17-Oct-2015 06:19 AM
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गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण हैं, आधार हैं। गाय और गंगा तो हमारी अर्थ व्यवस्था के मूलाधार भी हैं। गाय में मानवीय भावनाएं होती हैं और आत्मा के विकास की

प्रक्रिया में यह इंसानों के करीब है। इसलिए गाय को भारत में मां की तरह पूजा जाता है। लेकिन विड़बना यह है कि अब गौ माता हमारी राजनीति का केंद्र बिन्दु बन गई हैं। पिछले एक साल से सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का डंका पीटने वाले इस महादेश में आज सबसे अधिक चर्चा के केन्द्र में कौन है-गाय। वह गाय जिसके लिए हमने अपनी दादी, अम्मा और पत्नी को सबसे पहली रोटी बनाते देखा है। वह गाय जिसका दूध पीकर हम बड़े हुए हैं। वह गाय जिसके घी को आज भी प्राथमिकता से खाते हैं। वह गाय जिसका बछड़ा बैल के रूप में गरीब किसान का सबसे बड़ा साथी है। वह गाय जिस पर इस देश के एक महान उपन्यासकार प्रेमचन्द ने अपना सबसे बड़ा उपन्यास लिखा है-गोदान। वह गाय जिसके बैल की जोड़ी बरसों कांग्रेस का चुनाव चिह्न रही। वह गाय जिसे बाद में इंदिरा गांधी ने खंडित कांग्रेस का चुनाव चिह्न बनाया। वह गाय जिसे हम आज गली-गली में पॉलीथिन खाते देखते हैं। वह गाय जिसे लोग सिर्फ दुहने के लिए दोनों वक्त घर में लाते हैं और बाद में खुला छोड़ देते हैं। वह गाय जो भीड़ भरे चौराहों पर मजे से बैठी जुगाली करती रहती है जिससे टकरा कर कई स्कूटर सवारों के हाथ-पैर टूट जाते हैं। वह गाय जब तक दूध देती है हम उसे रखते हैं और बूढ़ी होने पर बेच देते हैं इस उम्मीद के साथ कि अब टल चुकी इस गाय को खिलाने और जिलाने की जिम्मेदारी उस पर है जो इसे खरीद रहा है जिसे हम कबाड़ मान चुके हैं। लेकिन आखिर आज इस गाय में ऐसा क्या दिखा है कि यह अचानक हमारी राजनीति का प्रमुख तत्व बन गई है। आलम यह है कि हाल ही में बिहार की चुनावी सभा में तो गाय और बीफ (गो मांस) का जिक्र करना नेताओं का धर्म सा हो गया है।
दरअसल, गाय इस देश में करोड़ों लोगों की भावनाओं से जुड़ा ऐसा मुद्दा बन गई है जो हर गांव, हर मोहल्ले में मिल जाती है। बस, गाय को एक खूंटे से उतार कर दूसरे खूंटे पर बांध दो, इतना काफी है राजनीति का चुल्हा सुलगाने के लिए। गाय बेचारी, जिंदा है तो भी मुद्दा है, मर गई तब और भी बड़ा मुद्दा है। और कहीं-कहीं पर तो बस गाय का नाम ही काफी है, जैसे उत्तर प्रदेश की दादरी के एक गांव बिसाहड़ा में हुआ। इस घटना के पीछे सिर्फ गाय का नाम ही तो था, गाय तो दूर-दूर तक नहीं थी। इस गांव में जो घटित हुआ वह अत्यंत अफसोसजनक है पर इसको लेकर जो तुष्टीकरण की राजनीति हो रही है वह वाकई में कहीं अधिक अफसोसजनक है। ध्यान से देखा जाए तो ये गौ-मांस का मुद्दा राजनीतिक कढ़ाही में पिछले कई महीनों से पक रहा था। पहले महाराष्ट्र में बीफ बैन हुआ, फिर पर्यूषण के समय मांसाहार। यह एक बार फिर राष्ट्रीय बहस का विषय बना और बिहार चुनाव से ऐन पहले एक अखलाक गौ-मांस खाने के आरोप में मरता है और एक चुनावी मुद्दे के रूप में गाय माता का अवतरण होता है।
इतिहास खंगालने पर हम पाते हैं कि गाय हमेशा से ही भारतीयों की आस्था को केंद्र रही है। इसको भांपते हुए बाबर ने अपने बेटे हुमायूं के नाम लिखी वसीयत में लिखा है कि गाय की कुर्बानी से बचना क्योंकि वह हिंदुस्तान के लोगों के दिलों में बसती है। यानी मुगलकाल में भी शासक गाय को संरक्षित रखने के लिए तत्पर रहते थे। मुगलों के समय गाय को मिलने वाला संरक्षण औरंगजेब तक आता है क्योंकि उसी ने गाय को मिलने वाले विशेषाधिकारों में कटोतरी की थी। ऐसा माना जाता है कि गौहत्या के एक राजनीतिक मुद्दा बनने की शुरूआत भारत में अंग्रेजों के आने के बाद हुई थी। 1857 के संग्राम के समय अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने हिंदुओं को अपने साथ जोडऩे के लिए गाय को मारने पर प्रतिबंध लगाया था। एक मायने में यहीं से चीजों में कटुता की शुरुआत हुई थी। 1956 में गौ हत्या निरोधक अधिनियम विनोबा भावे की पहल पर अस्तित्व में आया था। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखण्ड, यूपी, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, चण्डीगढ़ और दिल्ली में गौ हत्या पूरी तरह प्रतिबंधित है। हरियाणा में तो गौ हत्या पर एक लाख का जुर्माना व पांच साल की सजा का प्रावधान है पर कई राज्यों में अभी भी इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है जिसमें पूर्वोत्तर सहित केरल, पश्चिम बंगाल, सिक्किम और लक्ष्यद्वीप शामिल हैं। लेकिन आज जब देश आजाद है और अब विश्व में अपनी पैठ बना रहा है ऐसे में गाय को लेकर की जा रही राजनीति कहां तक उचित है।
गौ-रक्षा, गो-मांस जैसे शब्दों को लेकर इस समय पूरे देश में चर्चा और चिंता का माहौल है। गाय को लेकर देश में लोग एक-दूसरे से लडऩे पर भले ही आमादा हों लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि भारत बीफ (सभी तरह के गौ-वंश मांस) का निर्यात करने वाले दुनिया के शीर्ष देशों में है। गाय के मांस पर हो रही राजनीति पर कई सियासतदानों को इस प्रकार की सियासत करने का भरपूर अवसर मिल गया है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है जाहिर है अखिलेश यादव भले ही कानूनी दायित्व न संभाल पा रहे हों पर नैतिक दायित्व में पीछे क्यों रहें। उन्होंने मृतक परिवार को 45 लाख रूपए और एक नौकरी देने को भी कहा है साथ ही यह भी कहा कि पीडि़त परिवार को इंसाफ मिलेगा। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह बिसाहड़ा गांव की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए इसे राजनीतिक रंग न देने की अपील की। उत्तर प्रदेश सरकार में ही शहरी विकास मंत्री आजम खां ने मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठाने की बात कही। लालू प्रसाद बयान देते हैं कि कोई भी सभ्य आदमी बीमारी की वजह से गाय का मांस नहीं खाता। गाय का मांस मुस्लिम भी खा रहे हैं और हिन्दू भी विदेशों में जाकर खा रहे हैं। इस बयान से हिन्दू और मुसलमान दोनों हैरान होंगे। मुसलमान सोचता होगा लालू ने उन्हें अप्रत्यक्ष ही सही असभ्य कहा है और हिन्दू की हैरानी यह है कि उसे भी इस मामले में नहीं बक्सा गया। राजद के रघुवंश सिंह दावा करते हैं कि खुद विदेश में हिंदू गोमांस खाते हैं और ऋषि मुनि भी आदिकाल में गोमांस खाते थे लेकिन ये ताकतवर लोग हैं इनका गोभक्त कुछ नहीं बिगाड़ पाते। कश्मीर में एक निर्दलीय विधायक इंजीनियर अब्दुल रशीद बीफ पार्टी देते हैं तो विधानसभा में उनकी पिटाई हो जाती है। जस्टिस मारकण्र्डेय काटजू भी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान के दौरान गैर संवेदनशील बयान देकर अपनी मन:स्थिति का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि वे भी गोमांस खाते हैं और कोई पशु किसी इंसान की माता नहीं हो सकता। सवाल है कि ऐसे वक्तव्य की क्या जरूरत है। क्या गाय और गौमांस को लेकर बात सियासत तक ही रहेगी या सभ्यता बचाने के लिए इनकी सुरक्षा भी की जाएगी।
लोगों को सोचना होगा कि वैसे तो देश में रोजाना कहीं न कहीं लोग सामुहिक हत्या की भेंट चढ़ रहे हैं, लेकिन अखलाक की हत्या पर ही नेताओं का मजमा क्यों लगना शुरू हुआ। जिस गांव का आज तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने नाम नहीं सुना था, वे वहां पहुंच गए। उनके मंत्री आजम खान ने देश की सीमा पार कर मामले को यूएनओं में उठाने का एलान कर दिया। ओवैसी भी पहुंच गए और सांप्रदायिक माहौल का गर्माने की कोशिश कर डाली। यही नहीं संसद की कार्यवाही से गायब रहने वाले राहुल गांधी की संवेदना भी जाग गई और वे भी आंसू बहा आए। ऐसे ही राजनेताओं के भ्रम जाल में फंसकर हम मानवता, नैतिकता, सच्चाई की राह ढूंढने के लिए वेद पुराण नहीं पढ़ते बल्कि यह खोजने के लिए पढ़ते हैं कि ऋषि मुनि प्राचीन समय में क्या खाते थे। दरअसल, इन सब की संवेदना अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने भर की है। दरअसल, अखलाक की लाश को आगे करके खेला जा रहा भारतीय राजनीति का यह बहुत ही घिनौना खेल है। इसकी जितनी निन्दा की जाए उतना ही कम है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने ठीक ही चेताया है कि लोग भारतीय मूल्यों और परम्पराओं को न भूलें और इस देश को भारत ही बना रहने दें। उनकी चिन्ता जायज है और उन्होंने ठीक समय पर इसका इजहार भी किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने और भी सटीक कहा कि लोग इन नेताओं की बात न सुन कर राष्ट्रपति की आवाज सुनें। मोदी के अनुसार राष्ट्रपति का सुझाया हुआ रास्ता ही भारत का रास्ता है। वही सही रास्ता है। गोमांस को लेकर जन भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।
गौ-हत्या, गौ-मांस। पिछले कुछ दिनों से इन दो शब्दों के बारे में काफी कुछ कहा, सुना, लिखा, पढ़ा जा रहा है। राजनीतिक लोग देश की तमाम दिक्कतों, परेशानियों, समस्याओं को छोड़कर इन्ही दो शब्दों के बारे में चिंतन-मनन कर रहे हैं। कुछ लोग गौ-हत्या करने वाले और गौ-मांस खाने वाले को मौत की सजा देने के पक्षधर हैं, वहीं कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लिए ये सामान्य बात है। अब इस चरम पर तमाम नेताओं, नागरिकों को रुककर सोचने की जरूरत है। हम कहां जाना चाहते हैं? क्या बनना चाहते हैं? हम किसी जानवर का मांस खाने या नहीं खाने के मुद्दे पर हत्या करने वाला समाज बनना चाहते हैं या तरक्की पसंद समाज? यहां गाय के लिए जानवर शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया है। हिन्दू धर्म (या समाज जो भी कहें) में गाय को माता माना गया है, इसलिए खुद को हिन्दू समझने वाले कुछ लोग गौ-हत्या, गौ-मांस पर बवाल मचाए हुए हैं, लेकिन देश के नागरिक, मतदाता होने के नाते मैं इन लोगों से पूछना चाहता हूं कि गौ-हत्या के नाम पर मानव हत्या करना क्या उचित है? क्या ये हिन्दू समाज की विचारधारा के अनुरूप है? एक जानवर के बदले में मानव की बलि को उचित ठहराना, क्या यही हिन्दू धर्म है? वह भी तब जब फिलहाल गौ-हत्या, गौ-मांस खाने जैसा कोई मामला सामने नहीं आया है। बस एक अफवाह उठती है और पूरा देश गौ माता को राजनीति का हथियार बना लेता है।
चुनाव हैं, वोट लेने हैं इसलिए विकास को मारो गोली, गाय को मोहरा बनाओ। बेचारी गाय। बूढ़ी गाय की कद्र तो पहले भी नहीं थी इसीलिए उपनिषद काल में अपने पिता द्वारा बूढ़ी गाय दान में देने पर नचिकेता ने प्रश्न उठाया था वह प्रश्न आज तक यूं का यूं खड़ा है। कोई जवाब ही नहीं देता कि इन बूढ़ी गायों का क्या करें? लेकिन क्या दादरी की घटना से हमारी छवि को चार चांद लगेंगे? क्या गोमांस के खिलाफ आंदोलन की परिणति इस रूप में होगी? यह सही है कि अगर गौवध या गोमांस सेवन कानूनन निषिद्ध है तो उसे हर संप्रदाय को मानना होगा। पर यह कैसे तय होगा कि घर में बना मांस किस जानवर का है? अगर कुछ स्थानीय नेता, जो आगामी चुनाव में उतरने की तैयारी कर रहे हैं, कुछ बेरोजगार लड़कों को लेकर यह तस्दीक कर दें कि फलां के यहां फलां जानवर का मांस पका है तो क्या उसकी परिणति यह होगी? गाय के लिए जानवर शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि शायद हम गाय को माता मानते ही नहीं, शायद केवल राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए ही गाय को माता कहा जा रहा है।
अगर ऐसा नहीं होता तो गाय हर चौराहे पर आवारा जानवर की तरह घूमती नजर नहीं आती। कूड़े में से सड़ी हुई सब्जी और रोटी ढूंढ कर खाने को मजबूर नहीं होती। अगर हम सच्चे हिंदुस्तानी होते तो गौ-माता के सामने बासी रोटी या बची हुई सब्जी पन्नी में फेंककर पुण्य नहीं कमाते। उस पन्नी में जिसे खा कर बेचारी गौ-माता बीमार हो जाती है और सड़क पर ही लावारिस मौत मर जाती है। क्या मां का यही हश्र होना चाहिए? जी बिल्कुल नहीं। सही में देखा जाए तो गाय भारत की आत्मा है और हिंदू, मुस्लिम या ईसाई कोई भी हो उसे देश की एकता, अखंडता के लिए
गाय और गंगा को संरक्षित रखना होगा। यह तभी होगा जब हम इन्हें राजनीति का हिस्सा नहीं बनने देंगे।
वोटों की गुल्लक भरने के लिए हथियारÓ बनी गायÓ?
राजनीति की दुनिया के अपने ही कायदे और कानून होते है इसीलिए विकास के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और राजनीति के मैदान में गाय को वोट बनाकर राजनीति करने वाले नेता दोनों तरफ खड़े नजर आते हैं। जाहिर है बिहार के चुनावों में भी गाय की चाल चल दी गई है। क्योंकि राजनेता ये खूब समझ रहे हैं कि जब मांस का एक टुकड़ा सैकड़ों का दिमाग फेर सकता है तो पूरी गाय वोटों का अंबार भी लगा सकती है। दरअसल गाय हिंदुओं की आस्था का प्रतीक रही है इसीलिए देश के कई राज्यों में सरकारों ने गौहत्या पर प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन आज गौमांस का ये मुद्दा धर्म और राजनीति का एक नया हथियार बन चुका है। हांलाकि देश में गोहत्या और गोमांस के मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने और उसको एक राजनीतिक मुद्दा बनाने का इतिहास भी पुराना रहा है। गौहत्या के इल्जाम में अखलाक की हत्या जितनी डरावनी और चौंकाने वाली है उतनी ही परेशान करने वाली वो प्रतिक्रियाएं भी हैं जो उसकी मौत के बाद सामने आई हैं। दरअसल गाय हिंदुओं की आस्था का प्रतीक रही है इसीलिए देश के कई राज्यों में सरकारों ने गौहत्या पर प्रतिबंध लगा रखा है लेकिन आज गौमांस का ये मुद्दा धर्म का एक नया हथियार बन चुका है। गौमांस का ये मुद्दा कैसे बन गया है धर्म का नया हथियार। आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा बताते हैं कि इस देश की वर्तमान दोनों में जो एक प्रतीक के रुप में जो आस्था से जोड़ती है उसमें एक गाय है और इसी कारण से गाय के संबंध में लंबे समय से विमर्श शुरु हुआ जब कुछ खास लोगों ने गाय के मांस को अपनी फूड हैविट का अनिवार्य अंग बना लिया और गौ हत्या शुरु कर दी।
10 राज्यों में कानूनन गौहत्या
गो-हत्या पर पूरी पाबंदी का मतलब है सारे गोवंश की हत्या पर रोक। भारत के 29 में से 10 राज्य ऐसे हैं जहां गाय, बछड़ा, बैल, सांड और भैंस को काटने पर रोक नहीं है। जबकि 18 राज्यों में गो-हत्या पर पूरी या आंशिक रोक है। यह रोक 11 राज्यों कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महराष्ट, छत्तीसगढ़, और दो केन्द्र प्रशासित राज्यों दिल्ली, चंडीगढ़ में लागू है। गो-हत्या कानून के उल्लंघन पर सबसे कड़ी सजा भी इन्हीं राज्यों में तय की गई है। हरियाणा में एक लाख जुर्माना और 10 साल की जेल की सजा का प्रावधान है। महाराष्ट में गो-हत्या पर 10,000 रुपए का जुर्माना और पांच साल की जेल की सज़ा है। छत्तीसगढ़ में भैंस काटने पर भी रोक है। दस राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और एक केंद्र शासित राज्य लक्षद्वीप में गौ-हत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। असम और पश्चिम बंगाल में जो क़ानून है उसके तहत उन्हीं पशुओं को काटा जा सकता है जिन्हें फिट फॉर स्लॉटर सर्टिफिकेटÓ मिला हो। मांस के कारोबार से जुड़े व्यापारी मानते हैं कि इस धंधे में कई समुदायों के लोग हैं। करीब 28 हजार करोड़ रुपए के इस व्यवसाय में मुनाफे का एक बड़ा हिस्सेदार गैर-मुसलमान व्यापारी वर्ग भी है। भारत में कुल 3600 बूचडख़ाने सिर्फ नगरपालिकाओं द्वारा चलाये जाते हैं। इनके अलावा 42 बूचडख़ाने आल इंडिया मीट एंड लाइवस्टॉक एक्सपोर्टर्स एसोसिएशनÓ के द्वारा संचालित किये जाते हैं जहां से सिर्फ निर्यात किया जाता है। 32 बूचडख़ाने सरकार के एक विभाग के अधीन हैं। महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तर प्रदेश तीन ऐसे प्रमुख राज्य हैं जहां से सबसे ज़्यादा भैंस के मांस का निर्यात होता है। अकेले उत्तर प्रदेश में 317 रजिस्टर्ड स्लॉटर हाउसिज (पंजीकृत बूचडख़ाने) हैं।
बीफ का सबसे बड़ा निर्यातक है भारत
वाल स्ट्रीट जर्नल पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भले ही भारत के बड़े हिस्से में गायों की हत्या करना बैन हो लेकिन दुनिया के किसी भी अन्य देश से ज्यादा बीफ का निर्यात भारत से ही होता है। यूएसडिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर फॉरेन एग्रीकल्चर सर्विस के अनुसार भारत में गाय की विभिन्न प्रजातियां, बैलों और भैंसों की आबादी 30 करोड़ से ज्यादा है। 2015 में अभी तक भारत में 4.5 मिलियन टन भैस के मीट का उत्पादन हुआ है जो बीते साल से 5 प्रतिशत ज्यादा है। मीट के कुल उत्पादन में भारत के 29 राज्यों में सबसे ज्यादा उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। वर्ष 2014 में दुनिया भर में भैंसों के मीट का सबसे ज्यादा उत्पादन भारत में हुआ था। वहीं अब तक 2015 में बीफ और भैंस के मीट का कुल उपयोग भारत में 2 करोड़ टन से ज्यादा है।