03-Apr-2013 10:52 AM
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पिछले दिनों दिल्ली में कथित उग्रवादी लियाकात शाह की गिरफ्तारी के बाद जम्मू-कश्मीर में जमकर राजनीति हो रही है। एक तरफ उमर-अब्दुल्ला खुलकर लियाकत की पैरवी करते हुए कह रहे हैं कि वह आत्मसमर्पण करने वाला था और सरकार ने उसके पुनर्वास की तैयारी कर रखी थी। वहीं दूसरी तरफ दिल्ली पुलिस का दावा है कि लियाकत दिल्ली पर हमले की योजना बनाते वक्त पकड़ा गया है। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि लियाकत जैसे भटके हुए नौजवानों की गिरफ्तारी से कश्मीर में मुख्यधारा में लौटने वाले उग्रवादी आत्मसमर्पण करने से पीछे हट जाएंगे। बीजेपी ने इस दावे को गलत बताते हुए कहा है कि सरकार उग्रवादियों को प्रश्रय दे रही है। बीजेपी ने इस सिलसिले में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के समक्ष प्रदर्शन भी किया था।
कश्मीर में अफजल गुरु की फांसी के बाद क्रिकेट के मैदान में आतंकवादियों ने खूनी खेल खेला था और अब जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर बीएसएफ की गाड़ी पर आतंकवादी हमले से यह साफ हो गया है कि कश्मीर फिर सुलगने लगा है। इससे पहले मस्जिद में घुसकर एक कश्मीरी नौजवान की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गई थी। इस तरह की घटनाएं राज्य के प्राय: हर क्षेत्र से सुनाई पड़ रही है जो कि पर्यटन उद्योग को धक्का पहुंचा सकती है। गर्मियों में पर्यटन के माध्यम से कश्मीरियों को वर्ष भर की आमदनी होती है, लेकिन लगता है अब कश्मीरी पर्यटन आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं के बीच मंदा पड़ सकता है।
कुछ दिन पहले हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के पांच जवानों पर अंधाधुंध गोली-बारी कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। कुछ जवान घायल भी हुए थे। दो आतंकवादी भी मारे गए। दो बचने में कामयाब रहे यह घटना उस समय घटी जब सीआरपीएफ के जवान और स्थानीय निवासी क्रिकेट खेल रहे थे। क्रिकेटरों के भेष में आए आतंकी क्रिकेट किट में हथियार छिपाकर लाए थे उन्होंने मौका देखते ही फायरिंग शुरू कर दी जिसमें पांच जवानों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। बाकी घायल जवानों को खून देने के लिए जब एंबुलेंस से दूसरे जवान जा रहे थे तो उन पर कश्मीर में उपद्रवियों ने पत्थर फेकें और उनका रास्ता रोकने की कोशिश की। 90 के दशक में आतंकवादी घटनाओं ने सर उठाया था इस बार भी कमोवेश वैसे ही हालात हैं। 9 फरवरी से 9 मार्च तक मात्र 13 दिन ही कश्मीर खुला रहा। किसी जगह निषेधाज्ञा तो कहीं हड़ताल। शेष 17 दिन कश्मीर में पूरी तरह बंद रहा। इससे कश्मीर की अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से 1700 करोड़ का नुकसान हो चुका है। कई लोगों के समक्ष दो जून की रोटी का संकट आ पहुंचा है। पर्यटन उद्योग पटरी से उतर गया है। वर्ष 2013 की शुरुआत हुई थी तो सभी को लगा था कि यह वर्ष शांत रहेगा। कश्मीर का पर्यटन व अर्थव्यवस्था सरपट भागेगी, लेकिन 9 फरवरी सुबह दिल्ली में अफजल गुरु को फांसी के साथ ही सबकुछ बदल गया। वादी में नौ फरवरी को प्रशासन ने किसी भी अप्रिय घटना से बचने के लिए कफ्र्यू लगाया, जो 15 को हटा। इस दौरान कई जगह हिंसक प्रदर्शन भी हुए।
प्रशासन ने कफ्र्यू हटाया तो दिल्ली बैठे कट्टरपंथी सैयद अली शाह गिलानी ने 16-17 फरवरी के लिए कश्मीर में दो दिवसीय पूर्ण बंद का एलान किया। इस पर लोगों ने अमल किया और सामान्य जनजीवन फिर ठप रहा। 19 फरवरी को दक्षिण कश्मीर में एक महिला की मौत ने हालात को बिगाड़ दिया और अनंतनाग व उससे सटे इलाकों में निषेधाज्ञा लागू हो गई। इसका असर वादी के अन्य हिस्सों में भी नजर आया। 20-21 फरवरी को गिलानी के आह्वान पर कश्मीर में दोबारा हड़ताल और बंद के साथ प्रशासनिक गतिविधियों के बीच सामान्य जनजीवन ठप रहा। 22 को पाकिस्तान यात्रा पर गए जेकेएलएफ चेयरमैन मुहम्मद यासीन मलिक के संदेश पर कश्मीर बंद रहा। 20 से 22 फरवरी तक यह बंद अफजल गुरु के शव को नई दिल्ली से वापस लेने की मांग पर हुआ। इसके बाद 23 फरवरी से तीन मार्च तक कश्मीर में हालात सामान्य रहे। इस दौरान प्रदर्शन और हिंसक घटनाएं भी हुई, लेकिन स्थिति कमोबेश नियंत्रण में रही। चार मार्च को परिगाम-पुलवामा के एक छात्र की हैदराबाद में हुई मौत ने हालात बिगाड़ दिए। सोमवार चार मार्च को फिर कश्मीर में बंद और हिंसक प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया। प्रशासन को कई इलाकों में फिर कफ्र्यू का सहारा लेना पड़ा। इसके बाद पांच मार्च को मंगलवार को बारामूला में एक युवक की सुरक्षाबलों की गोली से मौत ने रही सही कसर पूरी कर दी। पूरी वादी में प्रशासन को कफ्र्यू लगाना पड़ा, जो नौ मार्च की रात तक जारी। हालांकि, 10 मार्च को कफ्र्यू नहीं था। श्रीनगर में बेशक कई जगह सामान्य जिंदगी बहाल हो चुकी थी, लेकिन बारामूला, सोपोर और डाउन-टाउन में प्रशासन को स्थिति पर काबू पाने के लिए निषेधाज्ञा का सहारा लेना पड़ा है। कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स के पूर्व अध्यक्ष डॉ. शकील कलंदर ने कहा, हमें लगता है फिर वर्ष 1990 के दशक की तरफ लौट रहे हैं। उस दौरान इसी तरह सिलसिलेवार हड़ताल रहती थी, बंद रहता था। किसी जगह कोई कफ्र्यू नहीं होता था, बंद नहीं होता था तो कुछ अन्य इलाकों में हिंसक प्रदर्शन हो रहे होते थे। दरअसल वर्ष 2010 से ही यह स्थिति बनी हुई है बीच में अवश्य माहौल कुछ शांत हुआ था लेकिन वर्ष 2010 में 54 दिन तक कश्मीर में बंद रहा जिसमें 45 लोग मारे गए और सैंकड़ों जख्मी हो गए। उसके बाद सरकार ने कुछ प्रयास किए तो हालात सुधरे लेकिन अब फिर वही माहौल है।