नारी: आदिशक्ति या कमोडीटी
16-Sep-2015 02:30 PM 1234885

पूरे विश्व के नारियों  में एक होड़ सी मची है-अधिक-से अधिक सुन्दर और आधुनिक दीखने का। भारत में यह चूहादौड़ 15 वर्ष पहले ना के बराबर थी, लेकिन बढ़ते उपभोक्तावाद ने अपने देश में भी इस रेस को ऐसी गति दी है कि अब यह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। फैशन और आधुनिकता के पीछे भागती महिलाओं को यह एहसास ही नही हो रहा है कि वे इस दौड़ में बिना सोचे समझे भाग लेकर अपना, नारी जाति, अगली पीढ़ी और संपूर्ण मानवता का कितना बड़ा अहित कर रही हैं।
सृष्टि द्वारा सृजित हर तरह के प्राणियों में मादा प्राणी स्वयं में पूर्ण आकर्षण रखता है। मादा को रिझाने के लिए नर प्राणी हर तरह का उपक्रम करता है। नर प्राणी या तो स्वयं शृंगार करके मादा को रिझाने का प्रयास करता है या मीठी ध्वनि निकालकर अपनी ओर आकर्षित करता है। कोयल की जिस सुरीली तान पर असंख्य कविताएं लिखी जा चुकी हैं, वह सुरीली ध्वनि नर कोयल ही निकालता है। मादा चुप ही रहती है। नर मयूर ही अपने सतरंगे पंख फैलाकर नृत्य करता है, मादा चुपचाप देखती है। मादा मोर के पंख भी सतरंगे नहीं होते हैं। मादा मुर्गी के सिर पर कोई कलंगी नहीं होती जबकि नर मुर्गे के सिर पर सुन्दर-सी कलंगी होती है। प्राकृतिक रूप से मादा को रिझाने के लिए पुरुह के शृंगार की ही परंपरा रही है। नारी का नारी होना ही अपने आप में पूर्ण है। कुकुरमुत्ते की तरह गांव से लेकर महानगरों में उग आये ब्यूटी पार्लरों के अस्तित्व में आने के पहले भी नारियां सुन्दर हुआ करती थीं। शृंगार रस की श्रेष्ठ कविताएं उस युग की ही हैं जब नारियां ब्यूटी पार्लर का नाम भी नहीं जानती थीं। समाज के समस्त स्त्रियों का विवाह भी हो जाता था। लेकिन तब न कोई विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता हुआ करती थी और न कोई स्त्री कण्डोम बेचा करती थी। आज विश्व में सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार इतना बड़ा हो गया है कि प्रोक्टर और गैम्बुल जैसी कंपनियां दवा बनाना छोड़ कौस्मेटिक के बाज़ार में उतर आई हैं। सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार स्टील और इलेक्ट्रानिक उत्पादों के बाजारों से प्रतियोगिता कर रहा है। इस समय विश्व में प्रति वर्ष 170 बिलियन अमेरिकी डालर के मूल्य के सौन्दर्य प्रसाधनों की खपत है। स्कूल-कालेज जानेवाली लड़कियां भी घर से निकलने के पहले फुल मेकप करने लगी हैं। पहले वही स्त्रियां अपने को सुन्दर दिखाने के लिए सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग करती थीं जिनके लिए सौन्दर्य एक बिकाऊ वस्तु था और उनकी आजीविका का साधन था। पश्चिम में नारी स्वातन्त्र्य आन्दोलन के बाद उभरती हुई नारी शक्ति से भयभीत पुरुष समाज ने आधुनिकता के नाम पर स्त्रियों के दोहन की सुविचारित योजनाएं बनाई। सौन्दर्य प्रतियोगिताएं और विज्ञापनों में नारी देह का प्रदर्शन इन योजनाओं में प्रमुख हैं। पुरुषों द्वारा बिछाए गए जाल में पूरे विश्व की औरतें फंसती गईं और अब हालत यह है कि इस दलदल से बाहर निकलना असंभव-सा दिख रहा है।
पुरुषों की मानसिकता की समझ के बिना कोई नारी मुक्ति आन्दोलन सफल नहीं हो सकता। संसद या न्यायालयों में ऊंची-ऊंची बात करनेवाला पुरुष समाज औरतों को मूल रूप में एक कमोडीटी ही मानता है। यही कारण है कि पुरुष हर विज्ञापन में अल्प वस्त्रों वाली कमसीन लड़की या महिला को ही देखना पसन्द करता है। अब तो हद ही हो गई है। खेल में भी सौन्दर्य का धंधा जोर पकड़ रहा है। क्रिस गेल का छक्का बाउन्ड्री पार क्या करता है कि आयातित चीयर गल्र्स का डान्स शुरु हो जाता है। दर्शक रिप्ले का इन्तज़ार करता है कि करीना विज्ञापन लेकर हाजिऱ हो जाती है। हाकी मैचों में भी यही तमाशा है। वह दिन भी दूर नहीं, जब संसद और सरकारी दफ़्तरों में भी चीयर गल्र्स नियुक्त करने के लिए कानून बन जाएगा। पता नहीं औरतों में जागरण कब आएगा जब वे अपनी विशेष देहयष्टि और कृत्रिम सौन्दर्य का सहारा लिए बिना स्वाभिमान के साथ अपनी प्रतिभा के बल पर पूरे विश्व पटल पर मैडम क्यूरी की तरह अपनी पहचान बना पायेंगी।
-शैलेश शुक्ला

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