किसान मर रहा है और अफसर गा रहे मल्हार
02-Nov-2015 07:56 AM 1234981

दमोह के पथरिया में ललन यादव ने बड़े अरमानों के साथ अपने खेत में सोयाबीन की फसल बोई थी, लेकिन मौसम की मार ने उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। वह इतने आहत हुए कि उन्होंने उसी खेत में खुद पर मिट्टी का तेल डालकर जान दे दी। इसी तरह सागर के सूरादेही में किसान सुरेंद्र लोधी ने फसल की बर्बादी और कर्ज से परेशान होकर फांसी लगाकर जान दे दी।
वर्तमान में मध्यप्रदेश में ऐसा कोई एक दिन गुजरा है जब किसी हिस्से से किसान के सूखा और कर्ज के चलते आत्महत्या करने की खबर न आई हो। लगभग हर रोज एक या उससे ज्यादा किसान मौत को गले लगा रहे हैं। यह बात अलग है कि किसानों की आत्महत्या की वजह सरकारी मशीनरी सिर्फ सूखा और कर्ज नहीं मानती है। लेकिन हकीकत यह है जिस पीले सोने (सोयाबीन) से मध्यप्रदेश की कृषि के क्षेत्र चमक है, जिस सोयाबीन के रिकार्ड उत्पादन से प्रदेश को तीन बार कृषि कर्मण पुरस्कार मिल चुका है, वही किसानों के लिए कब्रगाह साबित हो रहा है। देश का करीब साठ फीसदी सोयाबीन उत्पादित करने वाले इस सोया प्रदेश में इस बार सूखे ने किसानों को इस कदर बेहाल किया है कि वे अब मौत को गले लगा रहे हैं।  प्रदेश में कुल 23 जिलों की 141 तहसीलें सूखाग्रस्त घोषित की जा चुकी हैं। मुख्यमंत्री और शिवराज सिंह चौहान ने भी माना है कि 70 के दशक के बाद यह सबसे बड़ा सूखा है। प्रदेश में सोयाबीन सहित उड़द, तिल आदि की बुआई के समय से ही सूखे के हालात बने हुए थे, लेकिन सरकारी उपेक्षा, कर्ज के बढ़ते बोझ, घटिया बीज और खाद के  बाद भी प्रकृति के प्रकोप का मुकाबला करते हुए किसानों ने भगवान पर भरोसा करके इस बार रिकार्ड 59 लाख हैक्टेयर (2012 में 58.128 लाख हेक्टेयर, 2013 62.605 लाख हेक्टेयर, 2014 55.462 लाख हेक्टेयर)में सोयाबीन की बुआई की थी। लेकिन न तो मानसून और न ही सरकारी सिंचाई संसाधनों ने किसान का साथ दिया, इसका परिणाम यह हुआ की उसकी फसल चौपट हो गई तथा पीला सोना मौत की फसल साबित होने लगा है! सूखे से निर्मित हालात से निपटने और किसानों को ढांढस बंधाने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मैदानी मोर्चा संभाला। उन्होंने घोषणा की है कि प्रदेश में किसानों को सूखे के संकट से उबारने के लिए  7,000 करोड़़ रुपए की सहायता की जाएगी। सोयाबीन की फसल के नुकसान पर 3,000 करोड़़ रुपए, फसल बीमा की राशि 3,000 करोड़़ रुपए तथा एक साल का ब्याज 1,000 करोड़़ रुपए, इस प्रकार 7,000 करोड़़ की राशि किसानों को बांटी जाएगी। उन्होंने कहा एक वर्ष पुल-पुलिया या सड़क नहीं बने तो कोई बात नहीं, पर किसानों को कोई परेशानी नहीं होने देंगे। मैं स्वयं किसान हूं और किसानों का दर्द समझता हूं। यही नहीं उन्होंने देश में अनोखा प्रयोग करते हुए मंत्रियों के साथ नौकरशाहों को भी गांव की चौपाल पर तीन दिनों तक किसानों की समस्याएं सुनने और उनकी बर्बाद फसल का सर्वे करने तैनात रखा। अफसरों को चार बिंदुओं पर सर्वे करने को कहा गया था जिसमें से पहला- सूखे की स्थिति, दूसरा- पेयजल की स्थिति, तीसरा-वैकल्पिक रोजगार देने की व्यवस्था और चौथा-अन्य कोई समस्या। इस दौरान अफसरों ने फील्ड में जो देखा वह दयनीय स्थिति को दर्शाता है। गांव के लोगों को मालूम ही नहीं है कि उनके लिए सरकार ने कौन-कौन सी योजना चला रखी हैं। मनरेगा से अधिक मजदूरी दूसरे कामों में मिल रही है इसलिए लोग पलायन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री सड़क कहीं दिख नहीं रही है। करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी शौचालय कहीं नजर नहीं आए। पेंशन योजना के बुरे हाल हैं। बैंक गांवों से दूर है इसलिए मोबाइल बैंकिंग के माध्यम से ग्रामीणों को पेंशन पहुंचायी जाती है, लेकिन 200 रुपए की पेंशन में से 75 रुपए इसकी फीस काट ली जाती है। हां शिक्षा, स्वास्थ्य और पीडीएस की स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छी है। राजधानी से गए 165 अफसरों ने जो रिपोर्ट दी है उसमें एक बात यह भी निकली की जिले के अधिकारी गांवों का भ्रमण ही नहीं करते। कलेक्टर को तो किसी ने देखा तक नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी विसंगति यह देखने में आई है कि मुख्यमंत्री के गृह जिले में ही किसानों को 2014 में ओले की मुआवजा राशि नहीं मिल पाई है। ऐसे में अब जब सूखा विकराल रूप धारण कर चुका है तो सरकार का यह प्रयास भी कारगर साबित नहीं हुआ और आलम यह है कि प्रदेश में कोई ऐसा  दिन नहीं बीत रहा है जिस दिन दो-तीन किसान मौत के गाल में न समा रहे हों। कोई किसान हार्ट अटैक से तो कोई फांसी पर झूल कर मौत को गले लगा रहा है। मौत का सबब एक ही है बर्बाद हुई फसल और गले में कसता कर्ज का फंदा। कर्ज एक तरह का नहीं और एक जगह का भी नहीं है। पीडि़त किसानों का कहना है कि किसान ने खेती, बेटी की शादी, बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज लिया है। उसके सिर पर बैंक, सोसायटी और साहूकारों के कर्ज का बोझ है। दिन रात एक करके भी उसे उस कर्ज से छुटकारे का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। इसी वजह से किसान का हौसला टूट रहा है और वह अपनी जीवनलीला खत्म कर रहा है। जिन किसानों की मौत हो गई उन परिवारों के लिए तो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसे हालात हैं। एक तो कमाने वाला चला गया दूसरी तरफ कर्ज से भी छुटकारा नहीं। किसान की मौत के बाद न तो कर्ज माफी का कोई प्रावधान है और न ही न किसी तरह की मदद की व्यवस्था। अफसर कोरे आश्वासन और सांत्वना देकर ही काम चला रहे हैं। मध्यप्रदेश में सूखे से फसलों को हुए नुकसान से पीडि़त किसानों को राहत देने के लिए प्रदेश के वित्त मंत्री और कृषि मंत्री ने केन्द्र से 2400 करोड़ रुपए का पैकेज मांगा। मंत्रियों ने केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को बताया कि प्रदेश पिछले 3-4 सालों से प्राकृतिक आपदा के कारण सूखे की स्थिति से जूझ रहा है। इससे फसलों के उत्पादन में गिरावट आई है और किसानों को आर्थिक नुकसान हुआ है। प्रदेश में 35 जिले की 228 तहसीलें सूखे की चपेट में है। जिससे 48 लाख किसान प्रभावित हुए हैं। प्रदेश सरकार ने अपने संसाधनों से अब तक 370 करोड़ रूपए की राहत राशि किसानों को बांटी है।
20,000 गांवों में रोजी रोटी का संकट
प्रदेश में इस बार सूखे के कारण फसल बर्बाद होने से करीब 20,000 गांवों में रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। कई गांवों में लोग पलायन करने लगे हैं। लोगों का कहना है कि गांव में मौत के अलावा और कुछ नजर नहीं आ रहा है। मनरेगा के तहत मशीनों से काम हो रहा है। कहीं काम भी मिल रहा है तो मजदूरी इतनी नहीं मिल रही है कि घर चलाने के साथ ही कर्ज का बोझ भी कम या जा सके। ऐसे में कर्ज के बोझ से दबे किसान अब रोजगार के लिए मुंबई्र,पंजाब,दिल्ली और दक्षिण भारत के शहरों का रूख कर रहे हैं। पलायन करने वालों में सबसे अधिक बैतूल, दमोह, धार, उमरिया, बुरहानपुर, नरसिहपुर, कटनी, छतरपुर, टीकमगढ़ आदि जिलों के लोग हैं। किसान नेता सुरेश गर्जर कहते हैं कि यह सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है। वह कहते हैं कि सरकार कृषि पर आई आपदा को तत्कालीन मानकर काम करती है, जबकि यह दीर्घकालीन होती है। इसलिए सरकार को चाहिए की वह अतिवृष्टि-अनावृष्टि या अन्य तरह से खेती पर आने वाली आपदा के निदान के लिए योजना बनाएं, ताकि अगर कभी आपदा आ भी जाए तो किसान हताहत न हो। वह आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि प्रदेश में यह तब स्थिति है जब पिछले चार सालों के दौरान देश के कृषि मानचित्र में मध्य प्रदेश का तेजी से उभार हुआ है। बीमारूÓ की श्रेणी में आने वाला यह राज्य देश में सबसे अधिक कृषि विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है। राज्य की कृषि विकास दर वर्ष 2013-14 में 24.99 प्रतिशत रही। वित्त वर्ष 2012-13 में 20.44 फीसदी रही और वित्त वर्ष 2011-12 में 18.90  फीसदी। इस विकास दर को देखते हुए मध्य प्रदेश को लगातार तीन बार केंद्र सरकार का कृषि कर्मण पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। लेकिन मध्य प्रदेश में कृषि विकास के दावों के बीच सरकार सूखे की एक मार से हाहाकार की स्थिति बन गई है। सरकार के सारे के सारे दावों पर इस सूखे से बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए है। देश में सबसे अधिक कृषि विकास दर वाले राज्य में किसान इतने भी सक्षम नहीं है कि एक सूखे की एक मार को सहन कर सकें। इससे साफ है कि मप्र में कृषि विकास कागजों पर ज्यादा और हकीकत में कुछ भी नहीं है। खेती को लाभ का धंधा बनाने की जिद पालने वाली सरकार में किसान और खेत से संबंधित 43 से ज्यादा योजनाएं चल रही हैं। इनमें से दो दर्जन योजनाएं तो सिर्फ राज्य सरकार की हैं जो विभिन्न विभाग संचालित करते हैं। करीब एक दर्जन योजनाएं केंद्र सरकार की हैं। इन तमाम योजनाओं और कायक्रमों के क्रियान्वयन पर हर साल सरकार हजारों करोड़ रुपए खर्च कर रही है लेकिन इसके बाद भी किसान की स्थिति में सुधार नहीं है।  मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भले ही खेती को फायदे का धंधा बनाने की बातें दोहराते रहते हों और किसानों की हरसंभव मदद के वादे करते रहते हों, मगर किसानों को इन वादों पर विश्वास नहीं है। यही वजह है कि फसल की बर्बादी के आगे हार मान चुके किसान मौत को गले लगाए जा रहे हैं।
किसान नेता शिवकुमार शर्मा कहते हैं कि प्रदेश सरकार द्वारा किसानों से वादे तो बहुत होते हैं, मगर उन पर अमल नहीं होता। किसानों को बीमा की राशि तक तो मिलती नहीं है, मुआवजा सिर्फ बातों तक ही रह जाता है। शर्मा की मानें तो बीते एक पखवाड़े में राज्य में 22 किसान मौत को गले लगा चुके हैं। इस सिलसिला के आगे भी जारी रहने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि किसान बीते चार वर्षों से पड़ रही प्राकृतिक आपदा से बुरी तरह टूट चुके हैं। मुख्यमंत्री चौहान सिर्फ उद्योगपतियों के लिए काम कर रहे हैं, विदेश जा रहे हैं, मगर उन्हें किसानों की चिंता नहीं है। माकपा के प्रदेश सचिव बादल सरोज का कहना है कि पूरे प्रदेश में सूखे के हालात हैं। सरकार को 10 हजार रुपए प्रति एकड़ के मान से किसान को राहत राशि देनी चाहिए। मनरेगा के तहत 200 दिन का काम दिया जाए। इसके साथ सर्वेक्षण कार्य पूरा होने पर किसान को क्षतिपूर्ति की शत-प्रतिशत राशि दी जाए। राज्य का अन्नदाता एक बार फिर निराश है और मौसम से मिली हार के बाद उसे अब सिर्फ सरकार से ही आस है। इस स्थिति में अगर सरकार ने भी उसका साथ नहीं दिया तो किसानों की मौत का आंकड़ा पिछले सालों से भी आगे निकलने से कोई नहीं रोक पाएगा। शिवकुमार शर्मा का कहना है, सरकार यह प्रचारित कर रही है कि सिर्फ सोयाबीन की फसल ही खराब हुई है, जबकि वास्तविकता यह है कि किसान बीते 5 वर्षों से तरह-तरह की मार झेल रहे हैं। इसने उसकी कमर तोड़ दी है। सरकार का रवैया किसान विरोधी है। यही कारण है कि राज्य में 4 से 5 किसान हर रोज आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार को यह समझना होगा कि किसान किसी एक फसल के खराब होने पर ऐसा कदम नहीं उठाता है। शर्मा कहते हैं कि राज्य सरकार वादे तो खूब करती है, लेकिन किसान के हाथ कुछ नहीं आता। ऊपर से सत्ताधारी दल भाजपा के नेता किसानों की आत्महत्या पर इस तरह बोल जाते हैं कि उनका दर्द कई गुना बढ़ जाता है। सरकार के कई मंत्री तो ऐसे हैं जिन्हें किसान की आत्महत्या में दूसरे कारण नजर आते हैं। सूखा से बिगड़े हालात के बीच राज्य सरकार ने 141 तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है, वहीं सरकार के पास जो सूखा संबंधी रिपोर्ट जिलों से आई है वह बताती है कि समर्थन मूल्य के आधार पर खरीफ की फसल और धान की फसल को कुल 13,800 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इसी आधार पर केंद्र सरकार को 15 हजार करोड़ रुपये की मदद का प्रस्ताव भेजा जा रहा है। सरकार भी सूखे की हालात से चिंतित है और किसानों को सहायता का भरोसा दिलाने में लगी है। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि सरकार किसानों के साथ खड़ी है, उन्हें राहत राशि दी जाएगी, बीमा राशि का भुगतान किया जाएगा और उनकी हरसंभव मदद में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ेगी। कर्ज पर ब्याज की राशि को माफ किया गया है, वहीं कर्ज की अवधि में बदलाव किया गया है ताकि किसान को कोई परेशानी न आए। इसके साथ ही आगामी फसल के लिए पानी, बिजली आदि की उपलब्धता सुनिश्चित कराई जा रही है। किसान साल हारे हैं, जिंदगी नहीं हारे हैं।

कर्ज है आत्महत्या की सबसे बड़ी वजह
पिछले कई सालों से मध्यप्रदेश के किसान गहरे संकट में है। यह संकट है उनकी छोटी होती कृषि भूमि, मंहगी होती खेती और बार-बार नष्ट होती फसलों का, जिसके चलते वे कर्ज के भारी बोझ को ढोने के लिए विवश है। स्थिति तब ज्यादा गंभीर हो जाती है जब संकट से जूझते हुए किसान आत्महत्या को विवश हो जाते हैं। देश के अन्य राज्यों की तरह आज मध्यप्रदेश को भी इसी दर्दनाक स्थिति से गुजरना पड़ रहा है। एक अध्ययन के अंतर्गत यह देखा गया है की आत्महत्या का प्रयास करने वाले तथा आत्महत्या करने वाले किसानों के पास कितनी कृषि भूमि है यानी वे कैसे किसान है, लघु, सीमान्त या बड़े किसान उन पर साहूकारी और बैंक कितना कर्ज है तथा उनके द्वारा आत्महत्या जैसा दर्दनाक कदम क्यों उठाया गया। इसके लिए घटनाओं से संबंधित जानकारियां एकत्र की गई, उनमें से कई स्थानों पर जाकर संबंधित लोगों (मृतकों के परिजनों) से मुलाकात की गई। इस प्रकार सामने आए तथ्यों का विश्लेषण करके यह जानने की कोशिश की गई कि किसानों की आत्महत्या के पीछे मुख्य कारण क्या है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है तथा इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए किस तरह की नीतियोंं और कार्यक्रमों की जरूरत है इस प्रकार यह अध्ययन केस स्टैडी, साक्षात्कार, फैक्ट फाईंडिंग एवं समूह चर्चा पर आधारित है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ करनी पड़ती है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्यप्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रूपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर ही कर्ज की मात्रा दुगनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। आत्महत्या करने वाले, पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रूपए से अधिक का कर्ज था। देश में आत्महत्या करने वाले किसानों में हर तीसरा किसान छोटा या सीमांत किसान है और आत्महत्या को मजबूर किसानों में हर पांचवां किसान कर्जदारी या आर्थिक तंगी के कारण यह कदम उठा रहा है।
हर आईएएस को एक जिले
के कमान सौंप दे सरकार
प्रदेश में हालात बिगडऩे के बाद सरकार ने जो सतर्कता बरती है, उसका असर इसलिए नहीं हो रहा है कि वह तात्कालीन है। तीन दिन में पूरे प्रदेश के खेतों और किसानों की समस्याओं का सर्वे कर पाना नामुमकिन है। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह प्रदेश के एक-एक आईएएस को एक-एक जिले की कमान सौंप कर उसे फ्री हैंड दे दे और दो महीने बाद उस गांव की रिपोर्ट जांचे। अगर सरकार इस फार्मूले पर काम करती है तो निश्चित रूप से जैसी स्थिति इस समय निर्मित हुई है वह कभी नहीं बनेगी। अधिकारी के ऊपर भी एक जिम्मेदारी रहेगी साथ ही उसमें अपने जिले को अव्वल बनाने के लिए प्रतियोगिता का भाव जागृत होगा। गांवों की तस्वीर ऐसे ही बदली जा सकती है। इस तरह के अचानक दौरे और सर्वे से जमीनी हकीकत सामने नहीं आने वाली है।
रिपोर्ट के आधार पर रोड मैप तैयार करेगी सरकार
पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि प्रदेश में सूखे की स्थिति का जायजा लेने के लिए आईएएस, आईपीएस और आईएफएस को भेजा गया था। उन्होंने राज्य के विभिन्न हिस्सों में जाकर वहां के किसानों से मिलकर बर्बाद हुई खेती और जमीनी हकीकत का सर्वे किया है। वहां से जो जानकारी मिली है उसकी रिपोर्ट तैयार करके उन्होंने प्रशासन अकादमी में आयोजित कार्यक्रम में उसका प्रजेंटेशन दिया है। अब उसके निष्कर्षों के आधार पर सरकार रोडमैप तैयार करेगी। सरकार की कोशिश है कि हर प्रभावित व्यक्ति को राहत दी जाए। इसके लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्र सरकार से विशेष पैकेज की मांग की है। साथ ही सरकार अपने स्तर पर हर तरह की सहायता करने में जुटी हुई है। हाल ही में प्रदेश के वित्त मंत्री जयंत मलैया और कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन ने भी केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से मुलाकात कर उन्हें प्रदेश के हालात से अवगत कराया है। प्रदेश सरकार जल्द ही किसानों को मुआवजा उपलब्ध कराएगी।

बिजली की मैदानी हकीकत ने सरकार के उड़ाए होश
प्रदेश में तीन दिन का मैदानी दौरा कर लौटे मुख्यमंत्री, मंत्री और अफसरों को हर जगह किसानों ने सबसे ज्यादा समस्या बिजली से बताई। कहीं किसानों ने बिजली न आने की बात कही तो कहीं ट्रांसफारमर खराब होने पर लंबी कटौती की शिकायत रखी। इतना ही नहीं बिजली भले ही नहीं आए, लेकिन लंबे चौड़े बिल आने की बात भी किसानों ने मुख्यमंत्री सहित अफसरों के सामने खुलकर रखी। मुख्यमंत्री ने भी माना कि प्रदेश में बिजली की बड़ी समस्या है। मध्यप्रदेश विद्युत मंडल और उसकी सहायक बिजली कंपनियों की वित्तीय स्थिति खराब है। भारी घाटा सह रहीं बिजली कंपनियों को विद्युत मंडल ने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने की हिदायत दे रखी है। ऐसे में बिजली कंपनियों ने बकायादारों से विद्युत शुल्क वसूली को लेकर सख्त हैं।

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