जीत के लिए परिवारवाद की पतवार थामी भाजपा में
02-Nov-2015 09:30 AM 1234800

कभी परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस को पानी पी पीकर कोसने वाली भाजपा इन दिनों स्वयं परिवारवाद से ग्रसित हो गई है। आलम यह है कि प्रदेश में रतलाम-झाबुआ संसदीय सीट और देवास विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में अपनी जीत पक्की करने के लिए दिवंगत नेताओं के परिजनों का सहारा लिया है। पार्टी ने रतलाम-झाबुआ संसदीय सीट पर स्व. दिलीप भूरिया की पुत्री निर्मला भूरिया को टिकट दिया है। वहीं देवास विधानसभा क्षेत्र से स्व. तुकोजीराव पवार की पत्नी गायत्री राजे को मैदान में उतारा है। हालांकि कांग्रेस की तरफ से अभी तक नामों का खुलासा नहीं हो पाया है, लेकिन संभावना जताई जा रही है कि रतलाम-झाबुआ संसदीय सीट पर परंपरागत रूप से भूरिया बनाम भूरिया मुकाबला होने वाला है। यहां कांग्रेस पूर्व सांसद कांतिलाल भूरिया को मैदान में उतार सकती है।
भाजपा ने इन उपचुनावों के लिए जैसे ही प्रत्याशियों की घोषणा की लोग आश्चर्यचकित हो उठे कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी है जो भाजपा परिवारवाद के चक्कर में फंस गई है। झाबुआ-रतलाम लोकसभा के लिए विधायक निर्मला भूरिया और देवास विधानसभा से गायत्री राजे को अपना उम्मीदवार घोषित कर साफ कर दिया है कि उसे सरकार की उपलब्धियों और विपक्ष की कमजोरियों से ज्यादा भरोसा सहानुभूति वोटों पर है जो इन उम्मीदवारों के परिवार से खुद को जोड़कर बटोरे जा सकते हैं। भाजपा को देवास की जीत में कोई आशंका नहीं है तो झाबुआ को लेकर वो कोई जोखिम लेने को तैयार भी नहीं है। यहां सवाल उठना लाजमी है कि भाजपा से ज्यादा मोदी और शाह की प्रतिष्ठा से जुड़ गए बिहार चुनाव पर जहां देश की नजर लगी है वहीं भाजपा वंशवाद को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाकर सत्ता में काबिज होने की उम्मीद पाल रही है?
जानकारों की मानें तो इन उपचुनावों में दो महिला उम्मीदवारों को पार्टी का चेहरा बनाना संगठन की मजबूरी ज्यादा नजर आई न कि महिलाओं को आगे लाने का मकसद पूरा करना। साथ ही भाजपा ने झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट पर निर्मला भूरिया को प्रत्याशी बनाकर एक तीर से दो शिकार किए हैं। पहली तो यह कि स्व. दिलीप सिंह भूरिया की सहानुभूति के सहारे भाजपा यहां जीत दर्ज कर सकती है और दूसरा यह कि  शिवराज कैबिनेट में आदिवासी और महिला कोटे से मंत्री बनने का सपना देख रही निर्मला को किनारे किया जा सकता है। पार्टी के सूत्र बताते हैं कि निर्मला ने काफी कोशिश की कि उन्हें दिल्ली का रुख करने के लिए मजबूर न किया जाए लेकिन दूसरे सभी विकल्पों पर विराम लगाकर निर्मला को मैदान में उतारने का फैसला किया गया जिनका मुकाबला कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया से होना तय है जिन्हें मोदी लहर में निर्मला के पिता दिलीप सिंह भूरिया ने हराया था। इस क्षेत्र में यदि स्थानीय फैक्टर काम कर रहे हैं तो कई जीवंत मुद्दे भाजपा के लिए चुनौती बने हुए हैं जिसे अपने सेनापति शिवराज सिंह चौहान पर भरोसा है तो उसने पिता की आकस्मिक मौत के बाद पुत्री को सामने रखकर सहानुभूति वोट बटोरने की भी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने की ठानी है। उधर देवास में जिताऊ उम्मीदवार की समस्या से दो-चार हो रही कांग्रेस को मात देने के लिए भाजपा ने क्षेत्र के वरिष्ठ नेता, कई बार के विधायक, मंत्री और राजघराने से जुड़े रहे स्व. तुकोजीराव पवार की पत्नी गायत्री राजे को सड़क की राजनीति करने के लिए मजबूर कर दिया है। यहां भाजपा की योजना परंपरागत वोट बैंक पर अपनी पकड़ बरकरार रखते हुए न सिर्फ नेतृत्वहीन और गुटबाजी में उलझी कांग्रेस की कमजोरियों का फायदा उठाने की है बल्कि राजपरिवार के प्रति क्षेत्र के मतदाताओं के सम्मान को भुनाने की भी है। राज परिवार की मंशा तुकोजीराव पवार के पुत्र को आगे रखकर राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की रही लेकिन कुछ गंभीर मामलों में उलझे शहजादे से दूरी बनाने के लिए भाजपा को मजबूर होना पड़ा है। उम्मीदवारों के चयन में भले ही आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देकर परिवारवाद के आरोप से खुद को बचाने की कोशिश जरूर की लेकिन दोनों नाम पर जिस तरह पार्टी के अंदर सहमति बनाई गई वो उसके उस दावे पर जरूर सवाल खड़ा करती है जो भाजपा को परिवारवाद से दूर बताने का दंभ भरती रही है।
देवास से उम्मीदवार गायत्री राजे भले ही प्रदेश भाजपा के लिए जरूरी कम मजबूरी ज्यादा मान ली जाए लेकिन मोदी और शाह की साख से जुडऩे जा रहे झाबुआ-रतलाम के उपचुनाव में विधायक रहते स्व. दिलीप सिंह की पुत्री निर्मला भूरिया को उम्मीदवार बनाया जाना पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की नीति ही नहीं बल्कि कथनी और करनी पर भी सवाल खड़े करने के लिए काफी है। सवाल यह उठ रहा है कि मध्यप्रदेश दूसरे राज्यों के लिए ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी मजबूर कैडर के लिए उदाहरण बनता रहा है, ऐसे में पार्टी ने परिवारवाद का सहारा क्यों लिया है। जिस पार्टी ने पीढ़ी परिवर्तन के दौर में नए चेहरों को सामने लाकर निष्ठावान कार्यकर्ताओं को उम्मीदवार बनाकर मुख्य राजनीति से जोड़ा है आखिर उस भाजपा ने देवास और झाबुआ में अपनी सरकार की उपलब्धियों के साथ किसी नए कार्यकर्ता पर भरोसा क्यों नहीं किया? क्या ये समय पार्टी में नई लाइन को आगे लाने का एक अच्छा अवसर साबित नहीं हो सकता था? या फिर अपनी जीत के प्रति भाजपा आश्वस्त नहीं है और चाहकर भी परिवारवाद से बाहर नहीं निकल पाई है? यहां सवाल जरूर खड़ा होता है कि यदि भाजपा की आशंका सही साबित हुई और हौसले पस्त पड़ गए तो क्या परिवारवाद पर नए सिरे से बहस नहीं छिड़ जाएगी? हालांकि इस उपचुनाव की तैयारी में कांग्रेस शुरू से पिछड़ी हुई है इसलिए भाजपा को यहां भी चुनौती मिलती नहीं दिख रही है।
-इंदौर से विकास दुबे

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