मप्र लोकसेवा में महिलाओं से भेदभाव
04-Apr-2013 06:46 AM 1234791

सरकारी हो या गैर सरकारी हर जगह महिलाओं में भेदभाव होता है और उन्हें इस भेदभाव के चलते कई बार महत्वपूर्ण भूमिकाओं से हाथ भी धोना पड़ता है। पिछले साल भी फोब्र्स ने विश्व की सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची जारी की थी तो उसमें शीर्ष 100 महिलाओं में से सिर्फ चार ही भारतीय थीं। इस सूची के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कुल जमा 4 जमा महिलाएं सर्वोच्च पदोंं पर पहुंचने की काबिलियत रखती हैं उनकी इस काबिलियत पर सरकारी रवैया और बुरा असर डालता है विश्वास न हो तो मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग द्वारा पर्याप्त नंबर लाने के बावजूद अवसर से वंचित की गई उन महिलाओं से पूछकर देख लीजिए जिन्होंने दिन रात मेहनत करके पुरुषों से कहीं ज्यादा अंक प्राप्त किए, लेकिन उन्हें नौकरी से वंचित कर दिया गया इस संबंध में विधायक पारस सकलेचा ने वर्ष 2012 में दिसंबर माह में विधानसभा में एक प्रश्न उठाते हुए यह जानने का प्रयास किया था कि लोकसेवा आयोग ने विभिन्न परीक्षा में महिलाओं के अपने ही वर्ग में पुरुषों से ज्यादा अंक लाने पर भी साक्षात्कार में कितनी महिलाओं को नहीं बुलाया। दरअसल इन महिलाओं ने इस संबंध में राज्य महिला आयोग में भेदभाव की रिपोर्ट दर्ज कराई थी और इस रिपोर्ट के विषय में ही यह प्रश्न था लेकिन सच्चाई तो यह है कि राज्य महिला आयोग द्वारा विरोध दर्ज कराने के बावजूद मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग इंदौर ने इस विषय पर न तो कोई ठोस कार्रवाई की और न ही कोई संतोषप्रद उत्तर दिया। राज्य लोकसेवा आयोग द्वारा भेदभाव से व्यथित होकर 11 महिलाओं ने वर्ष 2012 में शिकायत दर्ज कराई थी। इन महिलाओं की शिकायत के बाद राज्य महिला आयोग ने लगभग 10 पत्र मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग इंदौर को भेजे। जिनमें से केवल 7 पत्रों के विषय में आयोग ने स्पष्टीकरण दिया बाकी प्रकरणों पर अभी तक कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। इनमें भी सुनीता जैन का प्रकरण ज्यादा प्रभावी है जिसमें भेदभाव के संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इस संबंध में मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग ने कोई ठोस उत्तर नहीं दिया है। बाकी महिलाओं के संबंध में जो पत्र भेजे गए हैं उनमें भी यह स्पष्ट झलकता है कि तकनीकी  बिंदुओं का फायदा उठाते हुए मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग ने लीपा-पोती का काम ही किया है। मिसाल के तौर पर आवेदिका जया तिवारी के मामले में कहा गया कि उनके अंक नंबर अंतिम योग्य आवेदिका से कम होने के कारण साक्षात्कार हेतु नहीं बुलाया गया। आयोग का कहना है कि जया तिवारी को 1212 अंक मिले थे जबकि अंतिम आवेदिका के अंक 1227 थे इसी कारण साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाया गया। सामान्य तौर पर साक्षात्कार के लिए उन लोगों को भी बुला लिया जाता है जिनके अंक अन्य उम्मीदवारों की तुलना में कम रहते हैं। क्योंकि साक्षात्कार के बाद ही प्रक्रिया पूर्ण मानी जाती है। लिखित परीक्षा के अलावा व्यक्तित्व परीक्षा इसीलिए अनिवार्य की गई है, लेकिन मध्यप्रदेश राज्य लोकसेवा आयोग कट-ऑफ माक्र्स का हवाला देकर बहुत से प्रतियोगियों को आगे बढऩे से रोक देता है। राज्य महिला आयोग ने इस भेदभाव के खिलाफ कई बार आयोग को पत्र लिखा है, लेकिन आयोग ने हर बार कट-ऑफ माक्र्स का हवाला देकर अपनी मजबूरी प्रकट की है। प्रश्न यह है कि क्या महिलाओं को इसी प्रकार भेदभाव का शिकार होना पड़ेगा। राज्य महिला आयोग ने सुनीता जैन, जया तिवारी, भारती रघुवंशी, एकता साकल्ले, जूली उइके, दीप शिखा खरे, रोशन गुडिय़ा, पूजा तिवारी, स्वाती आचार्य, सरोज सोलंकी, नेहा चौहान, अनीता जैन और दीप बजाज के संदर्भ में पत्र लिखकर आयोग से स्पष्टीकरण मांगा था, लेकिन आयोग ने सभी पत्रों में कटआफ माक्र्स की मजबूरी बताई ओर इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय का हवाला भी दिया। यही कारण है कि प्रमुख निर्णायक जगहों पर महिलाओं की गिनती न के बराबर है। वूमैन ऑन टॉप अब भी दुर्लभ हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो टॉप की 500 कंपनियाँ हैं उनमें सिर्फ 10 प्रतिशत महिलाएँ ही वरिष्ठ प्रबंधक हैं। भारत में वरिष्ठ प्रबंधन में महिलाएँ सिर्फ 3 प्रतिशत हैं। दरअसल, बहुत कम पुरुष महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार हैं। पुरुष असुरक्षित हैं और इसलिए वे महिला से खौफ खाते हैं। वे इस किस्म के वक्तव्य देते हैं, इसे एक बार देख लो और मैं इसे फाइनल कर दूँगा। तुम क्यों परेशान होती हो? इस किस्म के बयान होशियार व विचारवान महिला को बहुत परेशान कर देते हैं। महिला अगर ज्यादा नहीं तो इंटेलिजेंस में पुरुष के बराबर तो है। जब पुरुष निर्णायक होता है तो उसे डायनेमिक समझा जाता है, लेकिन जब महिला उसी किस्म की दृढ़ता प्रदर्शित करती है तो वह पुरुषों की आँख की किरकिरी बन जाती है।
हाल ही में कर्मचारियों का एक समूह अपनी कंपनी के नए लोगोंÓ पर बहस कर रहा था। जब एक महिला ने लाल रंग का सुझाव दिया तो एक सहकर्मी ने टिप्पणी की कि वह इसलिए कह रही है, क्योंकि यह रंग उसकी साड़ी से मैच खाता है। इस पर सभी पुरुष खिलखिलाकर हँस पड़े, बिना यह अहसास किए कि यह टिप्पणी लिंग के आधार पर भेदभाव से भरी थी। इस किस्म की टिप्पणी कोई पुरुष, किसी पुरुष सहकर्मी के लिए नहीं करेगा। यह मानसिकता सांस्कृतिक कंडीशनिंग को प्रतिबिंबित करती है जिसे पूरी तरह से खत्म होने में शताब्दियाँ लगेंगी।

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