17-Sep-2015 06:43 AM
1234868
सतना और रीवा जिले के दस्यु प्रभावित क्षेत्रों में पिछले दस साल से कुपोषण लगातार बढ़ता जा रहा है। आलम यह है कि राज्य सरकार द्वारा प्रदेशभर में चिन्हित किए गए कुपोषित बच्चों की संख्या

में सतना आज भी प्रदेश में अव्वल है। खासतौर पर सतना जिले का मझगवां ब्लॉक जहां के अधिकतर आदिवासी बच्चे कुपोषण का शिकार बने रहते हैं। मझगवां ब्लॉक के लगभग एक दर्जन गांव ऐसे हैं जहां हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। इसके पीछे आदिवासियों की अशिक्षा और पौष्टिक आहार की कमी मुख्य वजह मानी जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि दस्यु प्रभावित गांवों के लोग कहने लगे हैं कि उन्हें अब डकैतों से डर नहीं लगता, क्योंकि कम से कम वे हमारी बात तो सुनते हैं, लेकिन कुपोषण का डर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।
कुपोषण के खिलाफ जनजागरूकता फैलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आनंद कुमार कहते हैं कि दिसम्बर 2014 से अब तक पांच आदिवासी गावों के 13 बच्चों की कुपोषण के चलते मौत हो गई। इनमें बरहा भवान गांव के 3, काजपुर के 5,पड़ो गांव के 2, पुतरिहा गांवा का 1 तथा रामनगर के 2 बधो शामिल हैं। मरने वाले 13 बधाों में से 9 बालिका व 4 बालक शामिल हैं। आदिवासी गांवों में गर्भवती महिलाओं को समय पर टीका नहीं लगाए जाते और न ही आयरन की गोलियां दी जातीं हैं। लिहाजा इनके बच्चे जन्म लेते ही अतिकुपोषित हो जाते हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, एएनम व महिला व बाल विकास के अधिकारियों की घोर लापरवाही के चलते कुपोषित बच्चे एनआसी तक नहीं पहुंच पा रहे हैं।
जिले के 74 गांवों को कुपोषण प्रभावित मानते हुए कलेक्टर द्वारा ग्रामों को गोद लिया गया है। कलेक्टर संतोष मिश्र ने स्वयं मझगंवा विकासखण्ड के ग्राम हिरौंदी को गोद लेते हुए जिला प्रमुख अधिकारी, एसडीएम, सीईओ जनपद, बीएमओ, तहसीलदारों को भी एक-एक गांव गोद दिलाया। कलेक्टर ने कहा कि गोद लिए गए ग्रामों में संबंधित अधिकारी सुपोषण की गतिविधि के साथ ग्रामों के सर्वाग्रीण विकास की जिम्मेदारी भी उठायेंगे। खासतौर पर मझगवां ब्लॉक के सर्वाधिक कुपोषित गांवो में पाटन, पटनी, झरि ,नकैला, ताजी, कैलाशपुर,पडऱी, पालदेव, बरहटा, बिछियन, देवलहा समेत अन्य गांव शामिल हैं। ए सभी गांव आदिवासी बाहुल्य हैं, जहां के लोगों में शिक्षा, स्वास्थ्य, शुद्घ जल व पौष्टिक आहार की जानकारी का अभाव है। यहां मूलत: गोंड, वनवासी, मवासी,कोल तथा हरिजन समाज के लोग निवास करते हैं।
शासन की योजनाएं इन गांवो तक पहुंचती जरूर है, लेकिन पक्की सड़क के नाम पर घर के सामने से होते हुए आगे निकल जाती है। इन आदिवासियों के घर के भीतर की हालत देखने वाला कोई नहीं है। कुपोषित बच्चों को चिन्हित करने का काम आंगनबाड़ी तथा आशा कार्यकर्ताओं को सौंपा गया है। लेकिन संसाधन के अभाव में इनके द्वारा बच्चे चिन्हित नहीं किए जा रहे हैं। बल्कि बीमार होने पर जब बच्चा परिजनों के साथ अस्पताल पहुंचता है तो उसे एनआरसी में भर्ती कर दिया जाता है। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली प्रोत्साहन राशि लेने के लिए कार्यकर्ता अस्पताल जाकर रजिस्टर में अपना भी नाम लिखा देती हैं और राशि लेकर घर चली जाती है। सही मायने में इसका प्रमुख कारण गरीबी है, जिसकी वजह से गरीब तबके के लोग पौष्टिक भोजन ग्रहण नहीं कर पाते। इसका दूसरा कारण अशिक्षा और अज्ञानता है, जिसकी वजह से गरीब आदिवासी महिलाएं भोजन में संतुलन नहीं बना पाती और बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। विशेषज्ञ डॉ. अमित सिंह बताते हैं कि गर्भवती महिलाओं को ज्यादा पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है, लेकिन उन्हें पौष्टिक आहार नहीं मिल पाता। जिसकी वजह से महिलाएं खून की कमी और विभिन्न बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं। जिसका असर उनके पेट में पल रहे बच्चों पर पड़ता है और बच्चा कुपोषण का शिकार हो जाता है। जन्म के बाद 0 से 2 साल तक के बच्चों का खानपान सही न मिलने की वजह से बच्चे कुपोषित हो जाते हैं।
शिशुओं की मौत का जिम्मेदार कौन?
दस्यु प्रभावित क्षेत्र के बरौंधा प्राथामिक स्वास्थ्य केन्द्र में स्थाई रूप से मेडिकल ऑफिसर की नियुक्ति न होने की वजह से आसपास के गांवों से आने वाले मरीजों को इलाज की परेशानी से जूझना पड़ रहा है। इसके अलावा मॉनीटरिंग अधिकारियों की लापरवाही की वजह से प्रसव के दौरान भी शिशुओं की बड़ी संख्या में मौत का सिलसिला बदसतूर जारी है। हाल यह है कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन द्वारा मातृ एवं शिशु मृत्युदर को कम करने के लिए करोड़ो रुपयों का सालाना खर्च दिया जाता है। किन्तु सच तो यह है कि सारी योजनाएं सिर्फ कागजों पर आंकडों की बाजीगरी तक ही सीमित होकर रह गई हैं। आंकड़ों के अनुसार डॉक्टर और प्रसव कार्य में लगी नर्स की लापरवाही की वजह से अप्रैल 2014 से अगस्त 2015 के बीच प्रसव के दौरान कुल 18 शिशु की मौत हो चुकी हैं। इस संबंध में शिशुओं की मौत के बारे में प्राप्त आंकड़ों की बात करें तो, इनकी मौत का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण यहां की स्टॉफ नर्स व ड्यूटी डॉक्टर का समय से अस्पताल न पहुंचना माना जा रहा है।
-सिद्धार्थ पाण्डे