दाल-रोटी नहीं पिज्जा-बर्गर खाओं...
02-Nov-2015 09:44 AM 1234952

दाल महंगी होने से अब तो कूकर और फ्राइंग पैन की जरूरत ही नहीं महसूस होती। सरकार ने हमें दाल खरीदने के झंझट से बरी जो  कर दिया है। साब आधुनिक रेसिपी के आगे दाल-रोटी स्वयं कन्फ्यूज है कि उसके गांधी वाले दिनों का क्या

होगा। अब देखो न हमारे सयाने भी दाल-रोटी मात्र से कतराने लगे हैं। कहते हैं देश में चल रहे इत्ते बवालों के बीच तुम लोग महंगाई और दाल पर ही ध्यान लगाए हो। उनका भी कहना ठीक ही है। अगर हम दाल और प्याज पर ध्यान न दें तो सोने पर सुहागा ही है। क्लियर कर दूं, यहां हम से मतलब जनता से है, नेता से नहीं। नेता लोग तो फिलहाल बिहार चुनाव और गाय-बीफ की जंग में ही उलझे हुए हैं। उनके लिए महंगाई का बढऩा या दाल का 200 रुपए किलो बिकना अभी उत्ती बड़ी चिंता का विषय नहीं है।
हालांकि दाल का 200 रुपए किलो बिकना चिंता का विषय तो हमारे लिए भी नहीं है। पर क्या करें, चिंता करने के वास्ते हमारे कने भी तो कुछ होना चाहिए कि नहीं! महंगाई और दाल क्या बुरी हैं। यों, चिंता करने में कुछ जाता भी नहीं। बस, दिल को तसल्ली और दिमाग को काम मिल जाता है। पिछली सरकार में तो हम दाल से लेकर आटे तक के दर्द को झेल चुके हैं। तब तो हम इत्ती चिंता किया करते थे कि दिन के चौबीस में से साढ़े तेईस घंटे तो चिंता व्यक्त करने में ही फना हो जाया करते थे। फिलहाल, सरकार बदल जरूर गई है पर महंगाई पर चिंता करने की हमारी आदत कतई न बदली है। अब हम महंगाई के साथ-साथ सामाजिक ताने-बाने के सहिष्णु रहने की भी चिंता करने लगे हैं। क्या करें, दाल से लेकर समाज तक की जिम्मेवारी हम पर भी तो है। बिचारे नेता-मंत्री लोग क्या-क्या देखेंगे? किस-किस की चिंता करेंगे? उन्हें अपने ही इत्ते काम रहते हैं, महंगाई और दाल की सामाजिक स्थिति क्या है, देख नहीं पाते। सौ बातों की एक बात है प्यारे, दाल चाहे 200 रुपए किलो बिके या 500 रुपए अंतत: गलानी हमें (जनता) को ही है। नेता लोगों की दाल तो खुद-ब-खुद गल जाती है। अगर न भी गले तो कौन-सा उनकी तंददुरुस्त पर खास फर्क पडऩे वाला है।
लेकिन शबाश है, वो जनता जो 200 रुपए किलो की दाल को भी गला लेती है। मेरी विचार में, एक नोबेल तो उन्हें भी बनता है, जो इत्ती महंगी दाल को गलाने की क्षमता रखते हैं। अरे आस-पड़ोस में क्या झांकना, मुझे ही देखिए लीजिए, जाने कब से प्लानिंग कर रहा हूं, 200 रुपए किलो की दाल को खरीदने की लेकिन नहीं खरीद पा रहा। कोई न कोई अड़चन ससुरी बीच में आ ही जाती है। कभी जेब में दौ सौ रुपए भी नहीं होते, जब होते हैं, तो दवा-दारू में खर्च हो लेते हैं। ऊधर, पत्नी 200 रुपए किलो दाल के वास्ते मेरी हैसियत को ही चुनौती देती रहती है। कहती है, लेखक तो तुम इत्ते बड़े हो लेकिन हैसियत तुम्हारी दो कौड़ी की भी नहीं। मात्र 200 रुपए किलो की दाल नहीं खरीद सकते, हार क्या खाक खरीदकर पाओगे। तुमसे कहीं अच्छा तो पड़ोस का मंगू है। चाट का ठेला भले ही लगाता है पर दाल और हार खरीदने में कतई कोताही नहीं बरत्ता। मैं फिर कह रही हूं, लेखन को छोड़कर तुम भी ठेला लगाना शुरू कर दो। कम से कम चार पैसे घर में तो आएंगे। न ही दाल के लिए दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा।
पत्नी का क्या है, कुछ भी बोल देती है। दाल-आटे-हार का हिसाब-किताब रखना तो मुझे ही होता है। फिर भी, कभी-कभी मुझे अपने लेखक होने पर अफसोस भी होता है कि बताओ 200 रुपए किलो की दाल को खरीदने में मुझे इत्ता सोचना पड़ रहा है। अभी नेता होता तो न सोचना पड़ता, न पत्नी की सुननी पड़ती। दाल गलती सो अलग। इत्ती महंगी दाल मुझसे तो गलने से रही। एकाध दिन की बात होती तो चल भी जाता। यह तो रोज की बात है। दाल पर चिंता व्यक्त करने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर सकता। चिंता करने से दिल को कुछ तो सुकून मिलता है। ये ही सही।
-विनोद बक्सरी

 

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