भला क्यों लौटाऊं पुरस्कार?
17-Nov-2015 09:38 AM 1234846

ऊपर वाले का रहम है, जो मुझे आज तक कोई पुरस्कार नहीं मिला। मिल गया होता तो आज मेरी गर्दन एहसानों तले झुकी और जबान शुक्रिया कहते-कहते घिस गई होती। हालांकि ऐसा कोई मानेगा नहीं परंतु सत्य ये है कि पुरस्कार लेना या मिलना दोनों की स्थितियों में लेखक के लिए खतरे समान होता है। जी हां, पुरस्कार किसी भीषण खतरे से कम नहीं होते। पुरस्कार पाने के लिए किस-किस प्रकार की तिकड़में भिड़ानी पड़ती हैं, यह सबको मालूम है। गिरी चीज को उठाने में लेखक को जित्ती कमर नहीं झुकानी पड़ती, उससे कहीं ज्यादा पुरस्कार पाने के लिए झुकानी होती है। कुछ लेखक तो इत्ता पुरस्कार प्रेमी होते हैं कि पुरस्कार मिल जाने के बाद नेताओं के कदमों में यों गिर पड़ते हैं मानो उनका अभूतपूर्व एहसान जतला रहे हों। यह दीगर बात है, पुरस्कार पाने के बाद लौटाने की धमकी देना सबसे क्रांतिकारी कदम है। इस क्रांतिकारी कदम को उठाने में किसी दल या नेता की सहमति नहीं लेनी होती, बस एक लाइन बोलनी भर होती है- मैं फलां-फलां पुरस्कार लौटा रहा हूं। इत्ते में ही लेखक हिट हो लेता है। सोशल मीडिया से लेकर सड़कों-चौराहों तक पर उसके नामों के चर्चे गुंजने लगते हैं। जाने कहां-कहां से मीडिया वाले उसका साक्षात्कार लेने पहुंच जाते हैं।
खन में मुझे अभी तलक कोई बड़ा-छोटा पुरस्कार नहीं मिला है। हां, बचपन में एक पुरस्कार पतंगबाजी में अवश्य मिला था। पुरस्कारों के नाम पर एक अकेला वही पुरस्कार मेरे कने है। लेखन में पुरस्कार लेने की न कभी जरूरत महसूस हुई, न ही किसी ने देने का वायदा किया।
पतंगबाजी में पाए पुरस्कार को लेकर अब मुझे हर वक्त डर-सा लगा रहता है। डर इसलिए रहता है- कहीं कोई घर पर न आ धमके और बोले- अपना पुरस्कार लौटाओ। हालांकि वो ऐसा कोई बड़ा या महान पुरस्कार नहीं है, फिर भी, पुरस्कार तो है ही। यों भी, पुरस्कार न छोटा होता है न बड़ा। पुरस्कार पुरस्कार होता है। और, मैं अपना यह पुरस्कार किसी कीमत पर नहीं लौटा सकता। न केवल इस पुरस्कार बल्कि पतंगबाजी में मेरी जान बसती है। मैं एक बार को लिखना छोड़ सकता हूं किंतु पतंगबाजी हरगिज नहीं।  दो-चार रोज पहले पत्नी ने मुझे राय दी थी कि तुम्हारे पास पुरस्कारों के नाम जो अकेला पुरस्कार है उसे लौटा दो। भगवान कसम, रोतों-रात सेलिब्रिटी बन जाओगे। रिश्तेदारों के लेकर मीडिया तक में तुम्हारी पूछम-पूछ बढ़ जाएगी। जैसे- अन्य बड़े लेखक लोग अपने-अपने सम्मान-पुरस्कार वासप कर रहे हैं, तुम भी कर दो। वैसे भी, इस पुरस्कार में अब रखा ही क्या है! पत्नी की लघु राय को सुनने के बाद मैंने बेहद सहज भाषा में उससे कहा- देखो यार, पुरस्कार तो मैं लौटाने से रहा। चाहे इस बात पर तुम मेरा घर में हुक्का-पानी ही क्यों न बंद कर दो। इत्ती मेहनत करके तो एक अदद पुरस्कार हत्थे आया था, उसे भी एंवई लौटा दूं। अमां, पुरस्कार कोई लौटाने के लिए थोड़े न लिए जाते हैं। कि, जब मन में आया पुरस्कार ले लिया, जब दिल न ठुका लौटा दिया। न न मैं इस पुरस्कार को नहीं लौटाऊंगा। जो लौटा रहे हैं, उनकी वे जानें। मैं बे-सेलिब्रिटी बने ही ठीक हूं। इत्ती सुनने के बाद पत्नी खासा लाल-पीली थी मुझ पर। बोली- तुममें मौका देखकर चौका मारने का कोई गुण नहीं है। जैसा ठस्स तुम्हारा लेखन है, वैसे ही तुम भी। यहां तमाम लेखक-साहित्यकार लोग बहती गंगा में हाथ धोने में लगे हैं और तुम हो कि आदर्शवाद का बैंड बजा रहे हो। अजी, बीत लिए दिन आदर्शवाद के; लेखन में भी और जीवन में भी। अब तो वही महान है, जो मौकापरस्त और समझौतावादी है। इत्ती जान-पहचान तो इन लेखकों को पुरस्कार मिलते वक्त न मिली होगी, जो आज लौटाते हुए मिल रही है। सलमान खान से बड़े हीरो हो लिए हैं सब के सब। मैंने पत्नी को पुन: समझाया। देखो डार्लिंग- ये सब लेखकों की महज स्टंटबाजी है। सत्ता बदली है तो पेट में मरोड़े उठना लाजिमी है। दर्द कहीं न कहीं से तो बाहर आएगा ही। सो, पुरस्कार ही लौटाए दे रहे हैं। लेकिन खुलकर एक भी बंदा पुरस्कार पाने के लिए की गईं किस्म-किस्म की जुगाड़बाजियों पर कोई बात न कर रहा। अगर लौटाना ही था तो लिया ही क्यों था? तरह-तरह के फासीवाद का हवाला न दीजिए, ये तो यहां किसी न किसी रूप में बरसों से मौजूद है। मुझे मालूम था, पत्नी अब तक पक चुकी थी, मेरी बकबास को सुनकर। इसलिए उसने बहस से कट लेना ही उचित समझा। मगर हां जाते-जाते मुझे ये श्राप जरूर दे गई, भगवान करे तुम्हें कोई पुरस्कार न मिले। वाकई, मैं चाहता भी यही हूं कि मुझे कोई पुरस्कार न मिले। पुरस्कार मिले के तमाम झंझट हैं। अगर बात लौटाने की आ जाए, तो झंझट ही झंझट। पुरस्कार एक तरह से प्रेमिका जैसे होते हैं कि छोडऩे का दिल ही नहीं करता। तब ही तो मैं अपना पतंगबाजी वाला पुरस्कार नहीं लौटा रहा। लौटाकर जरा-बहुत कमाई इज्जत का फलूदा थोड़े न बनवाना है मुझे।
एटिट्यूड में आकर जो लौटा रहे हैं, उन्हें मीडिया के बीच भाव भी अच्छे खासे मिल रहे हैं। बैठे-ठाले अगर कुछ मिल जाए, तो सोने पे सुहागा। उम्मीद है, अब से आगे आने वाली पीढ़ी भी शायद यही मानकर चलेगी कि पुरस्कार लौटाकर ही दुनिया में महान बना जा सकता है!
-विनोद बक्सरी

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