17-Sep-2015 06:26 AM
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तुर्की के समुद्र तट पर बहकर आए तीन वर्ष के अयलान कुर्दी के मृत शरीर के दुखद फोटोग्राफ ने यूरोपीय राष्ट्रों के समक्ष एक बहुत ही कठिन प्रश्न खड़ा किया है। सवाल यह है कि क्या संवेदना और

मानवीय आदर्श राष्ट्रीय नीति को निर्देशित कर सकते हैं? निराश प्रवासियों के कुछ यूरोपीय देशों, खासकर जर्मनी में घुसने की चेष्टा करते हुए समूह के दृश्यों को देखकर हो सकता है कि यह प्रश्न निरर्थक प्रतीत हो। क्या यह बड़े आश्चर्य की बात नहीं है कि पांच सम्पन्न खाड़ी देशों ने अब तक किसी एक सीरियाई को भी अपने देश में शरण नहीं दी है। जबकि सीरिया से चालीस लाख लोग पलायन कर गए हैं और इनमें से ज्यादातर मध्यपूर्व के शरणार्थी शिविरों में दिन गुजार रहे हैं। यह शिविर तुर्की, लेबनान, जॉर्डन, मिस्र और इराक में हैं जिन्हें आईएसआईएस से लगातार खतरा बना रहता है। करीब तीस हजार लोग अपनी जान जोखिम में डालकर यूरोप के देशों में शरण पाने के लिए पहुंच गए हैं लेकिन खाडी के पांच समृद्ध देशों, सऊदी अरब, यूएई, कतर, कुवैत और बहरीन ने एक भी सीरियाई शरणार्थी को अपने देशों में जगह नहीं दी है। इन देशों को भारत से सबक लेना चाहिए। भारत हमेशा से शरणार्थियों को शरण देता रहा है। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि तब क्या होता यदि पाकिस्तानी सेना के अत्याचार-उत्पीडऩ से बचने के लिए 1971 में पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में घुसने की कोशिश कर रहे शरणार्थियों को रोकने की कोशिश की गई होती। संकट के इस चरम समय में जिसमें पाकिस्तान का अंतत: बंटवारा हुआ था, भारत में तकरीबन एक करोड़ शरणार्थियों ने शरण ली थी। उस मानवीय संकट अथवा पाकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र द्वारा पंजीकृत 16 लाख अफगान शरणार्थियों की तुलना में वर्तमान शरणार्थी संकट महज एक शुरुआत है, जिसे अंतरराष्ट्रीय चिंता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। पश्चिम के देशों को चाहिए कि वे इस समस्या को सीरिया में चल रहे गृहयुद्ध के परिणाम के तौर पर देखें। सीरिया के घमंडी राष्ट्रपति असद से मुक्ति पाने के लिए पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों ने बाथ पार्टी के खिलाफ विपक्ष को खड़ा किया और उसे सहयोग-समर्थन दिया, लेकिन ऐसा करते समय इस पर विचार नहीं किया गया कि इससे सीमा पार के देशों में शरणार्थियों की समस्या गहरा सकती है।
इस समय जो हालात उभर आए हैं उसके केंद्र में इतिहास के दो घटनाक्रम हैं। पहला घटनाक्रम ईरान में हुई क्रांति था तो दूसरे का संबंध अमेरिका और पाकिस्तान समर्थित अफगानी अस्थिरता थी। इस अस्थिरता को 1980 में सोवियत संघ के अतिक्रमण को खत्म करने के लिए जन्म दिया गया था। इस संदर्भ में इराक की सद्दाम हुसैन की हुकूमत का मामला भी है जिसने अमेरिकी आक्रमण के कारण समस्या का एक और द्वार खोलने का काम किया। आज के दौर में आइएस ने बंदी बनाए गए कैदियों का सिर कलम करके उन्हें टीवी और अन्य माध्यमों पर प्रसारित कर और अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में पूर्व इस्लामिक सभ्यता वाले स्थानों को नष्ट कर दुनिया को डराने का काम किया है। मौजूदा विध्वंस आधुनिक समय में बर्बरता का सर्वाधिक खराब उदाहरण है जिसकी तुलना तालिबानों द्वारा अफगानिस्तान में बरपाए गए कहर से की जा सकती है।
बर्बरता की इन घटनाओं ने पश्चिम के देशों में रह रहे मुस्लिम युवाओं में एक अलग भाव पैदा किया है। इराक और सीरिया में चल रहे गृहयुद्ध के चलते तकरीबन 45 लाख लोग प्रभावित हुए हैं और आज वे शरणार्थी के रूप में गुजर-बसर करने को विवश हैं। इनमें से ज्यादातर लोग (17 लाख) तुर्की के कैंपों में रह रहे हैं। इसके अतिरिक्त लेबनान में 12 लाख, जॉर्डन में 7 लाख, इराक में 2 लाख और मिस्र में एक लाख लोग शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। यहां रह रहे अल्पसंख्यकों का एक छोटा समूह अब निराश हो चुका है और वह मानव तस्करों के माध्यम से यूरोप पहुंचने की उम्मीद कर रहा है। लोग वहां मानवीय आधार पर अस्थायी तौर पर रहने की जुगत लगाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएचसीआर के आंकड़ों के मुताबिक सीरिया में करीब छह प्रतिशत लोगों ने आइएस के संभावित खतरे को देखते हुए यूरोपीय देशों में आश्रय पाने के लिए आवेदन किया है। यह संख्या क्षेत्रीय विषमता को बढ़ा सकती है। सीरिया में रह रहे तकरीबन एक लाख लोग जर्मनी में आश्रय चाहते हैं। इनमें से 65,000 लोगों की पसंद स्वीडन है और 50,000 लोग सर्बिया और कोसोवो में रहने के इच्छुक हैं। लेकिन इससे पूरी कहानी साफ नहीं होती। इसके समानांतर ही उत्तरी अफ्रीका में संकट है जहां दसियों हजार की संख्या में लीबिया के नागरिक इटली और ग्रीस में अवैध रूप से घुसने का प्रयास कर रहे हैं। एक संगठित रैकेट के माध्यम से अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों में रह रहे नागरिक ब्रिटेन में घुसने की कोशिश कर रहे हैं। समूचे यूरोपीय संघ के लिए इस स्थिति को नियंत्रित कर पाना मुश्किल हो रहा है। इसमें सबसे बड़ी समस्या महाद्वीपीय यूरोप की आंतरिक सीमाएं हैं। बहुत शीघ्र पश्चिम के यूरोपीय देश वैसी स्थिति से रूबरू हो सकते हैं जिस स्थिति का सामना भारत 1971 में कर चुका है। इस संदर्भ में पहली जरूरी बात यह है कि प्रभावित क्षेत्रों में आंतरिक सामंजस्य कायम हो ताकि शरणार्थी भविष्य में अपने घरों को वापस लौट सकें। एक अन्य विकल्प यह है कि 1971 में भारत की तरह बल प्रयोग करके एक ऐसी सत्ता कायम की जाए जो आइएस से लड़ाई लडऩे के साथ ही क्षेत्र में कानून-व्यवस्था कायम करे और स्थिरता लाए। वर्तमान में जो स्थिति है उसमें इन दोनों ही विकल्पों पर काम नहीं किया जा सकता और यही कारण है कि यूरोपीय संघ कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है। असद सरकार द्वारा आइएस के खिलाफ किया जा रहा आंतरिक घरेलू प्रतिरोध कमजोर है और पश्चिमी देशों में बाथ हुकूमत को लेकर न तो सैन्य स्तर पर और न ही राजनीतिक रूप से कोई रुचि है। मध्य पूर्व के खाडी देशों में बने शरणार्थी शिविरों में सीरियाई शरणार्थी बड़ी संख्या में रह रहे हैं लेकिन अब ये लोग बड़ी संख्या में यूरोपीय देशों की ओर कूच कर रहे हैं। जो शरणार्थी नया घर तलाशने के लिए यूरोपीय देशों में जाना चाहते हैं वे लीबिया और तुर्की से होते हुए जर्मनी पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं। जर्मनी और ऑस्ट्रिया जैसे देशों में पहुंचने के लिए मध्यपूर्व से हजारों मील की यात्रा करते हुए भूमध्यसागर और मध्य यूरोप से होकर जर्मनी और ऑस्ट्रिया में जमा हो रहे हैं। काफी बड़ी संख्या में ऐसे लोग नावों, ट्रेनों और ट्रकों पर सवार होकर चोरी छिपे चैनल को पार करके ब्रिटेन में पहुंचना चाहते हैं। इसी वर्ष समुद्र के जरिए नावों पर सवारी करते हुए तीन हजार से ज्यादा लोग यूरोप पहुंचने की कोशिश करते हुए मारे जा चुके हैं। लेकिन इसके बाद सैकड़ों की संख्या में लोग अपने परिवार, बच्चों के साथ एक रात में किसी किसी यूरोपीय देश में शरण पाने का प्रयास करते हैं।
यूरोप के रवैए में आए परिवर्तन के चलते इस वर्ष 313,000 लोग यूरोपीय देशों में पहुंचने में सफल हुए हैं। लेकिन इनमें से किसी को भी अपेक्षाकृत करीब खाड़ी देशों में प्रवेश नहीं करने दिया गया जोकि दुनिया में बहुत सम्पन्न हैं। अरब देशों के विशेषज्ञ सुल्तान सउद अल-कासमी का कहना है कि खाड़ी देशों को महसूस करना चाहिए कि वे सीरिया संकट से उपजे शरणार्थिंयों को अपने देशों में पनाह दें। इन देशों में से किसी ने भी 1951 की शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है। खाडी देशों का कहना है कि वे सीरियाई शरणार्थियों को नहीं रख सकते हैं क्योंकि इनमें उग्रवादी भी शामिल हो सकते हैं जोकि उनके नागरिकों के लिए खतरा बन सकते हैं। हालांकि इन देशों ने शरणार्थी शिविरों के लिए फंड, फूड और शेल्टर और कपड़े आदि उपलब्ध कराए हैं लेकिन किसी को भी अपने देश में आने नहीं दिया है। उनकी तुलना में ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और स्वीडन जैसे देशों ने सीरियाई विस्थापितों की मदद करने के साथ उनको अपने देश में शरण देने के भी उपाय किए हैं। शरणार्थी संकट में अब तक यूरोपीय संघ का रवैया एकजुटता और वैर का मिला जुला रूप रहा है। यूरोप को बेहतर होने की जरूरत है। ग्रैहम लूकस का कहना है कि आने वाले हफ्तों में उसका रुख उसका भविष्य तय करेगा। पिछले पचास साल का इतिहास दिखाता है कि यूरोपीय संघ संकट के समय में सही प्रतिक्रिया नहीं दिखाता है। राजनीतिक फैसले की प्रक्रिया धीमी और कठिन है। जहां संभव हो मुश्किल फैसले टाल दिए जाते हैं। बहुत से यूरोपीय अब महसूस करने लगे हैं कि यूरोप तभी फैसले लेता है जब और कोई चारा नहीं रह जाता।
इस समय यूरोप द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़ा शरणार्थी संकट का सामना कर रहा है। शरणार्थियों के लिए यूरोप में दाखिल होने की बाधाएं अत्यंत कठिन और अक्सर जानलेवा हैं। हमें स्वीकार करना होगा कि सीरिया, इराक और दूसरे देशों के शरणार्थियों को मानव तस्करों के अपराधी गैंग यूरोप भेज रहे हैं। इस प्रक्रिया ने बहुत से लोगों को भारी तकलीफ दी है और हजारों जानें ली हैं। जर्मनी अपनी ओर से ऐसी उदारता है जिसका यूरोप में कोई सानी नहीं है। इस साल यहां 8 लाख से 10 लाख शरणार्थी आएंगे। दूसरी ओर पोलैंड और हंगरी जैसे दूसरे यूरोपीय देश या तो मदद करने से इंकार कर रहे हैं या उनकी दिलचस्पी शरणार्थियों को दूसरे देशों में भेजने में है। ग्रीस और इटली जैसे देश इतनी बड़ी संख्या में आ रहे शरणार्थियों से निबटने की हालत में नहीं हैं। ब्रिटेन के हृदय में परिवर्तन दिख रहा है, लेकिन काफी देर से। बड़ी समस्या यह है कि असली शरणार्थियों में बाल्कान से आने वाले ऐसे शरणार्थी भी शामिल हो रहे हैं जो बेहतर जिंदगी चाहते हैं। इसका मतलब है कि सच्चाई की घड़ी आ गई है। यूरोप को घटती आबादी का मुकाबला करने के लिए आप्रवासन नीति बनाने की जरूरत है। लेकिन उसकी शरणार्थी नीति भी ऐसी होनी चाहिए जो बोझ डाले बिना जिम्मेदारियों को पूरा करने की संभावना दे। यूरोपीय संघ के नेताओं को अब एकजुटता और भरोसे की भावना में फैसला करना होगा कि हमें किस तरह के आप्रवासन की जरूरत है और शरणार्थियों के बोझ को किस तरह आपस में बांटा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था के प्रमुख अंटोनियो गुटेरेस ने इसे यूरोपीय संघ के
लिए निर्णायक घड़ी बताया है। वे एकदम ठीक कह रहे हैं।
तुर्की पर सीरिया के शरणार्थियों का बड़ा बोझ
सीरिया में गृहयुद्ध के चलते ज्यादातर लोग सीमा पार कर पड़ोसी देश तुर्की में शरण लेते हैं। अब वे भले ही यूरोपीय देशों में आ रहे हों लेकिन पिछले पांच साल में सीरिया से भागे 40 लाख लोगों में से लगभग आधे तुर्की में हैं। तुर्की शरणार्थियों की सबसे ज्यादा तादाद वाला देश बन गया है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 82 शहरों में सीरिया से आए 19,05,984 शरणार्थी पंजीकृत हैं। 10 शहरों में 25 शरणार्थी कैंप लगाए गए हैं। इनमें रहने वालों की संख्या ढ़ाई लाख से ज्यादा है। यानि बाकी के साढ़े 16 लाख सीरियाई शरणार्थी कैंपों के बाहर रहने पर मजबूर हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि यह संख्या अभी और बढ़ेगी और 2015 के अंत तक देश में 25 लाख से ज्यादा सीरियाई शरणार्थी होंगे। तुर्की इन पर अब तक छह अरब डॉलर खर्च चुका है। देश की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए भविष्य में शरणार्थियों से निपटना मुश्किल हो सकता है। सबसे बड़ी चुनौती है शरणार्थियों के बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की।
-विकास दुबे