उभरती वैश्विक ताकत बना भारत
17-Oct-2015 07:58 AM 1234758

अभी हाल ही में  जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने अपने भारत दौरे पर जर्मनी और भारत की जरूरतों में सामंजस्य बिठाने की कोशिश की है। भारत के साथ अच्छे रिश्तों में जर्मनी की दिलचस्पी इस बात से स्पष्ट है कि मर्केल अपने साथ चार कैबिनेट मंत्रियों और विभिन्न विभागों के 9 राज्य मंत्रियों को ले आईं थीं। जर्मन भारत द्विपक्षीय शिखर वार्ता में यह अब तक का सबसे बड़ा सरकारी प्रतिनिधिमंडल था। जर्मनी ने इस फॉर्मेट में सबसे पहले फ्रांस के साथ बातचीत शुरू की थी, जिसके नतीजे दोनों देशों के बीच सदियों की दुश्मनी को भुलाने और रिश्तों की नयी मिसाल के रूप में सामने आये हैं। इस बीच जर्मनी इजरायल, रूस, चीन और ब्राजील के साथ इस फॉर्मेट में बातचीत कर रहा है, जिसका मकसद सरकारी बातचीत को विदेश मंत्रालय पर न छोड़ कर व्यापक बनाना और विभिन्न विभागों के जिम्मेवार मंत्रियों के बीच आपसी रिश्ता बनाना है। तभी समस्याओं पर बात हो सकती है, और उनका फौरी समाधान निकल सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इस साल अप्रैल में हनोवर दौरा जर्मनी और भारत के संबंधों के एक नये दौर की शुरुआत थी। हालांकि, जर्मन पक्ष में कुछ झिझक थी। लेकिन इस बीच समस्याओं पर खुल कर बात हो रही है और उनके हल निकाले जा रहे हैं। पहली बार भारत-जर्मन संबंधों में उत्साह का माहौल है। चांसलर मर्केल ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ इसके लिए जो आधार बनाया है, उसका हर स्तर पर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। विदेशी यात्राओं की आलोचना के बदले उसे कुछ नया सीखने का मौका समझा जाना चाहिए।
जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के इस दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अभूतपूर्व लचीलापन दिखाया है और निवेश के फैसलों को फास्ट ट्रैक करने की संधि इसका सबूत है। इसके अलावा जिन अन्य 17 समझौतों पर भारत और जर्मनी ने हस्ताक्षर किये हैं, वे पारस्परिक संबंधों में अहम भूमिका निभायेंगे। जर्मनी के व्यावसायिक प्रशिक्षण का इसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलू के कारण पूरी दुनिया में नाम है। इसके तहत किशोर किसी कंपनी में काम करते हुए व्यावहारिक प्रशिक्षण पाते हैं, जबकि सप्ताह में एक दिन स्किल सेंटर में सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। कोर्स में बिजनेस मैनेजमेंट के हिस्से शामिल होने के कारण बहुत से ट्रेनी खुद अपना बिजनेस शुरू करने की हिम्मत भी जुटा पाते हैं। स्किल डेवलपमेंट के अलावा आपदा प्रबंधन, कृषि अध्ययन में सहयोग, मैन्यूफैक्चरिंग में सहयोग और इंडो-जर्मन सौर ऊर्जा पार्टनरशिप महत्वपूर्ण है। जर्मनी ने खतरों के कारण परमाणु ऊर्जा से विदा लेने का फैसला किया है और अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान दे रहा है। उसके पास सौर ऊर्जा की तकनीकी के अलावा पिछले वर्षों में इसके व्यापक इस्तेमाल का अनुभव भी है। भारत के पास सूरज की गरमी है। मकान बनाने में सौर ऊर्जा और अन्य ऊर्जा तकनीकों के इस्तेमाल से गरमी और ठंड जैसी समस्याओं से भी निबटा जा सकेगा।
दरअसल, प्रधानमंत्री पद संभालते ही मोदी युवाओं के लिए रोजगार और देश के लिए उद्योग तथा व्यापार की संभावनाओं की तलाश शुरू कर दी थी। इसके लिए उन्होंने कई देशों के दौरे किए, समझौते किए। तब जाकर आज भारत उभरती वैश्विक ताकत में तब्दील हो रहा है। 27 सितंबर को सैन होजे में जब उन्होंने अप्रवासी भारतीयों से खचाखच भरे स्टेडियम को संबोधित किया, तो भीड़ में उन्माद-सा भर गया। यह उन्माद जब अपने चरम पर पहुंचा, तब मोदी ने साधारण शब्दों में इस दुनिया के बारे में अपनी समझदारी लोगों के सामने रखी। उन्होंने कहा कि हर कोई इस बात से सहमत है कि इक्कीसवीं सदी एशिया की है, लेकिन देर से ही सही, अब यह कहा जा रहा है कि यह सदी भारत की होगी। फिर उन्होंने पूछा कि ऐसा क्यों होगा? और भीड़ चिल्ला उठी, मोदी, मोदी। वे हंसे और उन्होंने जवाब दिया, नहीं, नहीं। मोदी के कारण नहीं। यह बदलाव आपके कारण आया है। वे अरबों लोग जो अब मान रहे हैं कि भारत को और ज्यादा पीछे नहीं रहना चाहिए। यह वक्त आ गया है कि भारत दुनिया का नेतृत्व करे।
मोदी दरअसल एक संतुलनकारी ताकत के रूप में भारत की भूमिका को नेतृत्वकारी ताकत में तब्दील कर देना चाहते हैं। वे मानते हैं कि ऐसा देश जहां मानवता का छठा हिस्सा निवास करता है और जो जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है, उसे उसका सही मुकाम हासिल हो। मोदी इस बात को भी समझते हैं कि अमेरिका अब अवसान  की ओर है जबकि चीन लडखड़़ा रहा है, ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत के पास दुनिया का नेतृत्व करने का अच्छा मौका है, बशर्ते वह अपने पत्ते सही ढंग से चले। मोदी अपनी विदेश यात्राओं की योजना ऐसे बनाते हैं गोया वे प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचार करने जा रहे हों। अमेरिका की सितंबर यात्रा की तैयारी उन्होंने महीनों पहले करनी शुरू कर दी थी। वे अहम मसलों और देशों पर अधिकारियों से पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन मंगवाते और उनके नतीजों के बारे में पूछते थे, क्या निकलेगा? ब्रीफिंग को सुनने-समझने के बाद मोदी सूचनाओं को याद कर लेते हैं और इसकी तैयारी करते हैं कि हालात से कैसे निबटना है और क्या बोलना है। नीतियों के जानकार अब भी इस पर बंटे हुए हैं कि मोदी ने वाकई भारत के तरीकों में कोई बुनियादी बदलाव ला दिया है या फिर तमाम अगर-मगर के बावजूद वे मोटे तौर पर अपने पूर्ववर्ती की बनाई नीतियों पर ही चल रहे हैं। हाल के अपने वक्तव्यों में विदेश सचिव एस.जयशंकर का साफ मानना था कि मोदी के आने से विदेशों में भारत का उद्यम पहले की तरह नहीं रह गया है बल्कि उसमें ज्यादा आत्मविश्वास आया है, पहलें हुई हैं, दृढ़ संकल्प दिखा है और जाहिर तौर से इनमें भारत की सामर्थ्य की वृद्धि दिखाई देती है। कई मामलों में कह सकते हैं कि भारत की छाप सशक्त हुई है और व्यापक भी।
दुनिया भर में घूम रहे मोदी के दिमाग में बस एक ही बात मिशन की तरह चल रही है कि भारत आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो। प्रधानमंत्री को अच्छे से मालूम है कि उन्होंने जितने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू किए हैं जैसे डिजिटल इंडिया, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया या स्टार्ट-अप इंडिया, इन सब में भारी पूंजी की जरूरत होगी। इन्हें जल्दी से साकार करने के लिए पैसे के अलावा जानकारी और प्रबंधकीय कौशल की भी दरकार होगी। ऐसा तभी मुमकिन होगा जब विदेशी निवेशक भारी संख्या में यहां आएंगे और पैसा झोंकते हुए अपनी विशेषज्ञता भी साथ ले आएंगे। मोदी जब पिछले साल अमेरिका के अपने पहले दौरे पर गए थे, तब उन्होंने अमेरिकी कारोबारियों को अपनी सेल्स क्षमता का वादा किया था और अंतरराष्ट्रीय कारोबारियों की भारत में दिलचस्पी जगाई थी जो यूपीए-2 के कार्यकाल में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में तकरीबन खत्म हो चुकी थी। इस यात्रा के एक साल बाद कई बड़े कारोबारियों को अंदेशा है कि शुरुआती प्रोत्साहन के बाद मोदी आर्थिक सुधारों की चाल को टिकाए नहीं रख सके हैं और उन्हें इसकी चिंता है कि वे चरणबद्ध तरीके को अपना रहे हैं, जैसा कि एक सीईओ ने कहा भी था। उन्हें इसकी चिंता है कि टीम मोदी संख्याबल के मामले में कमजोर है और उन्हें वादे पूरा होते नहीं दिख रहे हैं। इसके बावजूद वादों को पूरा करने के मामले में मोदी में उनका विश्वास बना हुआ है।
पाकिस्तान और चीन के मोर्चे पर उनका रिकॉर्ड मिश्रित है। पाकिस्तान के साथ संलग्नता के लिए मोदी द्वारा की गई पहलें अब तक भारी नाकामी का शिकार हुई हैं जिसमें भारत ने आतंक के मसले पर कोई समझौता नहीं किया तो पाकिस्तान ने कश्मीर का मुद्दा लगातार उठाए रखा। अब जाकर मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ बातचीत के बाद यह तय किया है कि पाकिस्तान को आतंक के मुद्दे पर अलग-थलग कर दिया जाए और इसके लिए उन देशों का समर्थन लेकर उसकी घेराबंदी की जाए जिनके साथ भारत के कारोबारी रिश्ते हैं। यूएई के अपने हालिया दौरे पर उन्होंने वहां के प्रिंस के साथ आतंक से निबटने के लिए एक संयुक्त संधि करके पाकिस्तान को चौंका दिया। इसके अलावा सात मध्य एशियाई देशों की यात्रा के दौरान आठ दिनों के भीतर 57 बैठकें करके उन्होंने आतंक के खिलाफ उनका समर्थन मांगा और उनके यहां ऊर्जा संसाधनों का दोहन करने की भी संभावनाएं तलाशीं। सऊदी अरब की उनकी आगामी यात्रा इसी योजना का हिस्सा है।
इस दौरान मोदी इस बात का जोर लगा रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर एक समग्र घोषणापत्र को अपना ले जिससे पाकिस्तान पर और ज्यादा दबाव बन सके। हाल ही में हुई कूटनीतिक नाकामियों के बाद माना जा रहा है कि पाकिस्तान को संलग्न करने के लिए प्रधानमंत्री छिटपुट पहलें करेंगे ताकि उनके बीच मुलाकातें पहले की तरह सुर्खियों में न आने पाएं। मोदी ने संयुक्त राष्ट्र में नवाज शरीफ से हाथ नहीं मिलाया, यह खबर भी सुर्खियों में आ गई थी। लेकिन मोदी का यह कदम भारत की महत्वाकांक्षा को भी दर्शाता है।
-आर.के. बिन्नानी

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