राहुल पर सोनिया को भरोसा नहीं!
16-Sep-2015 01:55 PM 1234860

सोनिया गांधी! कांग्रेस की दुर्धश योद्धाÓ अकेली महारथी! जो पिछले 17 वर्ष से भारतीय राजनीति के रणक्षेत्र में देश की सबसे बड़ी पार्टी की मुखिया बनकर डटी हुई हैं। इस दौरान भाजपा ने आधा दर्जन अध्यक्षों को पदासीन किया, लैफ्ट पार्टियों ने पोलित ब्यूरो में कई बदलाव किए, लेकिन कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी अडिग रहीं, वे अविचल खड़ी रहीं। उन्हें डिगाता भी कौन? पिछले 17 वर्ष में एक भी नेता तैयार नहीं कर सकी कांग्रेस। वही घिसे-पिटे चेहरे और युवा के नाम पर एक अनिच्छुक राजनीतिज्ञÓ राहुल गांधी। सफीने की दौलत नखुदाओं में बंटे भी तो कैसे? कोई रहनुमा ही नहीं है दौलत को महफूज रखने के लिए। इसलिए कांग्रेस की बागडोर बार-बार एक ही परिवार के पास लौटकर आ जाती है। कुछ दशक ऐसा ही रहा तो कांग्रेस में गांधीवंशÓ के पास सर्वाधिक समय अध्यक्ष पद रहने का कीर्तिमान भी देर-सवेर बन ही जाएगा।
फिर सोनिया गांधी अध्यक्ष  हो या न हों इससे फर्क क्या पड़ता है? अगला अध्यक्ष कौन होगा यह तो कांग्रेस का बच्चा-बच्चा भी जानता है। दस जनपथ के विश्वसनीय राहुल गांधी को परिपक्व नेता मानकर उनकी ताजपोशी के लिए अभी से वंदनवार सजाकर बैठे हैं। देर-सवेर राहुल सोनिया द्वारा खाली किए गए सिंहासन पर आरूढ़ हो ही जाएंगे, लेकिन फिजाओं में एक सवाल तैर रहा है कि राहुल गांधी ने अपनी स्वयं की ताजपोशी एक वर्ष और क्यों बढ़ा दी? यह तो निर्विवाद है कि राहुल गांधी निर्विरोध हैं। उन्हें चुनौती देने का साहस किसी में नहीं है। कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं है कि उनकी ताजपोशी की राह में बाधा बनकर खड़ा हो जाए, फिर एक तथ्य यह भी है कि मृतप्राय कांग्रेस की जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता। इसलिए मजबूरी कहें या जरूरी- गांधी परिवार को दायित्व तो सौंपना ही पड़ेगा। सोनिया भी यह जानती हैं कि यदि किसी अन्य के नेतृत्व में इस बुरी तरह की पराजय हुई तो कांग्रेसी उसे कहीं का नहीं छोड़ेंगे! उसका हाल सीताराम केसरी से भी ज्यादा बुरा कर डालेंगे। इसलिए चाहे अनचाहे सोनिया इस जिम्मेदारी को उठा रही हैं, लेकिन इसमें कांग्रेस दयनीय पार्टी बन चुकी है। जिसके पास न नेतृत्व है, न दिशा- न उत्साह है और न ही कल्पना। इसीलिए सोनिया गांधी को फिर से  एक्सटेंशनÓ दे दिया गया। भीतर की खबर यह भी है कि सोनिया ने यद्यपि राहुल गांधी को इंदिरा गांधी द्वारा संजय गांधी को दिए गए फ्री-हैंड की अपेक्षा ज्यादा फ्री-हैंड दिया गया है, किन्तु कांग्रेस में एक धड़ा है जो यह मानता है कि अभी राहुल इस जिम्मेदारी के काबिल नहीं हुए। इसीलिए 8 सितंबर को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की एक बैठक के दौरान पार्टी के आंतरिक चुनाव एक वर्ष के लिए टाल दिए गए। इस टालम-टोली में वे लोग हतोत्साहित हुए हैं जो राहुल गांधी को पूर्ण अधिकार दिए जाने की वकालत कर रहे थे। इन्हीं में  से एक नेता ने ऑफ द रिकार्ड यह तक कहा कि जब राहुल को ही अध्यक्ष बनाना तय है तो देर किस बात की है। इस कथन के पीछे छिपी विवशता को समझा जा सकता है। कांग्रेस शीर्ष स्तर पर कितनी विकल्पहीन है यह इस कथन की भाषा की कातरता बता रही है। लेकिन राहुल इतने भयाक्रांत क्यों हैं कि वे जिम्मेदारी से बच रहे हैं। अनेक राजनैतिक दलों ने सत्ता युवा पीढ़ी के हाथ में सौंप दी है। चाहे वे वंशानुगत राजनीति कर रहे हों या फिर लोकतांत्रिक- अगली पीढ़ी सक्रिय हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी सक्रिय नहीं हैं। कांग्रेस के लगभग सारे फैसलों में अब उनकी सक्रियता और भागीदारी स्पष्ट दिखाई दे रही है। उन्होंने कई प्रांतों में नियुक्तियों में भी हस्तक्षेप किया। चुनाव के समय भी वे सक्रिय रहे, लेकिन महाराष्ट्र से लेकर झारखंड तक हर जगह पराजय ही हाथ लगी। राहुल के सारे प्रयोग धराशाई हो गए। इसलिए विरोधियों ने जमकर राहुल की खबर ली। सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी को अध्यक्षी सौंपी जाती तो उन्हें आने वाले समय की  चुनौतियों और पराजयों का कुयश अपने सर ही लेना पड़ता। इसलिए सोनिया ने पुत्र मोह में आकर राहुल को बचाते हुए आंतरिक चुनाव फिलहाल टाल दिए। इसका अर्थ यह हुआ कि सोनिया के साथ साथ वे पुराने चेहरे भी बचे रहेंगे जिन पर अनिश्चितता की तलवार लटक रही है। यह यथास्थिति कुछ लोगों के लिए सुरक्षा कवच बन चुकी है। पार्टी का संविधान पिछले समय में कई बार बदला गया है। इस बार भी बदला जा चुका है। कब तक ऐसा होता रहेगा। संविधान किसी क्रांतिकारी बदलाव के लिए बदले तो ठीक है लेकिन यथास्थिति बनाए रखने के लिए बदले तो इसे विडंबना ही कह सकते हैं।
जहां तक राहुल का प्रश्न है - कांग्रेस अब ऐसी पार्टी नहीं रही जो अपने दम पर सरकार बना ले। एक-दो छोटे-मोटे राज्यों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश बड़े राज्यों में कांग्रेस अपने दम पर नहीं जीत सकती। यूपी, बिहार में तो उसकी स्थिति क्षेत्रीय दलों से भी बदतर है। इसीलिए सहयोगी कांग्रेस की मजबूरी है। सहयोगियों के बिना कांग्रेस का अस्तित्व शून्य हैं। कांग्रेस सहयोगियों को और सहयोगी कांग्रेस को राहुल के नेतृत्व में बर्दाश्त कर पाएगी अथवा नहीं यह भी एक सवाल है। यदि राहुल गांधी ने सारे वयोवृद्धों को बदल डाला तो शायद सहयोगियों से जुड़ी हुई वह नाजुक डोर भी टूट जाए। आज राहुल और लालू के एक मंच पर होने को लेकर इतना बवाल है यदि राहुल अध्यक्ष बने तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है। वैसे भी राहुल की कार्यशैली अलग है। उन्होंने लालू यादव की सांसदी जाने के समय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के कांग्रेस के फैसले को फाड़कर फेंक दिया था। इसी कारण   लालू से उनकी पटरी नहीं बैठती है। असम में भी राहुल ने नादानी करते हुए हेमंत बिश्वास को समय नहीं दिया। नतीजा यह निकला कि हेमंत ने भाजपा की राह पकड़ ली और अब कई नेता भाजपा में जा रहे हैं। इसके अलावा भी कई ऐसे मौके आए जब राहुल और पिछली पीढ़ी के बीच टकराव स्पष्ट नजर आया। अब कांग्रेस में राहुल लाओ, कांग्रेस बचाओ के साथ-साथ प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ के नारे भी लगने लगे हैं। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। भूमि अधिग्रहण विधेयक के समय राहुल गांधी संसद के बाहर मुखर रहे। वे संसद में बोलना ही नहीं चाहते थे। राहुल के इशारे पर संसद नहीं चलने दी गई। इसे बदले की कार्रवाई निरूपित करते हुए परोक्ष रूप से कुछ कांग्रेसियों ने राहुल पर कटाक्ष भी किया। जब सरकार भूमि-अधिग्रहण विधेयक पर संघ के दबाव में पीछे हट गई तो सोनिया गांधी ने इसका श्रेय राहुल को देना चाहा। पर किसी ने उत्साह नहीं दिखाया। जाहिर है कांग्रेस का एक तबका यह मानने लगा है कि यदि राहुल को जीत का श्रेय देना है तो हार का श्रेय भी उन्हें ही मिलना चाहिए। दूसरी शिकायत राहुल के आस-पास व्याप्त कोटरी को लेकर है। ऐसा कहा जाता है कि राहुल कुछ खास नेताओं के कहने पर ही काम करते हैं। वरिष्ठों को ज्यादा तवज्जो नहीं देते। जो रणनीति वे और उनके नौसीखिये साथी बनाते हैं वह अपूर्ण होने के साथ साथ असफल भी है। जिसकी सूचना पुराने नेताओं को बमुश्किल मिल पाती है। राहुल पर यह आरोप भी है कि पार्टी के भीतर आंतरिक संवाद खत्म हो चुका है।
युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से बात नहीं करती। स्वयं राहुल  बड़े नेताओं से दूरी बनाए रखते हैं। उनकी रणनीति सर्वथा भिन्न रहती है। कुछ खास नेताओं को छोड़कर वे किसी से घुलते-मिलते नहीं हैं। पहले ऐसा नहीं था, राहुल के पिता राजीव गांधी ने युवा होने के बावजूद हर पीढ़ी के नेता को संजो कर और सामंजस्य पूर्वक अपने पास रखा हुआ था। उन्होंने लंबे समय तक किसी को भी दरकिनार नहीं किया। पर राहुल अलग मिजाज के हैं। वे जितनी निर्दयता से सत्ता पक्ष पर हमला बोल रहे हैं कांग्रेस के शुभ चिंतकों पर उतने ही कठोर क्यों हो गए हैं यह यक्ष प्रश्न है। सवाल केवल राहुल की अजीब कार्यशैली का नहीं है, सवाल कांग्रेस के आत्मविश्वास का भी है। यदि राहुल पिछली पीढ़ी को पूर्णत: खारिज करना चाहते हैं तो उन्हें कांग्रेस को नवजीवन देने की कोशिश भी करनी चाहिए। यदि वे लालू से दूरी बनाना चाहते हैं तो उन्हें बिहार जाकर अपने स्थानीय कैडर को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि अकेले लडऩे से कोई नुकसान नहीं होगा। बिहार में कांग्रेस को खोने के लिए कुछ नहीं है। ऐसी स्थिति में राहुल बिहार में कांग्रेस के अकेले लडऩे की रणनीति तैयारग करते तो शायद वे ज्यादा प्रयोगधर्मी और साहसी घोषित किए जाते। न तो वे यह प्रयोग करने में साहस जुटा रहे हैं और न ही लालू के साथ मंच साझा करना चाहते हैं। यह अनिर्णय ही राहुल की सबसे बड़ी कमजोरी है। यही हाल उत्तरप्रदेश में है जहां कांग्रेस रायबरेली और अमेठी तक सिमटी हुई है। अमेठी को भी स्मृति ईरानी के मार्फत भाजपा लीलने की तैयारी में है। यहां तीसरी ताकत आम आदमी पार्टी बन गई है। बाकी अन्य लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। आसन्न चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस की तैयारी शून्य ही दिखाई दे रही है। कांग्रेस की गिरावट पर जो प्रतिवेदन एके एंटनी ने तैयार किया था उसे भी कूड़ादान में फेंक दिया गया। दिशाहीन, सिद्धांतहीन और कल्पनाहीन कांग्रेस आत्मावलोकन कैसे कर सकती है। उसमें न तो वह साहस है और न ही आत्मविश्वास। कांग्रेस का कैडर भी अब राजेश पायलट जैसे नेताओं से सज्जित नहीं है जो बेबाकी से अपनी बात रख सकें। ऐसे में आत्मावलोकन की गुंजाइश कम है। बिहार के चुनाव परिणाम सकारात्मक हों या नकारात्मक। कांग्रेस को कोई फायदा नहीं होगा। यदि गठबंधन जीतता है तो यह नीतीश की छबि का अनुमोदन कहा जाएगा। यदि हारता है तो इसका ठीकरा कांग्रेस और लालू पर फूट सकता है। एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई है। ऐसे में अकेला चलना ही कांग्रेस  के लिए बेहतर विकल्प हो सकता है। लेकिन कांग्रेस में इतना साहस कहां। आने वाले समय में उत्तर प्रदेश, असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडू और पांडिचेरी में विधानसभा चुनाव हैं। ऐसे में कांग्रेस क्या नीति अपनाती है देखना दिलचस्प होगा।
-भोपाल से अनूप ज्योत्सना यादव

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