अध्यापक क्यों दे रहे जान?
17-Oct-2015 08:18 AM 1234819

जिस देश में गुरू (अध्यापक) को भगवान का दर्जा दिया गया है, उस देश में अब इनको अपनी आवाज उठाने का भी अधिकार नहीं है। अगर वे अपनी आवश्यकताओं के लिए आवाज उठाते हैं तो उन्हें सड़क पर दौड़ाया जाता है, उन पर लाठियां भांजी जा रही हैं, जेल भेजा जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ शिक्षक जहर पीकर जान दे रहे हैं। आजाद अध्यापक संघ के प्रांत सचिव जावेद खान की मानें तो अब तक प्रदेश में 4 अध्यापक जान दे चुके हैं। ये अध्यापक अपनी जान क्यों दे रहे हैं वे इसकी न्यायिक जांच कराने की मांग करते हैं। यह हमारे देश की विडंबना ही है कि जहां अमेरिका में अध्यापकों को वीआईपी का दर्जा मिला है वहीं भारत में उन्हें धक्के खाने पड़ रहे हैं।
दरअसल, अध्यापकों का दर्द यह है कि पिछले 12 साल से वे अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन के गर्भ से निकले नेता अपनी रोटी सेंक कर गायब हो जाते हैं। लेकिन मांगे जस की तस हैं। इन्हीं अध्यापकों के आंदोलन से आगे बढ़कर मुरलीधर पाटिदार विधायक बन गए हैं और विधायकी मिलते ही वे इनका दर्द भूल गए हैं। अध्यापकों का आरोप है कि अब तो पाटिदार कवरेज क्षेत्र से ही बाहर रहते हैं। वहीं पाटिदार ने अक्स से चर्चा में बताया कि मैं अब सड़क पर नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार से अध्यापकों की समस्याओं के समाधान के लिए चर्चा करता हूं। वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री स्वयं अध्यापकों की मांगों को पूरा करने के लिए तत्पर हैं।2017 तक अध्यापकों को उनके वर्तमान वेतन का दस गुना से अधिक वेतन मिलने लगेगा। उधर, अपनी पांच सूत्रीय मांगों को लेकर आंदोलनरत अध्यापकों को सरकार के आश्वासन पर विश्वास नहीं है। इसलिए उन्होंने आजाद अध्यापक संघ के नाम से नया संगठन बनाया है। जैसा इस संगठन का नाम है, वैसी ही इसकी कार्यप्रणाली है। इस संगठन में सभी अध्यापकों को खुलकर भाग लेने का आह्वान किया जा रहा है। इस संगठन में कोई एक चेहरा नहीं है। बल्कि मध्यप्रदेश के कोने-कोने से अपनी काबिलियत व क्षमता के आधार पर प्रत्येक अध्यापक इस मुहिम का हिस्सा बन रहा है। वास्तव में अब अध्यापक किसी एक नेता की गुलामी से बाहर निकलकर आम होकर आम लड़ाई लड़ रहा है। इस संगठन ने स्पष्ट किया है कि इसमें नफा नुकसान किसी एक व्यक्ति विशेष का न होकर सभी अध्यापक व संविदा शिक्षकों का होगा। यदि आन्दोलन से हमारी बात सरकार तक पहुंच पाती है तो इसका श्रेय आम अध्यापकों को जाएगा और लाभ मिलेगा। इसके विपरीत यदि हम अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने में असफल होते हैं तो इसका गुनाहगार भी हर वो अध्यापक होगा जो मुहिम में शामिल न होकर किसी करिश्मा के इंतजार में है और नुकसान भी आम अध्यापक का ही होगा।
सरकार की दलील है कि ये अध्यापक वो हैं जिन्होंने दिग्विजय सिंह की सरकार रहते गांव में निकायों से जुड़कर कॉन्ट्रेक्ट पर अपनी सेवाओं की शुरुआत की थी और उस वक्त उनका वेतनमान करीब 800 रुपए प्रतिमाह था। भाजपा की सरकार बनने के बाद न सिर्फ इनका वेतनमान करीब 4 गुना हो चुका है बल्कि दूसरी सुविधाओं का भी लाभ मिला है। फिर भी 7 प्रमुख मांगों को लेकर इनका संघर्ष जारी है और इस दौरान उन्होंने विरोध प्रदर्शन कर अपनी ताकत का अहसास कराया तो सरकार ने संवाद के जरिए इसका स्थायी हल निकालने की कोशिश की है। इनकी प्रमुख मांगों में शिक्षाकर्मियों का शिक्षा विभाग में संविलियन, तबादला नीति लागू करना, समान कार्य समान वेतन, महीने की एक तारीख को वेतन का भुगतान, वरिष्ठ पदोन्नति, संविधा शाला शिक्षकों की परिवीक्षावधि एक साल और गैर शिक्षकीय कार्य से अध्यापकों को मुक्त किया जाना शामिल हैं।
आजाद शिक्षक संघ की अगुवाई कर रहे भरत पटेल कांग्रेस की उपज बताए जाते हैं। इन अध्यापकों की मांग मानने पर करीब 22 सौ करोड़ रुपए का खर्चा आना तय है। फिर भी सरकार इनसे सहानुभूति रखती है लेकिन पेंच तुरंत इन मांगों को लागू करने को लेकर फंसा है। आंदोलनकारियों का कहना है कि संविलियन और दूसरी मांगों पर बतौर सीएम मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उन्हें 15 सितंबर से लागू करने का भरोसा दिला चुके हैं। ये शिक्षक कई बार भोपाल में इक_े होकर अपनी एकजुटता और ताकत का अहसास करा चुके हैं तो कई बार पुलिस के हत्थे चढ़कर लाठीचार्ज का भी शिकार हुए हैं। लेकिन अभी भी ये आंदोलन के मूड में हैं और इन्होंने ऐलान किया है कि अगर हमारी सभी मांगें नहीं मानी जाती हैं तो दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना देंगे।
-सिद्धार्थ पाण्डे

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