों की बर्बाद हुई फसलों को भरपूर मुआवजा उन्हें मिले। लेकिन प्रदेश सरकार पिछले साल 2,000 करोड़ रूपए की राहत राशि बांट कर अभी खाली हाथ है। ज्ञातव्य है कि केंद्र द्वारा हर साल प्रदेश सरकार को राहत कोष के लिए 877 करोड़ रूपए मिलते हैं। अगर इस हिसाब से देखा जाए तो प्रदेश सरकार ने किसानों को पिछली साल अपने फंड से करीब 1100 करोड़ रूपए दिए हैं और इस बार भी 1600 करोड़ रूपए दिया है। इससे सरकार का राहत कोष खाली पड़ा है। ऐसी घड़ी में प्रदेश में सूखा प्रभावित किसानों को राहत पहुंचाने के लिए सरकारी विभागों के खर्चों में कटौती करके का खाका तैयार किया है। साथ ही इस संबंध में मप्र सरकार ने करीब 15 हजार करोड़ रुपए का जो मेमोरेंडम केंद्र सरकार के पास भेजा है, अभी उस पर कुछ भी नहीं हो पाया है। केंद्र को भेजे गए मेमोरेंडम में भी कई बातें
ऐसी हैं, जिस पर इतनी जल्दी कोई मदद नहीं मिल सकती।
राज्य सरकार ने मनरेगा राशि, पेयजल, फसल बीमा योजना, रबी की फसलों के लिए क्राप लोन समेत अन्य मदों के लिए राशि मांगी है। ऐसे में इसके आंकलन से लेकर पूरा मसौदा तैयार करने में समय लगना तय है। राज्य सरकार ने 15 हजार करोड़ रुपए के मेमोरेंडम में  762 करोड़ रुपए मनरेगा, 2 हजार 390 करोड़ रुपए की राहत राशि, 296 करोड़ रुपए ग्रामीण व शहरी पेयजल, 770 करोड़ रुपए क्राप लोन (इसमें लांग टर्म व शार्ट टर्म लोन), 1400 करोड़ रुपए क्राप लोन की राशि रबी फसलों के लिए, 5 हजार करोड़ रुपए की राशि सहकारी बैंकों की लिक्विडिटी के लिए मांगी गई है। कहा जा रहा है कि किसानों की समस्याओं को देखते हुए सरकार ने अफसरों की आनन-फानन में बैठक लेकर केंद्र को मेमोरेंडम भेजने की औपचारिकता पूरी कर गेंद केंद्र के पाले में डाल दी है। लेकिन इस बात का ध्यान नहीं दिया गया है कि केंद्र सरकार ने राहत के लिए मापदंड तय किया है। इस मापदंड के पूरे होने पर ही राहत राशि देने का प्रावधान है। एनडीआरएफ के आरबीसी-6 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिस आधार पर बगैर किसी आंकलन के राहत राशि दी जाए। ऐसे में सरकार का यह प्रयास मात्र दिखावा बताया जा रहा है।
4200 करोड़ की मांगी मदद
सूखा सर्वे पर आए केंद्रीय अध्ययन दल ने भी माना है कि प्रदेश में सूखे की स्थिति भयावह है। दल के सदस्यों से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाकात कर कहा कि प्रदेश में सूखे के चलते कई जिलों में फसलें नहीं हुई हैं जिससे किसान सदमे की स्थिति में हैं। उन्होंने केंद्रीय दल से कहा कि जितनी जल्दी हो सके सूखा सर्वे की रिपोर्ट केंद्र को भेजें जिससे प्रदेश के किसानों का राहत जल्द मिल सके। गौरतलब है कि सात सदस्यीय केन्द्रीय अध्ययन दल केन्द्र सरकार के संयुक्त सचिव अमिताभ गौतम के नेतृत्व में प्रदेश के दौरे पर आया था। आठ नवंबर को आए इस दल के सदस्यों ने सागर, कटनी, दमोह, पन्ना, सतना, अनूपपुर, शहडोल, उमरिया, सीधी, रीवा जिले के गांवों का दौरा कर फसलों की स्थिति का आंकलन किया है। सीएम से केंद्रीय दल से कहा कि 33 हजार गांव के 44 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फसल खराब हुई है। उन्होंने अध्ययन दल के माध्यम से केंद्र से आग्रह किया कि वे जल्द राहत राशि उपलब्ध कराएं। मुख्यमंत्री ने केंद्रीय दल को बताया कि प्रदेश को राहत सहायता के रूप में 4198 करोड़ रुपए की जरूरत है। जिसमें 3428 की इनपुट सब्सिडी, 300 करोड़ की पेयजल, 770 करोड़ की ब्याज प्रतिपूर्ति शामिल हैं। राज्य सरकार ने प्रदेश के 141 तहसीलों को सूखा ग्रस्त घोषित किया है। इन तहसीलों में किसानों को विशेष तौर पर रियायत देने का निर्णय लिया गया है। इसके अलावा उन जिलों की तहसीलों में भी राहत राशि प्रदान की जाएगी, जिन जिलों में सूखे व अवर्षा से फसलों को क्षति हुई है। फसलों के नुकसान की भरपाई के लिए फसल बीमा राशि भी प्रदान की जाएगी। उधर,पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह कहते हैं कि प्रदेश में किसान की हालत दिन प्रतिदिन बदतर होती जा रहा है। सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये के कारण ही किसान आत्महत्या कर रहे हैंं।
किसान नेता शिवकुमार शर्मा कहते हैं कि खेतों के आसपास से बहने वाले नदी और नालों के पानी पर भी अब किसानों का हक नहीं रहा। यदि किसान इस पानी का उपयोग करते हैं तो उन्हे सिंचाई विभाग को टैक्स चुकाना होगा। सिंचाई विभाग के इस निर्देश से कई जिलों के किसानों की परेशानी और बढ़ गई है। विभाग इसे सरकार का फैसला बता रहा है। सूखे के संकट से परेशान किसान इस फैसले के विरोध में हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाने की बात कह रहे हैं। किसानों का कहना है कि खरीफ सीजन के दौरान अनियमित बारिश और कीट प्रकोप के कारण सोयाबीन और उड़द की फसल पहले ही बर्बाद हो चुकी है। वे रबी सीजन में भी कर्ज लेकर बुआई कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में सिंचाई टैक्स कहां से जमा करेंगे। विदिशा जिले के परसौरा के किसान संजय रघुवंशी के मुताबिक पिछले चार वर्षों से लगातार फसलें बर्बाद होने के कारण परिवार का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है। वहीं सरकार पीडि़त किसानों से टैक्स वसूली में लगी है। उनके अनुसार सिंचाई टैक्स के रूप में ही किसान पर 4 से 5 हजार रुपए तक का आर्थिक बोझ पड़ता है। जिसके कारण किसान परेशान हैं। नदी-नालों पर टैक्स विरोधी के खिलाफ क्षेत्र के कुछ किसान हाईकोर्ट में जनहित याचिका लगाने की तैयारी कर रहे हैं। ग्वालियर हाईकोर्ट के वकील पवन रघुवंशी के मुताबिक सिंचाई विभाग का कहना है कि राज्य सरकार ने तीन साल पहले नदी-नालों से सिंचाई पर टैक्स निर्धारित किया है। जबकि सरकार द्वारा जारी अध्यादेश में कमांड क्षेत्र में केनाल का पानी लेने पर ही टैक्स वसूल करने के निर्देश हैं। इसी विसंगति को लेकर वे हाईकोर्ट में किसानों की ओर से जनहित याचिका दायर करेंगे। वहीं हलाली परियोजना के प्रभारी कार्यपालन यंत्री जेएस वर्मा कहते हैं कि नहरों के अलावा नदियों और नालों से बहने वाले पानी पर सरकार का ही हक होता है। राज्य सरकार ने तीन साल पहले निर्देश जारी कर नदी-नालों के पानी के उपयोग पर सिंचाई टैक्स लगाया है। इसी के अनुरूप किसानों से हर वर्ष यह टैक्स वसूला जाता है।

इन पर कब होगा अमल
-    फल सब्जी की खेती को बढ़ावा व उचित दामों के लिए फेडरेशन बनेगा।
-    सभी जिला मंडियों में फल व सब्जी की मंडी बनेंगी। दो फीसद से ज्यादा कमीशन नहीं ले सकेंगे आढ़तिये।
-    किसानों को स्वाइल हेल्थ कार्ड दिए जाएंगे।
-     खेती का चक्र बदलने के लिए बड़े पैमान पर अभियान।
-    सोलर पंप पर सब्सिडी।
-    प्रत्येक किसान को सहकारिता सोसाइटी से जोड़ेंगे।
-     खेती के सहायक उद्योगों को बढ़ावा।
-    रबी में खाद बीज की कमी नहीं होगी।
-    मनरेगा में व्यापक कार्य शुरू होंगे, 150 दिन मजदूरी मिलेगी।
-     राजस्थान से पानी की व्यवस्था के लिए अफसरों की टीम सक्रिय।
-     कर्ज वसूली स्थगित, कमर्शियल बैंकों से भी सरकार आग्रह करेगी।
-    एक साल का ब्याज अदा करेगी राज्य सरकार।
-     साहूकार नहीं कर सकेंगे किसानों से वसूली।
-    तहसील के बजाए पांच-पांच गांव का क्लस्टर बनाकर सूखा घोषित करेंगे।
-    जले हुए ट्रांसफार्मर बदले जाएंगे।
-    पीडि़त किसान की बेटी की शादी हेतु 25 हजार का चैक भेजेंगे।
-  सूखा पीडि़त किसान को एक रुपए किलो गेंहू-चावल व नमक।
-    भू राजस्व संहिता में बदलाव, बटाईदार को मिलेगी।

फसल बीमा के बाद भी किसान के हाथ खाली क्यों?
सूखे की मार झेल रहे प्रदेश के किसानों को फसल बीमा में मिलने वाले मुआवजे में जो आशा की किरण नजर आ रही थी वो पूरी नहीं होगी। उन्हें बीमा के करीब साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए में से नगदी हाथ आने की गुंजाइश न के बराबर है, क्योंकि किसानों ने बैंक से खेती के लिए जो कर्ज लिया है, वही रकम इस मुआवजे से समायोजित कर ली जाएगी यानी बीमा की रकम से किसान सिर्फ ऋण मुक्त होगा। जिन किसानों पर कम ऋण है और उन्हें अधिक बीमा मुआवजा मिलता है तो समायोजन के बाद कुछ नगदी हाथ आ सकती है। सहकारी बैंकों को किसानों से 12 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की वसूली करना है। फसल बीमा में किसानों का हाथ खाली इसलिए होता है कि राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना में बैंक फसल की जगह कर्ज का बीमा करते हैं। कर्ज देने के साथ ही प्रीमियम की राशि काटकर बीमा कंपनी में जमा करा दी जाती है। ऐसा करने की वजह है कि बैंक खुद कर्ज लेकर किसानों को कर्ज देते हैं। ऐसे में वह कर्ज को तो सुरक्षित कर लेते हैं, लेकिन बाद में बीमा की राशि पर किसान से पहले बैंक का हक तय हो जाता है। हालात ये हैं कि 38 जिला सहकारी बैंकों के माध्यम से 20 लाख से ज्यादा किसानों का बीमा किया गया है। अब तीन फसलों खरीफ 2014-15, रबी 2014-15 और खरीफ 2015 का मिलाकर 3500 करोड़ से ज्यादा का बीमा मिलना है, लेकिन शर्तों के चलते बीमा की इस राशि पर पहला हक बैंकों का होगा और वे पहले अपनी कर्ज की रकम समायोजित करेंगे। इसके बाद यदि कुछ राशि बची तो किसान को मिलेगी। सहकारिता विभाग के अफसरों का कहना है कि किसान कर्ज या फसल पर बीमा करा सकता है। यदि कर्ज के विरुद्ध बीमा है तो पहले उसकी भरपाई होगी। वहीं अपेक्स बैंक के अफसरों का कहना है कि किसान खेती के लिए कर्ज लेता है। उसे भविष्य में कर्ज मिले इसके लिए जरूरी है कि पहले कर्ज की अदायगी करे। देश में अकेले मध्यप्रदेश ही ऐसा राज्य है जो बिना ब्याज के कर्ज देता है। अब तो 100 रुपए के कर्ज पर 90 ही वापस करने की योजना भी लागू कर दी है।  इस संदर्भ में कृषि विभाग के अधिकारियों का भी कहना है कि मौजूदा फसल बीमा में कर्ज और फसल दोनों का बीमा होता है। जाहिर है कि बीमा में मुआवजा मिलने पर पहला दावा संबंधित बैंक का ही होगा। जहां तक बात फसल बीमा योजना की है तो इसकी खामियों को राज्य सरकार पहले ही केन्द्र के समक्ष उठा चुकी है। यानी किसान कितना भी बेहाल हो जाए फसल बीमा केवल दिखावा मात्र है।

शिवराज की सिफारिशें केंद्र सरकार ने मानी
केंद्र सरकार ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की वे सारी सिफारिशें मान ली हैं, जो उन्होंने नीति आयोग की रिपोर्ट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपी थी। केंद्र परिवर्तित योजनाओं के लिए गठित नीति आयोग के उपसमूह की रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने मंजूरी दे दी है। इस संबंध में केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने आदेश भी जारी कर दिए हैं। इसके बाद ये तय हो गया कि पुलिस आधुनिकीकरण योजना अब बंद नहीं होगी। इसमें केंद्र सरकार नए फंडिंग पैटर्न में 60 फीसदी राशि देगी। शेष 40 फीसदी राशि संबंधित राज्य सरकार को मिलानी होगी। इसके साथ राष्ट्रीय एजेंडे वाली योजनाएं जैसे आईसीडीएस, स्वच्छ भारत मिशन आदि में केंद्र सरकार 60 और राज्य सरकार 40 फीसदी राशि देगी। इसके अनुसार अब वैकल्पिक योजना में केंद्र सरकार और राज्य सरकार बराबर से यानी 50-50 प्रतिशत राशि देनी होगी। राज्य अपनी सुविधा के अनुसार योजना की कुल राशि में से 25 प्रतिशत का उपयोग फ्लैक्सी फंड के बतौर कर सकेंगे। दरअसल केंद्र सरकार ने पहले सभी योजनाओं के फंडिंग पैटर्न बदलकर 50-50 प्रतिशत कर दिया था। समूह की सिफारिशों के अनुसार पिछड़े राज्यों में बीआरजीएफ योजना को बंद नहीं किया गया। इसके अलावा जिन योजनाओं को केंद्र सरकार वर्ष 2015 में बंद कर चुकी है उनमें 30 फीसदी से अधिक काम होने पर वर्ष 2017 तक चालू रखा जाएगा।

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