16-Sep-2015 02:10 PM
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नेपोलियन जब सेना लेकर विजयी अभियान पर होता था तो उसकी सत्ता चाल्र्स मौरिस के हाथों में रहती थी। मौरिस पर्दे के पीछे रहा और उसके लिए एक हास्यास्पद पोर्टपोलियो भी ईजाद किया

गया था, जिसका उन दिनों कोई महत्व नहीं था। किंतु नरेन्द्र मोदी के चाल्र्स मौरिस अरुण जेटली के साथ ऐसा नहीं है। जेटली के पास एक महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो भी है और सत्ता की कुंजी भी। रफतार से विदेश यात्राएं कर रहे नरेन्द्र मोदी की सत्ता में कोई इतना ताकतवर बन बैठेगा इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। क्योंकि मोदी आत्मकेन्द्रित राजनीतिज्ञ हैं। वे अपने ज्यादा निकट किसी को नहीं आने देते। ज्यादा समय तक उनका पसंदीदा बना रहना भी मुमकिन नहीं है। गुजरात में मोदी ने अपने कार्यकाल में अनेक से रिश्ता बनाया और समय के साथ मोदी की गुडलिस्ट से वे चेहरे गायब होते रहे। अरुण जेटली के साथ ऐसा नहीं है। जेटली बेहद इंटेलिजेंट और काबिल राजनेता हैं जो भली भांति जानते हैं कि नेपोलियनÓ की जरूरतें क्या हैं। वे ये भी समझते हैं कि नेपोलियन कहां सशक्त और कहां लाचार है, इसलिए नेपोलियन के मुखारविंद से भले ही आश्वासनों की बरसात होती रहे लेकिन जेटली को ज्ञात है कि परिणाम तो ठोस कामों से ही मिलेगा इसीलिए सरकार के सारे महत्वपूर्ण फैसलों में जेटली की झलक दिखाई देने लगी है।
ताजा उदाहरण जीएसटी जैसे विधेयकों को अंजाम तक पहुँचाने के लिए विशेष मानसून सत्र का प्रस्ताव है, जिसे जेटली हर हाल में बुलाना चाहते हैं ताकि सरकार परेशानियों की वैतरणी से पार हो सके। लेकिन इस आधार पर जो लोग ये कहते हैं कि जेटली नम्बर 2 हैं वे गलत आंकलन कर रहे हैं। दरअसल जेटली नम्बर 1 ही हैं और उन्हें इस पदवी से कोई नहीं डिगा सकता। पिछले एक दशक से वे स्थिर हैं। जब आडवाणी पार्टी के केन्द्र में हुआ करते थे उस वक्त भी जेटली का ही मस्तिष्क सक्रिय था और आज मोदी को भाजपा का पर्याय बनाने के बाद जेटली का माफियोदो ब्रेनÓ सभी महत्वपूर्ण योजनाओं के पीछे है। मोदी के मंत्रिमण्डल में जब जेटली को रक्षा और वित्त जैसे दो महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गये थे उसी समय यह तय हो गया था कि मोदी के शासन में जेटली का महत्वपूर्ण योगदान रहेगा। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि मनोहर पार्रिकर को गोवा से बुलाने वाले जेटली ही थे। मोदी पार्रिकर द्वारा गोवा बैठक में की गई पैरवी का पुरस्कार पर्रिकर को देना चाहते थे और जेटली ने ही उन्हें बताया कि देश के रक्षा मंत्री के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। केवल इतना ही नहीं सरकारी कामकाज में भी जेटली की झलक दिखाई पड़ती है। संसद से लेकर सरकारी कार्यालयों तक सभी लोगों की समय की पाबंदी जेटली ने ही सुनिश्चित की थी। कुछ नौकरशाहों को यह नागवार गुजरा तो उनकी नकेल कसने के लिए मोदी ने जेटली को ही तैनात किया। मोदी और जेटली में एक खासियत ये भी है कि दोनों सत्ता के केन्द्र में बने रहना जानते हैं। मोदी जेटली से एक कदम आगे इसलिए हैं कि वे मास लीडर हैं। जबकि जेटली अमृतसर से चुनाव हार चुके हैं और उनके कॅरियर में एक भी जीत दर्ज नहीं है। किंतु योग्यता और तथ्यों पर पकड़ के मामलें में जेटली मोदी से मीलों आगे हैं। यही खूबी उन्हें अब सत्ता का केन्द्र बना चुकी है।
जेटली को नजर अंदाज करके केन्द्र की सत्ता में टिके रहना असंभव है। वित्त मंत्री के रूप में जेटली का चयन करके नरेन्द्र मोदी ने बाकी मंत्रिमण्डल की जिम्मेदारी एक तरह से जेटली को ही सौंपी थी। जेटली संघ और मोदी के बीच समन्वय में भी माहिर रहे हैं। काबिल वकील तथा अंग्रेजी ज्ञाता जेटली ने संघ नेताओं की मंशा भांपते हुए ही मोदी को भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कदम पीछे खींचने के लिए राजी कर लिया था। कभी अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमण्डल में अटल-आडवाणी-जोशी की त्रिवेणी की चर्चा हुआ करती थी लेकिन ललित मोदी प्रकरण के बाद सुषमा स्वराज के पीछे सरकार भले ही खड़ी रही किंतु सुषमा उतनी ताकतवर नहीं रहीं। इसी दौरान अरुण जेटली ने विभिन्न मुद्दों पर अलग-थलग पड़े नरेन्द्र मोदी को उचित सलाह देकर कई मूसिबतों से उबार लिया। विपक्ष के हमलों के बावजूद अहम मुद्दों पर नरेन्द्र मोदी की खमोशी जेटली की ही देन थी। इस बहाने उन्होंने विपक्ष को यह स्पष्ट संदेश दिया कि प्रधानमंत्री दूसरे मंत्रियों पर विपक्ष द्वारा लगाये जा रहे व्यक्तिगत किंतु असंगत आरोपों पर जवाबदेह नहीं है। मोदी की चुप्पी की आलोचना भले ही की गई हो। लेकिन विपक्ष को यह संदेश मिल गया कि संसद ही बहस का उपयुक्त स्थान है।
लेकिन संसदीय राजनीति ही नहीं दलगत राजनीति में भी जेटली ने बाकी सब को पीछे छोड़ रखा है। संगठन पर उनकी अहम पकड़ है। कई भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री दिल्ली पहुँचने पर जेटली से अवश्य मिलते हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे की डूबती नैया को जेटली ने ही ठिकाने लगवाया। लेकिन जेटली गैर पारंपरिक राजनीति में भी महारथी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली पराजय से काफी पहले ही उन्होंने गैर पारंपरिक राजनीति की शैली ईजाद कर ली थी। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण निर्मला सीतारमन को एक ऐसा प्रभार सौंपना था जिसके बारे में वे क, ख, ग भी नहीं जानती थीं। लेकिन सीतारमन की आक्रमकता और कार्यशैली जेटली को प्रारंभ से ही पंसद थी। धर्मेन्द्र प्रधान को भी वे कुछ मौकों पर आजमा चुके थे। पीयूष गोयल तो उनके खासमखास थे ही। जहां तक मोदी का प्रश्न है मोदी को यह पता है कि जब-जब उन्होंने जेटली की सलाह का अनादर किया उन्हें घाटा ही हुआ है इसलिए मोदी जेटली का महत्व कम नहीं करना चाहते। योजना आयोग को जब नीति आयोग में तबदील किया गया उस वक्त नरेन्द्र मोदी को उस आयोग के मुखिया के रूप में एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो काबिल होने के साथ साथ संघ का प्रिय भी हो। अरविंद पानगढिय़ा की नियुक्ति में जेटली की अहम भूमिका थी। कॉलेजियम प्रणाली को लेकर सरकार की दुविधा दूर करने वाले जेटली ही हैं। उद्योग जगत, अर्थव्यवस्था से लेकर कानून तक हर जगह जेटली की दखलअंदाजी देखी जा सकती है। संघ के निकटस्थ सूत्रों का कहना है कि वाजपेयी सरकार के समय से ही जेटली को संघ पंसद नहीं करता है लेकिन अब जेटली के कुछ फैसले संघ को भी अच्छे लगे, खासकर जीएसटी और भूमिअधिग्रहण विधेयक पर संघ के रुख के अनुरूप काम करके जेटली ने अपने नम्बर बढ़वा लिये हैं। यही कारण है कि संघ-भाजपा की समन्वय बैठक के बाद मोहन भागवत को कहना पड़ा कि सरकार ठीक से काम कर रही है लिहाजा सरकार को किसी सलाह की आवश्यकता नहीं है। जाहिर है इससे जेटली को संबल मिला हालांकि एक पुराने जनसंघी और ख्यातिनाम वकील रामजेठमलानी को मोदी के कार्यों पर जेटली की साया सख्त नपंसद है। जेठमलानी तो जेटली की कारगुजारियों पर मोदी को एक बड़ा पत्र भी लिख चुके हैं किंतु मोदी पर इसका फिलहाल कोई असर नहीं हुआ।
जेटली की कुछ कमियां भी हैं। वे कानून के ज्ञाता अवश्य हैं लेकिन मनमोहन सिंह के मुकाबले कमजोर अर्थशास्त्री हैं। इसका कारण यह है कि पेट्रोल की लगातार नीचे जाती कीमतों के बावजूद जेटली महंगाई को नियंत्रण में नहीं रख सके। रुपये की कीमत भी लगातार बढ़ती रही। 2015 की शुरूआत में जब नरेन्द मोदी ने मनमोहन से मुलाकात की थी उस वक्त मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कुछ सुझाव दिये थे जिन पर अमल फिलहाल नहीं हो पाया है। विकास दर में चीन से आगे निकलने की कोशिश में लगा भारत उचित आर्थिक सुधारों के बगैर आगे कैसे बढ़ेगा कहना मुश्किल है। पिछले पाँच वर्षों में 50 हजार व्यवसाइयों ने भारत छोड़कर दूसरे देशों में अपने काम धंधे डाल लिये यह भी चिंता का विषय है। इसलिए जेटली सत्ता और संगठन के बीच सेतु का कार्य भले ही कर रहे हों पर अपने खुद के मंत्रालय में कमाल दिखाने में फिलहाल सफल नहीं हैं।
शाह को कमान किसने दी
अक्सर यह कहा जाता है कि अमित शाह मोदी के प्रिय हैं इसलिए उन्हें भाजपा का अध्यक्ष बनने का अवसर मिला। कुछ हद तक यह सच भी है। खासकर उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनावी नतीजों ने शाह का कद भाजपा में अचानक बहुत ऊंचा कर दिया था। लेकिन इस निष्कर्ष का एक दूसरा पहलू यह है कि शाह को बढ़ावा देकर अरुण जेटली ने राजनाथ सिंह को मोदी मंत्रिमण्डल में गृह मंत्री का पद लेने में विवश कर दिया। राजनाथ सिंह अनिच्छुक थे वे अध्यक्ष पद से संतुष्ट थे लेकिन जेटली को यह लग रहा था कि राजनाथ को डिक्टेट करना आसान नहीं होगा। राजनाथ संघ की पंसद के थे लेकिन जेटली ने संघ को कुछ इस तरह संदेश भिजवाया कि राजनाथ मंत्री बनना चाहते हैं इस तरह संघ शाह को स्वीकार करने के लिए राजी हो गया बीच में एक समय ऐसा भी आया था जब संघ ने अमित शाह का यह कहते हुए विरोध किया था कि वे नौसिखिये हैं। दरअसल दिल्ली चुनाव की हार के बाद पर्दे के पीदे काम करने वाले जेटली और शाह दोनों को बहुत कुछ सुनने को मिला इसीलिए बिहार चुनाव में जेटली ने संघ को फ्रीहैंड दिलवा दिया। पर दिल्ली में जेटली की सक्रियता बनी हुई है। दिल्ली के सारे नेताओं को हासिये पर धकेल दिया गया है। विजय गोयल तो आडवाणी की पैरवी कर पहले ही दौड़ से बाहर हो चुके थे, अब बाकी नेता भी उतने सक्रिय नहीं हैं, इस निष्क्रियता का खामियाजा भाजपा ने दिल्ली में भुगता है। चाहे वह नजीब जंग को बनाये रखने का निर्णय हो या फिर पुलिस कमिश्नर को न बदलने का फैसला। यह सब जेटली के इशारे पर किया गया। आज भी दिल्ली में भाजपा उबर नहीं पाई है, इसका श्रेय जेटली को ही जाता है। जिस तरह हर्षवर्धन को किनारे किया गया है वह आने वाले दिनों में और घातक हो सकता है। जेटली की और भी कुछ कमियां हैं चाहे वह रविशंकर प्रसाद जैसे काबिल वकील से विधि मंत्रालय छीनना हो या फिर मोदी का पोलिटकल संवाद कम होना ये सब कुयश उन्हीं के खाते में दर्ज हो रहे हैं। नेपोलियन तो मौरिस की छाया से देर-सबेर निकल ही गये थे लेकिन मोदी को जेटली के शिकंजे में लंबे समय तक रहना भारी पड़ सकता है।
-दिल्ली से रेणु आगाल