02-Oct-2015 08:53 AM
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पिछली भाजपा सरकार के समय दिसंबर 2005 से जनवरी 2009 तक इस विभाग में रहे। दिसंबर 2009 में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता में आई तो उन्हें हटा कर प्रशासनिक सुधार

विभाग में भेजा गया। केन्द्र सरकार छोड़ कर आए थे राजस्थान दिलचस्प बात यह है कि सिंघवी राजस्थान में भाजपा की सरकार बनने के तीन माह बाद ही मार्च 2014 में केन्द्र सरकार की प्रतिनियुक्ति बीच में छोड़ कर अपने होम काडर राजस्थान लौटे थे जबकि उनका भारत सरकार में साढ़े तीन साल का समय बाकी था। राजस्थान लौटने के बाद सिंघवी को वसुन्धरा सरकार में अहम पद मिलने की चर्चा थी। उन्हें पहलेे कम महत्व के दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल डवलपमेंट कॉरपोरेशन का प्रमुख बनाया गया लेकिन तीन माह बाद जून 2014 में उन्हें खान एवं पेट्रोलियम विभाग के प्रमुख सचिव पद पर तैनात किया गया। तब से वे लगातार इस पद पर तैनात हैं। नवंबर 2014 में उन्हें 125 करोड़ के लाभ में चल रहे राज्य के सबसे बड़े सरकारी उपक्रम राजस्थान स्टेट माइन्स एण्ड मिनरल्स लिमिटेड के चेयरमैन का भी पद दिया गया। सामान्यत: इस पद पर मुख्य सचिव या वरिष्ठतम आईएएस अधिकारी की नियुक्ति होती है लेकिन उन्हें इस पद पर लगाया गया तो प्रशासनिक-राजनीतिक हलकों में आश्चर्य प्रकट किया गया था। सिंघवी इस पद पर आए तो क्रस्रूरूरु का विभाजन कर इसे निजी हाथों में सौंपने की योजना भी बनी।
एक फोन और सरकार को 600 करोड़ का घाटा
महाघूसकांड में गिरफ्तार निलंबित आईएएस अशोक सिंघवी मोटी रकम हथियाने के लिए फोन पर मौखिक आदेश देकर सरकार को 600 करोड़ रूपए की चपत भी लगा चुके हैं। गत भाजपा शासन में हुए इस घोटाले का खुलासा तीन साल बाद कांग्रेस शासन के दौरान एसीबी की पड़ताल में हुआ। हालांकि सिंघवी के प्रभाव की वजह से एसीबी जांच में आरोप साबित होने के बाद भी कार्रवाई नहीं कर सकी। एसीबी ने विभागीय कार्रवाई के लिए कार्मिक विभाग को पत्र जरूर लिखा। कार्मिक विभाग ने कार्रवाई तो दूर मामले की पड़ताल तक नहीं की। चार साल बाद एसीबी इस मामले की फिर परतें उखाड़ रही है। मामले का खुलासा वर्ष 2011 में हुआ, जब एसीबी ने प्राथमिकी जांच दर्ज कर पड़ताल शुरू की। खुलासा हुआ कि पुनर्विचार का निर्णय सिंघवी ने अपने स्तर पर लिया। इसकी जानकारी तत्कालीन मंत्री लक्ष्मीनारायण दवे को भी नहीं दी। इतने अहम मामले में पत्रावली पर निदेशालय व खान विभाग ने विधि विभाग से राय भी नहीं ली। पुनर्विचार अर्जी से कोर्ट का आदेश कंपनी के पक्ष में हो गया। यहां सिंघवी ने कोर्ट के निर्णय के खिलाफ डीबी में अपील की अनुशंषा विधि विभाग को भिजवाने के बजाय अपने स्तर पर ही नो-अपील का निर्णय ले लिया।
एसीबी जांच में माना गया कि लीज के माइनिंग प्लान के मुताबिक रॉक फास्फेट की मात्रा 3.872 मिलियन मैट्रिक टन आंकी गई। इसकी कीमत छह सौ करोड़ रूपए से अधिक थी। सरकार की पॉलिसी के मुताबिक रॉक फास्फेट जैसे मोनोपॉली खनिज की खान निजी कंपनी की नहीं दी जा सकती। माना कि लीज देते समय हिंदुस्तान जिंक सरकारी उपक्रम था। बाद में निजी कंपनी ने इसकी अधिकांश अंश पूंजी खरीद ली। इस तरह कंपनी का प्रबंधन निजी हाथों में चला गया। यह तथ्य खुद सिंघवी ने वर्ष 2006 में खान विभाग की पत्रावली में अंकित किया था। अदालत से विभाग का जवाब वापस लेने से सीधा नुकसान सरकार को उठाना पड़ा। एसीबी में यह जांच तत्कालीन उप अधीक्षक महेन्द्र हरसाना ने की थी। जांच अधिकारी ने आरोप साबित मानते हुए अशोक सिंघवी, खनिज अभियंता रिट मधुसुदन पालीवाल, डीएलआर विरेन्द्र सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मामला दर्ज करने की अनुशंषा की। हालांकि एसीबी मुख्यालय ने कार्रवाई आगे बढ़ाने के बजाय मामला कार्मिक विभाग को भेज दिया। आरोप साबित मानते हुए कार्मिक विभाग को सिंघवी के खिलाफ विभागीय कार्रवाई के लिए लिखा। सिंघवी के प्रभाव के चलते विभाग में यह कागज एक कदम आगे नहीं बढ़ा। यह मामला उदयपुर के मटून गिर्वा स्थित रॉक फास्फेट की खान से जुड़ा है। आरएसएमएम (राजस्थान स्टेट माइंस एंड मिनरल लि.) के एकाधिकार वाली इस खान की लीज वर्ष 2010 तक के लिए हिंदुस्तान जिंक के पास थी। वर्ष 2006 में खान विभाग ने लीज संख्या 6/89 को लेप्स घोषित कर दिया। इसको हिंदुस्तान जिंक ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट को दिए जवाब में विभाग ने लीज को लेप्स घोषित करने की कार्रवाई को सही ठहराया। इस बीच 23 अक्टूबर 2008 को तत्कालीन खान सचिव सिंघवी ने फोन पर सरकारी वकील को कोर्ट में पुनर्विचार के लिए प्रार्थना पत्र लगाने का मौखिक आदेश दिया। सरकार से पुनर्विचार की अर्जी आने पर अदालत में सरकार का पक्ष कमजोर पड़ गया।
केन्द्र सरकार छोड़ कर आए थे राजस्थान
राजस्थान का खान विभाग सबसे मालदार विभागों में से एक माना जाता है और सबसे अधिक भ्रष्ट महकमे की सूची मेंं भी इसका नाम टॉप पर आता है। कहा जाता है कि खान विभाग में चपरासी, फोरमैन से लेकर शीर्ष स्तर तक बिना दक्षिणा के कोई काम नहीं होता। खान का धंधा करने वाला एक विशेष प्रभावशाली व व्यापारी वर्ग होने से आम तौर पर इस विभाग में भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी की कोई शिकायत नहीं करता, इसीलिए इस विभाग में लगातार भ्रष्टाचार बढ़ता रहता है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल बनकर सामने आए हैं आईएएस अधिकारी अशोक सिंघवी। ढाई करोड़ की रिश्वत व 22 करोड़ रुपए की डील के मामले में पकड़े गए आईएएस अधिकारी अशोक सिंघवी राजस्थान के तेज तर्रार अधिकारी होने के साथ खान विभाग के खलीफा माने जाते हैं। शायद लगातार खान एवं पेट्रोलियम विभाग में जमे रहने की खलीफाई के कारण ही सिंघवी बेखौफ हुए और 22 करोड़ जैसी बड़ी डील में पकड़े जाने जैसा मामला सामने आया। वर्ष 1983 बैच के आईएएस अधिकारी सिंघवी के करियर पर नजर डालें तो पिछले 10 साल में करीब साढ़े पांच साल से वे खान एवं पेट्रोलियम विभाग के सचिव व प्रमुख सचिव रहे।
तीन और बड़ी कंपनियां थी निशाने पर
एसीबी ने यदि खान विभाग में महाघूस कांड का खुलासा नहीं किया होता तो भीलवाड़ा जिले की तीन और बड़ी कम्पनियां खान सचिव अशोक सिंघवी के निशाने पर थी। सूत्रों के अनुसार खान विभाग के अधिकारियों की पिछले कुछ दिनों से गंगापुर क्षेत्र में नजर थी। योजना तैयार कर ली गई थी। स्थानीय अधिकारियों को अतिरिक्त खान निदेशक पंकज गहलोत के इशारे का इंतजार था। गंगापुर क्षेत्र में लम्बे समय से कुछ लोग अवैध खनन कर चांदी काट रहे थे। इस बारे में कुछ लोगों को नोटिस भी जारी किए गए थे, ताकि वे दलाल के माध्यम से अधिकारियों से सम्पर्क कर सके। कोटड़ी क्षेत्र की बड़ी खान भी अधिकारियों के निशाने पर थी। यहां वन विभाग की जमीन पर खनन करने का मुद्दा बनाया जाना था। वहां लम्बे समय से अवैध खनन भी हो रहा है, लेकिन विभाग के अधिकारी कोई कार्रवाई नहीं कर रहे थे। अब अवैध व वन भूमि पर खनन को आधार बनाकर कोटड़ी क्षेत्र की खदान बन्द कराने की योजना थी। सूत्रों के अनुसार शाहपुरा तहसील क्षेत्र में जिले की सबसे बड़ी खदान के प्रबन्धकों से भी खान विभाग के अधिकारियों की अनबन चल रही है। इसके चलते वर्षो पुराने मामले को फिर से तूल दिया गया।
8 माह में बांट दी डेढ़ हजार खानें, जांच पर मंत्री चुप
एसीबी के शिकंजे में फंसे निलंबित आईएएस अशोक सिंघवी की देखरेख में ही राज्य में खानों की बंदरबांट हुई। यूं तो मेजर मिनरल में हर माह खान आवंटन प्रक्रिया में 10-15 फाइलें पास होती हैं, लेकिन सिंघवी के विभाग की कमान संभालते ही इस प्रक्रिया ने हवा की माफिक गति पकड़ ली। हाल यह हो गया कि हर माह 15-20 फाइल निकालने वाला महकमा 150 से ज्यादा फाइलों का निस्तारण करने में जुट गया। आठ माह में करीब 1449 खानों के पूर्वेक्षण अनुज्ञा पत्र, खनन पट्टे और खनन पट्टों के मंशा पत्र जारी कर दिए गए। इनमें जनवरी 2015 के 12 दिन में ही 258 को खान बांट दी गई। सूत्रों के मुताबिक, 1449 खानों के आवंटन का आंकड़ा तो अप्रेल 2014 से 12 जनवरी 2015 तक का बताया जा रहा है। हालांकि पहले दो माह अप्रैल और मई में इक्का-दुकान खानों के ही आवंटन हुए। जून 2014 में सिंघवी के विभाग की कमान संभालने के बाद हालात यह हो गए कि खान आवंटन की हर फाइल का संपूर्ण काम दो-चार दिन में ही पूरा होने लगा। खनन आवंटन का काम पहले आओ-पहले पाओ की पुरानी तर्ज पर हो रहा था। अधिकारियों को जून-जुलाई में केंद्र की नई मेजर मिनरल खनन नीति बनने की जानकारी मिली तो फाइलों के निस्तारण की गति तेज हो गई। नवंबर में नई नीति को लेकर केंद्र ने राज्य सरकार को ड्राफ्ट भेजा व सुझाव मांगे। इसमें खान आवंटन नीलामी के जरिए करने का प्रावधान होने से अधिकारियों ने आवंटन कार्य और तेज कर दिया। खानों की बंदरबाट होती रही और राज्यमंत्री राजकुमार रिणवा भी मूकदर्शक बने रहे। कई बड़ी सीमेंट खानों के आवंटन की फाइलों को तो रिणवा ने ही हरी झंडी दी। अब इन खानों के आवंटन की प्रक्रिया की राज्य सरकार जांच कराएगी या नहीं, विभाग में इतने बड़े घोटाले को रोकने के लिए उन्होंने क्या किया? क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी? इन सवालों पर रिणवा ने चुप्पी साध ली है।
-जयपुर से आर.के. बिन्नानी