31-Dec-2012 06:30 PM
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ऐसा बहुत कम होता है जब किसी प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री पुन: सत्ता हासिल करे लेकिन उसका जश्न सारा देश मनाए। 20 दिसंबर को जब नरेंद्र मोदी की जीत का प्रत्याशित परिणाम देश की जनता के सामने आया तो देश के बहुत से प्रदेशों में दिवाली मनाईं गईं। भाजपा समर्थकों ने मिठाई बांटी और आतिशबाजियां चलाई। यह खुशी सुनियोजित नहीं थी। न ही किसी भाजपा के कद्दावर नेता ने इस तरह का एलान किया। यह तो केवल कार्यकर्ताओं का उत्साह था, पर कार्यकर्ताओं का यही उत्साह भारतीय जनता पार्टी में एक भीतरी दरार पैदा कर रहा है। सतह के ऊपर जो दिख रहा है वह भले ही शांत हो लेकिन भीतर ही भीतर मोदी की जीत ने कइयों को अशांत कर रखा है। मोदी एक ऐसी सुनामी बन चुके हैं जो दिल्ली की तरफ तेज गति से बढ़ रहे हैं। किंतु उस सुनामी से निपटने के उपाय किसी के पास नहीं हैं। यद्यपि मोदी को पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोट भी एक प्रतिशत कम मिले हैं और उनकी सीटें भी 117 से सिमटकर 115 पर रह गई हैं और इस बार उन्हें अपने विरोधियों को ज्यादा मजबूती से संभालना पड़ा, केशुभाई पटेल के अलग पार्टी बनाने और चुनाव लडऩे से मोदी को एक तरीके से दो विरोधियों का सामना करना पड़ा। मोदी पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार अपना प्रदर्शन बेहतर नहीं दिखा पाए। लेकिन यह बदलाव मोदी का समर्थन करने वाले उत्साही भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए कोई बड़ा चिंता का विषय नहीं है। तमाम अंतरविरोधों के बावजूद देश का हर कोने का भाजपा कार्यकर्ता मोदी को अपना नेता मान बैठा है। कुछ वैसा ही माहौल है जैसा कभी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के लिए देखा जाता था। हालांकि यह दोनों नेता भाजपा से इतर अन्य वर्गों के लिए भी स्टेटमैनÓ थे किंतु मोदी फिलहाल भारतीय जनता पार्टी के स्टेटमैन तो बन ही चुके हैं देश उन्हें अपना नेता मानता है या नहीं यह अलग बात है। मोदी का सभी भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्य होना एक ऐसा तथ्य है जिससे भारतीय जनता पार्टी अब ज्यादा दिनों तक मुंह नहीं मोड़ सकती और सच्चाई यह है कि यदि भाजपा ने मोदी से मुंह मोड़ा तो कालांतर में उसकी दुर्गति भी हो सकती है। जैसी की देखी भी जा रही है। देश में भाजपा के पक्ष में लहर नहीं है। यदि भाजपा के पक्ष में लहर होती तो हिमाचल हाथ से नहीं जाता। भ्रष्टाचार, महंगाई, गैस की टंकी सहित कई राष्ट्रीय मुद्दे भी अभी फिलहाल उतने असरकारी नहीं दिख रहे हैं यदि यह मुद्दे असरकारी रहते तो इनका प्रभाव गुजरात के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश में भी नजर आता। हिमाचल प्रदेश में तो वीरभद्र सिंह जैसे दागी नेता होने के बावजूद कांग्रेस ने जीत दर्ज करके यह दिखा दिया कि भ्रष्टाचार भी कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। ऐसे हालात में भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंतन का समय है। अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे जनता को चुभने वाले मुद्दों पर विरोध की लहर बनाने में नाकामयाब रही है। चुनाव के वक्त यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि केंद्र सरकार की करतूतों का खामियाजा कांग्रेस को कहीं न कहीं भुगतना पड़ेगा, लेकिन आज यह आंकलन गलत सिद्ध होता दिखाई दे रहा है। गुजरात में कांग्रेस की पराजय अप्रत्याशित नहीं है। कांग्रेस उसी स्थिति में है जैसी की पहले थी। यद्यपि कुछ वोटों के प्रतिशत के साथ कांग्रेस संख्या में भी ज्यादा रही है, लेकिन गुजरात में जिस तरह की लड़ाई कांग्रेस लड़ रही थी उसके चलते उसे ज्यादा सफलता की उम्मीद नहीं थी। वहीं मुख्यमंत्री के रूप में चेहरों का अभाव था। जनता को यह भी ज्ञात नहीं था कि कांग्रेस जीतेगी तो मुखिया कौन होगा। स्वयं कांग्रेस के दिग्गज नेता अपने अंतरविरोधों से घिरे हुए थे। शंकर सिंह बघेला तो पहले ही निस्तेज हो चुके हैं कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अर्जुन सिंह मोढ़वाडिय़ा और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेता भी कहीं फ्रेम में नहीं थे। सर्वत्र मोदी ही मोदी थे और मोदी का मुकाबला करने के लिए दिल्ली से लाव लश्कर लेकर राहुल गांधी ने लंगर डाल रखा था, लेकिन कांग्रेसियों ने चालाकीपूर्वक राहुल को वहीं सीमित किया जहां कांग्रेस की जीतने की संभावना थी। कठिन सीटों पर राहुल की सभाएं ही नहीं करवाई गईं। कांग्रेस अज्ञात भय से ग्रसित थी कहीं उसे यह भी डर था कि गुजरात की लड़ाई मोदी बनाम राहुल की लड़ाई न बन जाए और यदि यह लड़ाई बनती और फिर राहुल की पराजय होती तो स्थिति ज्यादा चिंतनीय हो सकती थी। इसलिए राहुल को सीमित करके कांग्रेस ने नया जुमला गढ़ लिया है कि जिन-जिन क्षेत्रों में राहुल गांधी ने चुनावी सभाएं की वहां कांग्रेस को जीत मिली है। कांग्रेस की इस खुशफहमी का नुकसान कांग्रेस को ही उठाना पड़ रहा है। सवाल यह पूछा जा रहा है कि जब राहुल मैच जिताऊÓ थे तो उन्हें 10वें बल्लेबाज के रूप में क्यों उतारा गया? क्यों नहीं उन कठिन सीटों पर भी राहुल की सभाएं आयोजित की गई। जब मोदी अकेले अपने दम पर समूचे गुजरात में चुनावी सभाएं ले सकते हैं तो राहुल ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे। दरअसल राहुल को सुरक्षा कवचÓ प्रदान करके कांग्रेस खुद बैकफुट पर आ गई। राहुल बनाम मोदी होने से प्रदेश में यह संदेश गया कि अब गुजरात में कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता नहीं है। कमोवेश यह आंकलन सही भी है। भारतीय जनता पार्टी के दो दशक से अधिक के शासन के बावजूद कांग्रेस प्रदेश में एक भी ऐसा नेता पैदा करने में अक्षम रही है जो जाना पहचाना हो तथा सबको साथ लेकर चल सके। संघ पृष्ठभूमि के शंकर सिंह बघेला कांग्रेस में स्वीकार्य नहीं हैं। बाकी छोटे-मोटे नेताओं का कोई जिक्र नहीं करता। अहमद पटेल दिल्ली के सुरक्षित दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहते। इसी कारण यह कहना बहुत प्रासंगिक है कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस को पराजित कर दिया है। न केवल पराजित किया बल्कि कांग्रेस के वोट बैंक में भी अच्छी खासी सेंधमारी थी। मुस्लिम बहुल सीटों पर मोदी की जीत इस बात का जीता जागता प्रमाण है। नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम बहुल 32 सीटों में से 24 सीटें हासिल करके सबको चौंका दिया। बल्कि एक सीट भरूच की वगारा विधानसभा सीट पर तो 44 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद नरेंद्र मोदी को अभूतपूर्व विजय मिली। सौराष्ट्र में जहां केशुभाई पटेल समीकरण बिगाडऩे की स्थिति में थे वहां 48 में से 30 सीटें भाजपा ने जीती। उत्तर गुजरात में 53 में से 32 सीटें मिली। दक्षिण गुजरात में 35 में से 28 सीटें मिली। मध्य गुजरात में अवश्य थोड़ा कांग्रेस का प्रभाव देखने को मिला यहां 40 में से 18 सीटें भाजपा को मिली और कच्छ की छह में से 5 सीटें भाजपा की झोली में गईं। इतनी विशाल जीत और इतनी प्रभावी जीत केवल मोदी के करिश्मे के कारण संभव हो सकी। विकास और सुशासन का जो नारा मोदी ने दिया था वह कामयाब रहा। यहां तक कि गुजरात चुनाव के दौरान ही भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर पहले अरविंद केजरीवाल और बाद में दिग्विजय सिंह ने कथित वित्तीय गड़बडिय़ों के आरोप लगाए, लेकिन मोदी इन झंझावातों से भी चुनावी नैया को निकाल ले गए। गुजरात में भी पार्टी के भीतर और बाहर पनपते असंतोष को उन्होंने अपनी कुशलता से दबा दिया। हालत यह थी कि कांग्रेस के अध्यक्ष अर्जुन सिंह मोढ़वाडिय़ा तथा नेता प्रतिपक्ष शक्ति सिंह गोहिल भी चुनाव हार गए। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने गुजरात में ताबड़तोड़ सभाएं ली थीं, लेकिन मोदी ही सब जगह छाए रहे। उन्होंने स्वयं यह तय किया था कि किस जगह कौन सभाएं लेगा तथा स्टार प्रचारक कौन रहेंगे। इतने अच्छे तरीके से चुनाव लडऩा असंभव है। मोदी ने यह असंभव संभव कर दिखाया है।
इस जीत के बाद नरेंद्र मोदी वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के सर्वस्वीकार्य तथा सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। यह निर्विवाद है कि भाजपा का आम कार्यकर्ता अब राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को जिम्मेदारी देना चाहता है। अपनी जीत के बाद भाषण के समय जब मोदी गुजरात की जनता को जीत का श्रेय दे रहे थे उस समय नेपथ्य से आवाजें उठ रही थीं कि मोदी दिल्ली जाओ, दिल्ली जाने का अर्थ है प्रधानमंत्री के रूप में देश की सेवा। मोदी के दिल्ली मिशन ने ही दिल्ली में हलचल मचा दी है। जीतने के बाद उन्होंने अपना पहला भाषण हिन्दी में दिया। उस भाषण की भाषा कई संकेत दे रही थी। मोदी ने गुजरात के मतदाताओं का धन्यवाद तो किया ही देशभर में उनके प्रति शुभकामना प्रकट करने वाले शुभचिंतकों के प्रति भी उन्होंने आभार प्रकट किया। उनका यह आभार प्रकटन कई अर्थ पैदा कर रहा है। अपने चुनावी दौरों में मोदी ने केवल और केवल गुजराती भाषा का प्रयोग किया, लेकिन अब राष्ट्रभाषा को अपनाने का अर्थ है राष्ट्र व्यापी छवि का निर्माण। मोदी इस मिशन पर पहले ही चल चुके हैं। वे आगे हैं अब भारतीय जनता पार्टी को तय करना है कि वह उनके पीछे चलेगी या नहीं। मोदी की सफलता से अब कई बड़े नेताओं पर दबाव आ गया है। दिल्ली में लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को विशेष रूप से इस जीत ने झकझोरा है। सुनने में तो यहां तक आया है कि नरेंद्र मोदी की लगातार तीसरी बार जीत से जिन नेताओं में सन्नाटा पसर गया है उनमें लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज प्रमुख हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मोदी को बधाई तक नहीं दी। वर्ष 2002 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात दंगों के बाद अलग-थलग पड़ गए थे उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने आउट ऑफ द वे जाकर उनकी सहायता की थी, लेकिन आज वही आडवाणी मोदी की जीत पर उतने उत्साहित नहीं हैं। जबकि वर्ष 2002 में विधानसभा चुनाव जीतने पर आडवाणी ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर मोदी की सराहना की थी और उन्हें बधाई भी दी थी। नितिन गडकरी भी मोदी के बढ़ते कद से परेशान हैं। वे स्वयं भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हुए हैं और मोदी जैसे नेताओं के रहमोकरम पर हैं जो गडकरी को एक तरह से अभयदान देकर यह सिद्ध करते रहे हैं कि फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर खलबली नहीं है, लेकिन यह खलबली अब देखने में आ सकती है क्योंकि जनवरी माह में ही भारतीय जनता पार्टी को नए नेता का चुनाव करना है। नितिन गडकरी एक बार पुन: सत्तासीन होंगे इसमें संदेह है, लेकिन गडकरी की जगह नया चेहरा कौन होगा यह एक बड़ा प्रश्न है। नरेंद्र मोदी के पक्ष में उन नेताओं ने लामबंदी शुरू कर दी है जो भ्रष्टाचार के आरोप में आरोपित होने के बाद नितिन गडकरी के विरोध में खुलकर आ गए थे। यशवंत सिन्हा और राम जेठमलानी ने खुलकर मोदी का समर्थन किया है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कई अन्य नेता भी अब आलाकमान पर जोर डाल रहे हैं कि मोदी को केंद्र की राजनीति में सक्रिय किया जाना चाहिए।
उधर मोदी की राह में रोड़े भी कम नहीं है। सबसे बड़ी बाधा एनडीए के सहयोगी दलों की तरफ से हो सकती है। जनता दल यूनाइटेड पहले ही कह चुका है कि प्रधानमंत्री के रूप में उसे नरेंद्र मोदी स्वीकार्य नहीं है। एनडीए के बाकी बचे-खुचे घटक भी मोदी के पक्ष में नहीं हैं। केवल शिवसेना मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान रही है, लेकिन भाजपा की यह आशंका शत-प्रतिशत सत्य है कि यदि मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्र्रत्याशी घोषित किया गया तो लड़ाई भाजपा बनाम अन्य दल न होकर सांप्रदायिकता बनाम धर्म निरपेक्षता हो जाएगी और सांप्रदायिक धु्रवीकरण के कारण भाजपा अलग-थलग भी पड़ सकती है। कुल मिलाकर यही एक महत्वपूर्ण बिंदु है जहां मोदी की मुखालफत की जा सकती है और फिलहाल इसी आधार पर मोदी की मुखालफत की जा रही है। किंतु नरेंद्र मोदी को जिस तरह मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सफलता मिली है उसे देखकर अब मोदी का विरोध करने वाले निरुत्तर हैं। फिलहाल देश की 113 सीटों पर मोदी का जादू चल सकता है, लेकिन इतने से ही काम नहीं चलेगा। यदि मोदी देश में 250 सीटों पर अपना जादू चलाने में कामयाब रहे तो ही वे देश के सर्वमान्य नेता कहलाएंगे। फिलहाल तो मोदी भाजपा के लिए एक पेंचीदा पहली बन चुके हैं।
द्यअहमदाबाद से सतिन देसाई