04-Sep-2015 06:41 AM
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गुजारा भत्ता शुचिता भत्ता नहीं हो सकता
मद्रास हाईकोर्ट ने एक निर्णय दिया है। जिसमें कहा गया है कि तलाक लेने की प्रक्रिया के दौरान शारीरिक संबंध बनाने वाली स्त्री को गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता। यह निर्णय महिलाओं की दृष्टि से चिंतनीय होने के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से भी खतरनाक और भ्रम पैदा करने वाला है। इस निर्णय से कहीं न कहीं यह प्रतीत हो रहा है कि तलाक लेने की प्रक्रिया के दौरान तलाकशुदा पत्नी को मिलने वाला गुजारा भत्ता यौन शुचिता सुनिश्चित करने के लिए दी जाने वाली राशि है। जो एक स्त्री को इसलिए प्रदान की जा रही है कि वह अपनी बहुमूल्य देह को सुरक्षित रखे। यह फैसला कई सवाल खड़े करता है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि गुजारा भत्ता पाने वाली स्त्री अपनी पवित्रता बनाए रखे लेकिन गुजारा भत्ता देने वाला पुरुष व्याभिचार, पर स्त्री गमन से लेकर पुनर्विवाह तक अपनी देह की भूख के लिए जो भी संभव रास्ता है उस रास्ते को अपना ले-तो क्या इसे न्याय कहा जाएगा? यह न्याय तो स्त्री को बांधता है और पुरुष को मुक्त करता है। बहुधा वैवाहिक संबंधों के टूटने में यौन संतुष्टि भी एक कारण हो सकता है। बहुत सी स्त्रियां शारीरिक सुख न मिलने के कारण विवाह विच्छेद करती है। शारीरिक सुख पर केवल पुरुष का ही हक नहीं हैं। स्त्री को भी बराबरी से चाहिए क्योंकि वह उसकी नैसर्गिक आवश्यकता है। लेकिन कोर्ट का यह निर्णय प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि इस तरह के फैसलों में कई बार वर्षों लग जाते हैं तब जाकर गुजारा भत्ता मिलता है। ऐसे में एक स्त्री शारीरिक सुख के लिए किसी पुरुष से संबंध बनाए तो इसे अपराध कैसे कहा जा सकता है। वैवाहिक संबंधों में तनाव झेलती और हर पल मरती स्त्री अपनी भावनात्मक आवश्यकताओं के लिए किसी अन्य पुरुष का संबल तलाशती है तो इसमें गलत क्या है। कब तक वह गुजारा भत्ता की आस में अपनी नैसर्गिक जरूरतों का दमन करती रहेगी। यह निर्णय एकतरफा है। यह पुरुष को हर तरह की अनैतिकता करने की छूट देता है। लेकिन स्त्री को बांधता है। यह एकतरफा बंधन क्यों। यदि यौन शुचिता अनिवार्य है तो फिर पुरुष को भी यह दायित्व निभाना चाहिए।
इस फैसले का गलत उपयोग भी हो सकता है। गुजारा भत्ता से बचने वाले पुरुष इस फैसले की नजीर देकर महिला को व्याभिचारिणी सिद्ध करते हुए अदालत में महिला को चरित्रहीन घोषित करने का प्रपंच भी रच सकते हैं। आमतौर पर कानूनी मामलों में स्त्री को चरित्रहीन और अपवित्र घोषित करने की कोशिश की जाती है। लेकिन स्त्री किसी भी परिस्थिति में मजबूरीवश ही फंसती है। ये परिस्थितियां अक्सर पुरुषों द्वारा पैदा की जाती हैं। तलाक जैसी सामाजिक समस्या के पीछे भी पुरुष प्रधान मनोवृत्ति का योगदान है। बहुधा पुरुष स्त्री की सामाजिकता और उसके वैचारिक उन्मुखीकरण को लेकर शंकित तथा अचंभित रहता है। वह स्त्री को अपने तक ही समेटना चाहता है। उसकी स्वतंत्रता को हर प्रकार से रोकने की कोशिश करता है, उसे चारदीवारी में कैद करना चाहता है। यदि वह दहलीज लांघती है तो उसका चरित्र हनन किया जाता है। इसी कारण जागरुक स्त्रियाँ जब हालात सुधार नहीं पाती तो मामले तलाक की दहलीज तक पहुँचते हैं। समाज में ठेकेदार टाइप लोग अक्सर इन बुराईयों के लिए स्त्रियों को ही दोषी ठहराते हैं। उनका यह तर्क रहता है कि स्त्री पढ़ी-लिखी है, स्वतंत्रत विचारों की है, घर से बाहर निकलकर घूमना-फिरना चाहती है, इसलिए वह वैवाहिक रिश्ते से छुटकारा पाने की कोशिश कर रही है। स्त्री द्वारा अपने वजूद को बनाने की कोशिश और अपने पैरों पर खड़े होने की महत्वकांक्षा इस समाज में शंका की दृष्टि से देखी जाती है। स्त्री अपना निर्णय स्वयं ले ये पुरुषों को बर्दाश्त नहीं होता। वे स्त्री के जीवन के हर निर्णय को प्रभावित करना चाहते हैं। कोख स्त्री की है लेकिन बच्चा उसमें कब आयेगा यह तय पुरुष ही करता है। असहनीय प्रसव वेदना स्त्री को झेलनी पड़ती है लेकिन बच्चों की संख्या कितनी होगी यह तय पुरुष द्वारा ही किया जाता है। बहुत सी स्त्रियों को तो इस लिए प्रताडऩा सहनी पड़ती है क्योंकि वे एक पुरुष (नर) को जन्म नहीं दे पातीं। जबकि सच तो यह है कि गर्भ में लड़का होगा या लड़की यह पुरुष पर निर्भर है स्त्री पर नहीं लेकिन अपमान और पीड़ा स्त्री ही सहती है। इन सब हालातों से बाहर निकलने के लिए छटपटाती स्त्री यदि मुक्ति का मार्ग तलाशती है तो इसमें उसकी यौन शुचिता की जरूरत क्यों है। क्यों यह समाज और देश की न्याय पालिका स्त्री की पवित्रता को ही अनिवार्य मानती है। गुजारा भत्ता पाने के लिए एक स्त्री को ही क्यों उसकी पवित्रता के दायरे में बांध दिया जाता है। यह बड़ा प्रश्न है। आर्थिक रूप से पूरी तरह पुरुष पर आश्रित स्त्री को गुजारा भत्ता देने की सिफारिश कानून द्वारा इस लिए की जाती है, क्योंकि वह एक पुरुष के प्रति समर्पित रहकर अपनी आर्थिक हैसियत और अपनी क्षमता को करीब करीब नष्ट कर चुकी होती है। एक वैवाहिक रिश्ते में बंधी स्त्री यदि केवल घरेलू महिला है तो उसके हांथ में कुछ भी नहीं रहता ना कोई सम्पत्ति रहती है ना कोई आर्थिक जरिया जिसके बल पर वो जी सके। इसी लिए गुजारा भत्ता अनिवार्य कर दिया गया है। अब न्यायालय ने यह नई शर्त रखी है इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। न्यायालय को इस निर्णय पर पुर्नविचार करना चाहिए।
-शैलेश शुक्ला