02-Nov-2015 07:28 AM
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लगता है दिल्ली चुनावों में मिली हार से भाजपा ने पर्याप्त सबक नहीं सीखे। दिल्ली में जब चुनाव प्रचार शुरू हुआ था तो भाजपा का पलड़ा भारी माना जा रहा था। हो भी क्यों ना, आखिर भाजपा तब

जीत के रथ पर जो सवार थी। लेकिन तब भाजपा ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कम आंकने की भूल की थी। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल को पार्टी ने नाकुछ बताकर निरस्त करना शुरू कर दिया था। यहीं से केजरीवाल के पक्ष में सहानुभूति की लहर बनना शुरू हुई। भाजपा से दूसरी बड़ी भूल यह हुई थी कि उसने केजरीवाल के सामने किरन बेदी के रूप में राजनीति के मैदान की निहायत नई खिलाड़ी को उतार दिया। बिहार विधानसभा के लिए दो चरण का मतदान पूरा होने के बाद विश्लेषकों द्वारा कहा जा रहा है कि कहीं बिहार में दिल्ली का इतिहास न दोहराया जाए।
बिहार विधानसभा चुनाव के दो फेज के मतदान जहां विकास के नाम पर हुए वहीं उसके बाद देश में माहौल ऐसा बना कि अब यहां मंडल और कमंडल के बीच जंग छिड़ गई है। तीसरे फेज के मतदान के दौरान इसका असर भी देखा गया। जो इस बात का संकेत है कि दो फेज तक अच्छी स्थिति में दिखने वाली भाजपा यहां जातिवाद के चंगुल में फंस गई हैं। दिल्ली की तरह बिहार में भी भाजपा लाभ की स्थिति के साथ मैदान में उतरी थी, लेकिन अब नीतीश कुमार अपनी जमीन मजबूत करते नजर आ रहे हैं। एक कद्दावर स्थानीय नेता का अभाव दिल्ली में भी भाजपा के लिए मुसीबत बना था और बिहार में भी बन रहा है। दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा का चेहरा बने थे और इसे सीधे-सीधे मोदी बनाम केजरीवाल की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया गया था। मोदी बनाम नीतीश की स्थिति बिहार में भी बनाई गई है, लेकिन ऐसे मुकाबले तभी प्रासंगिक साबित होते हैं, जब संघर्ष आमने-सामने का हो और मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए हो। इतना ही नहीं, दिल्ली चुनावों की पूर्व संध्या पर केजरीवाल की साफ छवि की खुलेआम प्रशंसा करने वाले भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा इस बार नीतीश के गुण गा रहे हैं। अनेक समानताओं के बीच यह भी एक विचित्र समानता है।
बिहार में चुनावों के नतीजे तो खैर 8 नवंबर को सामने आएंगे, लेकिन दो चरणों के मतदान के बाद जो स्थिति उभरकर सामने आ रही है, वो ये है कि शायद भाजपा से अंदरूनी कलह के समाधान और जातिगत समीकरण के मोर्चे पर कोई भूल हुई है। केंद्रीय नेतृत्व द्वारा बिहार में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करने से भी पार्टी के लिए बहुत अनुकूल स्थितियां निर्मित नहीं हुई हैं। एक गलती यह भी हुई कि एमआईएम और समाजवादी पार्टी द्वारा बिहार में महागठबंधन को पहुंचाए जाने वाले नुकसान के बारे में बहुत बढ़-चढ़कर आंकलन किए गए थे, जबकि ये दोनों अभी तक महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगाते नजर नहीं आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर, ओवैसी की पार्टी एमआईएम की योजना सीमांचल के 20 मुस्लिम बहुल जिलों में चुनाव लडऩे की थी। माना जा रहा था इससे अल्पसंख्यक वोट कटेंगे और फायदा भाजपा को मिलेगा। लेकिन ओवैसी के मनसूबों को तितर-बितर होते देर नहीं लगी है। अब वे कह रहे हैं कि उनकी पार्टी पूर्णिया जिले की महज छह सीटों पर लड़ेगी।
दालों की बढ़ती कीमतें, दादरी कांड और संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण-नीति की समीक्षा की जरूरत जताई जाना, ये सभी फैक्टर मिलकर भाजपा के लिए मददगार साबित नहीं हो रहे हैं। संघ प्रमुख के आरक्षण संबंधी बयान ने तो जैसे मृतप्राय महागठबंधन को संजीवनी दे दी है। बाद में स्वयं संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री ने भी इस पर सफाई दी, लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी थी। महागठबंधन के नेता, विशेषकर लालू प्रसाद यादव, शुरू से ही इन चुनावों को मंडल बनाम कमंडल का रंग देने पर आमादा थे और अब उनकी यह नीति सफल होती नजर आ रही है।
अब दादरी मामले की बात करें। अभी यह साफ नहीं है कि ओवैसी और मुलायम ने दादरी मामले के बाद ही बिहार में अपनी रणनीति बदलने का निर्णय लिया या नहीं, लेकिन यह तो साफ है कि देश में उथलपुथल मचा देने वाले इस वाकिये के बाद ही मुस्लिम समुदाय ने बिहार में महागठबंधन के पीछे पूरी ताकत से लामबंद होने का मन बना लिया। वास्तव में चुनावों के पूरे परिदृश्य पर नजर डालने पर यही लगता है कि कहीं न कहीं रणनीति के स्तर पर कोई चूक हुई है या फिर भाजपा की राह में अड़ंगा डालने की कोशिशें की जा रही हैं। दादरी कांड और संघ प्रमुख के कथन का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। महाराष्ट्र में शिवसेना का उग्र रवैया कायम है। दूसरी तरफ पार्टी से जुड़े नेताओं के बयानों के तीर भी बदस्तूर चल रहे हैं। इसी कड़ी में सांसद साक्षी महाराज ने अब कहा है कि बिहार में कैंसर जैसे हालात हैं, जिसकी तुरंत सर्जरी किए जाने की जरूरत है। इस तरह के बयानों की चुनावों में भाजपा को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। आश्चर्य नहीं कि संघ प्रमुख के बयान से किनारा करने और प्रधानमंत्री द्वारा निजी रूप से दादरी की घटना पर क्षोभ जताए जाने के बाद अब अमित शाह ने भी नेताओं को तलब करके उनसे अपने मुंह पर ताला लगाने का आग्रह किया है। हो भी क्यों ना, भाजपा किसी भी कीमत पर बिहार में हारना नहीं चाहती है। वह निश्चित ही यह भी नहीं चाहेगी कि शुरुआती बढ़त बनाने के बावजूद भाजपा दिल्ली की ही तरह बिहार की जंग भी भारी अंतर से हार जाए और अब यह खबर आ रही है कि सपा, राकांपा, पप्पू यादव के जन अधिकार मंच सहित अन्य पार्टियों के कथित तीसरे मोर्चे में भी फूट की स्थिति निर्मित हो रही है। अपनी बात से मुकर जाने के लिए मशहूर मुलायम सिंह यादव ने पहले तो महागठबंधन से नाता तोड़कर स्वतंत्र चुनाव लडऩे का फैसला किया था।
आश्चर्यजनक यह भी है कि इतने महत्वपूर्ण चुनाव के दौरान शत्रुघ्न सिन्हा और आरके सिंह सरीखे महत्वपूर्ण नेता पार्टी के संबंध में नकारात्मक टिप्पणियां कर रहे हैं। सांसद आरके सिंह ने खुलेआम कहा है कि पार्टी ने कई अपराधियों को टिकट दिए हैं। सिन्हा ने सिंह का पुरजोर समर्थन भी किया। भाजपा विधायक कुंवर विक्रम सिंह ने भी टिकटों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगाए हैं। बताया जाता है कि इनके निशाने पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हैं, जो बिहार चुनाव प्रचार की माइक्रोमैनेजिंग कर रहे हैं। पार्टी में कई लोग शाह की कार्यप्रणाली से नाखुश बताए जाते हैं। स्थिति यह है कि बिहार में भाजपा के सबसे कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी की भी टिकट वितरण में नहीं सुनी गई है। बिहार में भाजपा के पोस्टरों-बैनरों पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह छाए हुए हैं। इससे महागठबंधन को बिहारी बनाम बाहरी का मुद्दा उछालने का मौका मिल गया है। खबरों के मुताबिक भाजपा के चुनाव प्रबंधकों ने इस गलती को भांपकर इसमें सुधार करने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। लिहाजा शेष तीन चरणों के मतदान से पहले प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी सभाओं की संख्या घटाई गई है, वहीं विज्ञापनों में अब स्थानीय नेताओं को बढ़ावा दिया जा रहा है।
बिहार में सत्ता परिवर्तन के संकेत
बिहार में विधानसभा चुनावों के लिए प्रथम,द्वित्तीय और तृतीय चरण का मतदान पूरा हो गया। मतदाताओं में जिस प्रकार के उत्साह की जा रही थी, वह इन चरणों के चुनाव में दिखाई नहीं दिया, लेकिन इस मतदान में जो खास बात देखने को मिली वह यही है कि बिहार में इस बार परिवर्तन के संकेत दिखाई देने लगे हैं। बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान यह साफ दिखाई दिया कि बिहार को जाति आधारित रूप से बांट दिया जाए। राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया ने पूरे चुनाव में असभ्य भाषा का प्रयोग करके वातावरण को प्रदूषित करने का प्रयास किया, बिलकुल यही रूप जनतादल यूनाइटेड के नीतीश कुमार का भी देखने को मिला। अब सवाल यह आता है कि भाषाई रूप से निम्न स्तर की राजनीति करना देश को किस राह पर ले जाने का प्रयास है। सवाल यह भी है कि क्या यह राह देश के समुत्कर्ष के लिए सहयोगी साबित हो सकती है। कदाचित और यकीनन रूप से यही कहा जा सकता है कि इस प्रकार की विरोध करने वाली राजनीति देश के भविष्य के लिए समुन्नत कारी नहीं मानी जा सकती। लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार ने बिहार के नागरिकों को जिस प्रकार के सपने दिखाए हैं। उन सपनों नयापनकुछ भी नहीं है। इन दोनों की कार्यशैली में पूर्व के चुनावों की तर्ज पर ही सबकुछ दिखाई दिया। पहले भी राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव ने जनता से तमाम वादे करके बिहार में विधानसभा का चुनाव लड़ा था। लेकिन बाद में देखा गया कि प्रदेश की जनता को केवल वादे ही हाथ लगे। लालू और नीतीश के सरकार संचालन में वादों की झलक दूर दूर तक भी दिखाई नहीं दी। लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार द्वारा संचालित किए गए शासन को आज भी जंगलराज के तौर पर याद किया जाता है। भारतीय जनता पार्टी ने लालू के इस जंगल राज को नीतीश के साथ मिलकर उखाड़ दिया और बिहार को प्रगति की राह पर ले जाने का प्रयास किया, लेकिन नीतीश ने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत होकर भाजपा से किनारा कर लिया और लोकसभा के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। लोकसभा के चुनाव परिणामों के बाद नीतीश की समझ में यह बात अच्छी प्रकार से आ जाना चाहिए था कि पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा के सहारे ही उनको सत्ता प्राप्त हुई थी। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अपनी झूंठी राजनीतिक दबंगता का प्रदर्शन किया और लालू के साथ मिलकर विधानसभा चुनावों में उतर गए। वर्तमान में बिहार के नागरिक इन दोनों की बेमेल जोड़ी को लेकर पशोपेश में हैं।
-मार्केण्डेय तिवारी