पंच तत्वों की हिन्दी
16-Sep-2015 02:00 PM 1234904

देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट में एक महिला जीर्ण-शीर्ण कपड़ों में खड़ी है, उसकी आंखें फैली हुई हैं, विस्फारित नेत्रों से वह अपने भाग्य का फैसला सुन रही है। फैसला जो मील का पत्थर है लेकिन उस फैसले का एक भी शब्द उसकी समझ के दायरे में नहीं है। फैसला अंग्रेजी में है उसे तो बाद में वकील द्वारा बताया जाता है कि फैसला तुम्हारे पक्ष में आया है।
संविधान के जिस कानून के तहत यह फैसला दिया गया न तो वह उस महिला की भाषा में था और न ही उस संविधान तथा उसके कठिन हिन्दी अनुवाद को वह महिला समझ सकती थी।  उस फैसले को तीन दशक हो चुके हैं। वह फैसला एक नजीर भी है लेकिन न्याय पालिका और देश की संसद में हालात नहीं बदले हैं। खासकर सुप्रीम कोर्ट में तो सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी का ही बोल बाला है। यह विडंबना ही है कि 80 करोड़ लोग जिस भाषा को बोलते हैं वह किसी राष्ट्र की भाषा नहीं है। किसी देश के सुप्रीम कोर्ट में नहीं बोली जाती है और प्रातों के बीच संपर्क भाषा के रूप में अधिकृत रूप से स्वीकार्य नहीं है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में जब 10 से 12 सितम्बर 2015 को तीन दिवसीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया गया तो यह बात उभरकर सामने आयी कि 80 करोड़ लोगों की भाषा संवधिान से लेकर न्याया पालिका तक हर जगह उपेक्षा और तिरस्कार झेलने के लिए विवश है। जिस भाषा ने इस देश की रक्त रंजित क्रांति से लेकर रक्तहीन अहिंसक असहयोग आंदोलन को जन्म दिया और सफल बनाया वह देश में राष्ट्र भाषा का दर्जा न पा सकी। जिस भाषा को बोलने वाले संसार में तीसरे सर्वाधिक संख्या वाले लोग हैं वह भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ में स्वीकृत न हो सकी। हिन्दी की यह विडंबना ही 10वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हर पहलू से रेखांकित की जा रही थी।
भोपाल में आयोजित यह भव्य सम्मेलन हिन्दी के अब तक हुए सारे 10 सम्मेलनों में अपनी व्यापकता, विशालता, तकनीक, विचार, आकल्पन, प्रबंधन और प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से न केवल सर्वश्रेष्ठ रहा बल्कि इस सम्मेलन में सही अर्थों में हिन्दी के भविष्य और उसकी विशुद्धता पर विचार विमर्श हुआ। 10 सितम्बर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सम्मेलन का शुभारम्भ किया तो उनके भाषण में अंग्रेजी के 75 शब्दों का प्रयोग मीडिया में चर्चा और आलोचना का विषय अवश्य बना किन्तु वार्ताकारों और आलोचकों ने इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया कि क्यों देश की संसद से लेकर न्याय पालिका तक हम हर जगह अंग्रेजी का प्रयोग करने के लिए विवश हैं। क्यों  भारत वर्ष में 18 संविधान स्वीकृत भाषाएं और 600 से अधिक बोलियां होने के बाद भी संपर्क भाषा के रूप में गुलामी के अवशेष अंग्रेजी को अपनाने के लिए विवश हैं। क्यों विश्व के 67 देशों, 199 विश्वविद्यालयों और सैकड़ों संस्थानों में पढ़ी-लिखी-समझी जाने वाली हिन्दी उस देश के संविधान में ही राजभाषा के रूप में दर्ज होकर रह गयी है जहां इसका जन्म हुआ है।
10वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी से जुड़े सारे विषयों पर जब देश भर के विद्वानों, चिंतकों और हिन्दीसेवियों ने चिन्तन तथा विचार-विमर्श किया तो यह तथ्य उभर कर सामने आया कि हिन्दी जनता जनार्दन के बीच लगातार पुष्पित, पल्लवित और लोकप्रिय बनती जा रही है लेकिन हिन्दी को जानबूझकर सुनियोजित षड्यंत्र के तहत प्रशासनिक और शैक्षणिक माहौल से बेदखल किया जा रहा है। यह सच है कि हिन्दी के प्रति देश के प्रधानमंत्री से लेकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तक और विभिन्न राज्यों के राज्यपालों से लेकर गैर हिन्दी प्रदेशों के शासकों तक आदर भाव है, वे इसे अपनाना चाहते हैं किंतु फिर भी अंग्रेजी भाषा को ओढऩे के लिए विवश हैं। समापन भाषण में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह दर्द उचित ही बयां किया कि हम बच्चों को पढ़ाने के लिए, अपना रुतबा दिखाने के लिए या रोजगार के लिए अंग्रेजी का प्रयोग तो करते हैं लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए अपनी ही भाषा में बोलते हैं उन्होंने चुनौती दी कि अंग्रेजी में भाषण देकर इस देश में कोई चुनाव जीतकर तो बताये। शिवराज का यह दर्द अनायास नहीं है यह एक कड़वा सच है कि संवाद की भाषा सत्ता की भाषा से भिन्न होती जा रही है। दु:ख इस बात का है कि इस भिन्नता को दूर करने के लिए कोई प्रयास नहीं होते। राजनाथ सिंह ने बताया कि जब वे विदेश यात्रा पर थे तो उन्हें अंग्रेजी में पढऩे के लिए एक भाषण दिया गया। राजनाथ सिंह ने जब अपना विरोध प्रकट किया तो उनसे कहा गया कि भारत की अधिकृत भाषा तो यही है लेकिन राजनाथ दृढ़ थे उन्होंने कहा कि वे हिन्दी में ही बोलेंगे और अंग्रेजी में जो लिखा हुआ है उसका अनुवाद करते हुए उसमें सुधार भी करेंगे। राजनाथ की जिद के आगे उस देश के प्रतिनिधियों और भारत के विदेश मंत्रालय को झुकना पड़ा। उस वक्त वे सत्ता में नहीं थे किंतु अपनी मातृ भाषा के प्रति उनके मन में आग्रह एवं दृढ़ता अभी भी थी इसी लिए उन्होंने जो ठाना वह कर दिखाया किंतु ऐसा दृढ़ संकल्प सारे नेता और हिन्दी के साहित्यकार से लेकर हिन्दी सेवी तक कहां दिखा पाते हैं। इस विश्व हिन्दी सम्मेलन में भी कुछ लोग कोप भवन में जाकर इस लिए बैठ गये कि उनका आरोप था कि इस सम्मेलन का राजनीतिकरण किया गया है। एक विशेष पक्ष के लोगों को ज्यादा महत्व दिया गया है। कुछ हद तक यह आरोप सच भी हो सकते हैं, किंतु ऐसे आयोजनों में संपूर्ण संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है। केन्द्र और मध्यप्रदेश दोनों जगह भाजपानीत सरकार सत्तासीन है। ऐसा पहली बार हुआ है इसलिए इस आयोजन पर उसकी छाप थोड़ी बहुत दिखाई दी, लेकिन महज इस कारण से इस आयोजन को खारिज करना नादानी होगी। यह सत्य है कि इतना भारी-भरकम खर्च करके मध्यप्रदेश सरकार कुछ अन्य उपलब्धियां हासिल कर सकती थी, लेकिन हिंदी को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास करना भी अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अंग्रेजी और हिंदी के बीच भारत में जो भेदभाव पनप चुका है उसने नए संघर्ष की जमीन तैयार कर दी है। देश के बमुश्किल एक प्रतिशत लोगों द्वारा संपूर्ण रूप से बोली समझी और पढ़ी-लिखी जाने वाली अंग्रेजी ने समाज के एक तबके को अहंकारी, अराजक और स्वयं को सर्वोत्तम समझने की गलत फहमी का शिकार बना दिया। अंग्रेजी शिक्षित अपने आपको महाज्ञानी समझते हैं उन्होंने एक अलग दुनिया गढ़ ली है। जिसका सरोकार इंडिया से है भारत से नहीं। भारत और इंडिया की यह विभाजन रेखा देवनागरी के घायल शब्दों से टपकते लहू से और सुर्ख होती जा रही है। क्योंकि अंग्रेजो के गुलशन नंदा चेतन भगत यह पेरवी करते हैं कि हिंदी भी रोमन में लिखी जानी चाहिए। यह हिंदी को पूर्णत: नष्ट करने का घिनौना प्रयास है। विश्व हिंदी सम्मेलन में रोमन में हिंदी लिखे जाने के विचार को पूर्णत: खारिज कर दिया गया है। लेकिन गिरमिटिया देशों में यह अंतर आ चुका आज से एक दशक पहले देवनागरी में हिंदी लिखी जाती थी आज रोमन में हिंदी लिखी जा रही है। गिरमिटिया देशों में ङ्क्षहदी पर सत्र के दौरान एक वक्ता ने बताया कि हिंदी की शुद्धता सबसे बड़ी चुनौती है। सत्र की अध्यक्ष गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने भी हिंदी को देवनागरी में लिखे जाने की बात कही। इस पूरे आयोजन के अभिकल्पक  मध्यप्रदेश के संस्कृति के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव भी कहते हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में लागू करने का सर्वाेपयुक्त समय देश की आजादी का समय ही था। क्योंकि तब देश प्रेम की भावना चरम पर थी। जिस तरह कमाल पाशा ने तुर्की में स्थानीय भाषा को 24 घंंटे के भीतर लागू करवा दिया था। वैसा संकल्प जरूरी है, लेकिन यह संकल्प कौन करे। मात्र साढ़े चार देशों में बोली जाने वाली भाषा अंग्रेजी इसी कारण हिंदी के सर पर सवार है। वर्ष 2005 में एक शोधार्थी जयंती नोडियाल ने आकलन किया था कि हिंदी जानने समझने वालों की संख्या पूरे विश्व में एक अरब दस करोड़ है। यह एक दशक पुराना आकलन था। आज यह संख्या एक अरब तीस करोड़ से ऊपर ही होगी। लेकिन इसके बाद भी हिंदी किसी देश की राष्ट्रभाषा नहीं है। न ही न्याय की भाषा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस दर्द को महसूस किया। किसी की गर्दन पर फांसी का फंदा डले या न डले इसका फैसला अंग्रेजी में सुनाया जाता है और वह निरीह सा अपनी मौत का फरमान उस भाषा में सुनता है जिसे वह समझ ही नहीं सकता। यह मानव अधिकारों का भी उल्लंघन है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पत्र में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि किसी भी नागरिक को न्याय उसकी मात्र भाषा में मिलना चाहिए। चौदहवीं शताब्दी में इंग्लैंड में न्याय पालिका में अंग्रेेजी के उपयोग को सहमति प्रदान की गई। फ्रांस ने पंद्रहवीं शताब्दी में और हंगरी ने अठारहवीं शताब्दी में अपने देश की मातृ भाषाओं को न्याय की भाषा घोषित कर दिया। लेकिन भारत में स्वदेशी आंदोलन के 110 वर्ष बाद भी जनता अपनी खुद की भाषा में न्याय पाने से वंचित है। हिंदी भाषी वकील सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में बहस नहीं कर सकते। सारी सुनवाई से लेकर सारी कार्रवाई अंग्रेजी में होती है। क्या यह नागरिक अधिकारों का हनन नहीं है। देश भले ही स्वतंंत्र हो चुका है, लेकिन देश के नागरिक अंग्रेजी की परतंत्रता अभी भी भोग रहे हैं।
भोपाल में ही विश्व हिंदी
सम्मेलन का आयोजन क्यों?
विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में ही क्यों हुआ? किसी अन्य प्रांत में इसका आयोजन क्यों नहीं किया गया। यह भी एक कड़वा सच है। भोपालवासी होनेे के नाते भोपाल में इतना भव्य, सुप्रबंधित, सुव्यवस्थित, व्यापक, विशाल और सफल आयोजन पर गर्व है, लेकिन भीतर की खबर यह भी है कि कोई अन्य राज्य विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए शायद ही इतने संसाधन उपलब्ध करा पाता और हिंदी भाषी प्रदेश मेें ही यह सम्मेलन हो सकता था टोटा तो इस बात का भी था कि अगर मध्यप्रदेश ही भाजपा का गढ़ है बाकी तो सब जगह पर बीजेपी की सरकार नहीं है। यूपी में अखिलेश यादव, बिहार मेंं चुनाव, उत्तराखंड में कांग्रेस, दिल्ली में केजरीवाल और हरियाणा में खट्टर इस सम्मेलन के लिए नए पढ़ जाते है और न ही इतना पैसा खर्च कर पातेे। गैर हिंदी भाषी राज्यों में तो सवाल ही पैदा नहीं होता। महाराष्ट्र में मनसे और शिवसेना हिंदी की राह में रोड़ा बन जाते। इसलिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भोपाल बहुत सोच-समझ कर चुना और इसकी तैयारी भी उन्होंने पहले से ही प्रारंभ कर दी थी। मिस्र में यात्रा के दौरान जब वहां उनकी मुलाकात मिस्र में हिंदी की विद्वानों से हुई तो उनसे मिलकर सुषमा स्वराज बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने पाक्षिक अक्स को बताया कि सुषमा जी ने तुरंत विदेश मंत्रालय को सूचित किया और विदेश मंत्रालय ने भोपाल विश्व हिंदी सम्मेलन का आमंत्रण उन्हें दे दिया। आने-जाने की व्यवस्था और एयर टिकिट भी उपलब्ध कराए गए। इस प्रतिबद्धता की सराहना करनी होगी। पत्रकार ओम थानवी ने विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के बैनर पूरे शहर में लगाए जाने पर आपत्ति अवश्य दर्ज कराई। जो कि कुछ हद तक न्यायोचित भी है, किंतु अनिल दवे ने इस पर स्पष्टिकरण देते हुए बताया कि दोनों संवेधानिक पदों पर हैं उनके अलावा प्रख्यात कवियों, साहित्यकारों के बैनर चौराहों पर लगाए गए थे। एक - दो बैनर में नाम भी गलत लिखे थे जैसे अमीर खुसरो को आमिर खुसरो कर दिया गया, लेकिन यह अक्षम्य भूल नहीं कही जा सकती। इतने बड़े आयोजन में इस तरह की कमियां संभावित हैं। एक विवाद विश्व हिंदी सम्मेलन में साहित्यकारों की उपेक्षा को लेकर भी उपजा। इस पर व्यास सम्मान से सम्मानित साहित्यकार चित्रा मुद्गल का कहना था कि कोई भी भाषा पहले सीखी जाती है उसके बाद साहित्य पढ़ा जाता है। हिंदी सम्मेलन और साहित्यकारों के सम्मेलन में अंतर है। उन्होंने यह भी कहा कि इससे पहले हिंदी सम्मेलन के नाम पर साहित्यकारों को बुलाया जाता था और हिंदी सेवियों की उपेक्षा की जाती थी, लेकिन इस बार हिंदी सेवियों को प्रमुखता दी गई। उदाहरण के लिए केरल से पधारीं तंक मणि अम्मा दशकों से हिंदी सेवा कर रही हैं। लेकिन उन्हें आज तक कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं दिया गया। ऐसे असंख्य हिंदी सेवी हैं जो विश्व के कोने-कोने में हिंदी का प्रचार कर रहे हैं इसलिए यह विश्व हिंदी सम्मेलन ङ्क्षहदी सेवियों पर ज्यादा केंद्रित था और इसी वजह से यह सफल भी रहा। इससे पहले सूरीनाम में तो मंच पर ही वक्ताओं में बहसबाजी हो गई थी। एक अन्य हिंदी सम्मेलन में शराब पीकर भागीदारों ने हुड़दंग मचाया था। न्यूयॉर्क में सम्मेलन के नाम पर खानापूर्ति की गई। एक छोटे से सभागार में कुछ वक्ताओं को बुलाकर उनके उद्बोधन सुन लिए गए। ऐसा लगा मानों सब न्यूयॉर्क घूमने के लिए पहुंचे थे। इस दृष्टि से दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन सही मायने में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन कहा जाना चाहिए। क्योंकि इसमें हर उस विषय की तह में जाने का प्रयास किया गया जो हिंदी भाषियों को भीतर तक झकझोरता है। चाहे वह गिरमिटिया देशों में हिंदी का स्वरूप हो, विदेशों में हिंदी शिक्षण की चुनौती हो, विदेशियों के लिए भारत में हिंदी अध्ययन की सुविधा हो या फिर अन्य भाषा-भाषी राज्यों में हिंदी के समक्ष बाधाएं सारे विषय सुचिंतित और सारगर्भित थे। विदेशों में हिंदी शिक्षण की चुनौतियों पर एक वक्ता ने बताया कि चीन में हिंदी व्याकरण मुश्किल से उपलब्ध हो पाती है। उन्होंने स्वयं अपने हाथों से व्याकरण लिखी है। जिस भाषा को एक अरब दस करोड़ लोग बोलते हैं। उसका व्याकरण विश्व के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में आसानी से उपलब्ध नहीं है क्या यह शर्मनाक नहीं है? क्या अंग्रेजी के विषय में ऐसी किसी अनुपलब्धता की कहानी कभी सुनने को आई है। संभवत: नहीं इसीलिए जब विदेशनीति में, प्रशासन में, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी की व्यापकता पर विचार विमर्श हुआ तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही भाषण देकर चले गए हों लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हिंदी को लेकर 29 घोषणाएं की। किसी भी विश्व हिंदी सम्मेलन में इससे पहले इतनी घोषणाएं नहीं की गई। यह संकल्प और सामथ्र्य का प्रकटन ही है। लेकिन चुनौतियां बदस्तूर हैं। रोनाल्ड, स्टूअर्ट, मेक्ग्रेेगर सभागार में विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान 11 सितम्बर को जब विधि एवं न्याय क्षेत्र में हिंदी और भारतीय भाषाएं विषय पर चर्चा चल रही थी तो वक्ताओं ने बताया कि किस तरह इस देश की न्याय पालिका में न्याय जनता की भाषा में नहीं दिया जाता। यह विडंबना ही है कि गरीब, लाचार, शक्तिहीन, प्रभावहीन और दबे-कुचले लोग अपने भाग्य दुर्भाग्य का निर्णय उन्हीं लोगों की भाषा में सुनने को विवश हैं जिन्होंने इस देश पर पहले तो 200 वर्ष तक अन्याय पूर्ण शासन चलाया और अब उनकी भाषा प्रभुत्व तथा शक्तिशाली वर्ग की भाषा है। मैकाले की शिक्षा तब सफल नहीं हुई, लेकिन अब सफल हो चुकी है। देश में कोई कमाल पाशा नहीं है जो रातों-रात मातृ भाषा को राष्ट्र भाषा बनाने का फरमान जारी कर देता हो। लेकिन हिंदी के समक्ष यह अकेली चुनौती तो नहीं है। जो समाचार पत्र करोड़ों की पाठक संख्या होने का दंभ भरते हैं, जो हिंदी भाषा की पत्रकारिता के बल पर बड़े-बड़े व्यापारिक घरानों में तब्दील हो चुके हैं कि नमक से लेकर सुई तक बनाने लगे हैं-वे भाषा को दूषित करने की सुनियोजित कोशिश कर रहे हैं-एक बानगी देखिए-यूथ को खादी से कनेक्ट करने के लिए यह सभी चेंज किए जा रहे हैं। यह भाषा उस समाचार पत्र में लिखी जा रही है जिसे हिंदी ने इतना समृद्ध बना दिया है कि आज वह विश्व में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले समाचार पत्रों में से एक है। किंतु हिंदी के सामथ्र्य और उपकार को झुठलाते हुए इन समाचार पत्रों में हिंदी के नाम पर हिंग्लिश परोसी जा रही है। प्रतीत होता है कि इन समाचारों की कॉपी पत्रकार नहीं मैनेजमेंट के छात्र लिख रहे हैं। हिंदी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता पर विद्या निवास मिश्र सभागार में जब गरमागरम चर्चा हो रही थी तो कुछ समाचार पत्रों के नुमाइंदों को वह चर्चा थोड़ी अप्रिय लगी। शायद उन्हें यह पसंद नहीं आया कि कोई उन्हें आईना दिखाए। बाद में एक समाचार पत्र से चर्चा में प्रसून जोशी ने कहा कि भाषा ठहर जाएगी तो सड़ जाएगी। जोशी के कथन का आशय चाहे जो हो, किंतु किसी भाषा पर जब दूसरी भाषा चढ़ जाएगी तो भी वह अमर वेल के प्रभाव से सड़ जाएगी। भाषा की ग्राह्यता दूध की तरह है। जिस तरह दूध में शकर मिलती है उसी तरह किसी भाषा में अन्य भाषाएं मिला करती हैं तो उसका सौंदर्य निखरता है- न करो आस गैरों की दौलत की अभी अपने घर में खजाने बहुत हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में यह पते की बात कही कि हिंदी की बहनें 18 हैं। यदि उसे मांगना ही होगा तो उनसे मांग लेगी। उन्होंने यह बिल्कुल दुरुस्त कहा कि तमिल, तेलगु, बंगाली, मराठी, गुजराती, डोगरी, कश्मीरी, पंजाबी, मैथिल जैसी भाषाओं से शब्द लेकर हिंदी और समर्थ हो जाएगी। यदि संचार माध्यम और समाचार पत्र यह क्रांतिकारी कदम उठाए तो हिंदी को अंग्रेजी की दहलीज पर शब्दों के लिए मत्था नहीं टेकना होगा। ब्रिटेन की साहित्यकार और दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मानित की गईं ऊषा राजे सक्सेना भी यही कहती हैं कि भले ही हिंदी में संस्कृत के मुकाबले कम शब्द हैं। किंतु हिंदी के आसपास जो भाषाएं हैं वे हिंदी के सामथ्र्य को बढ़ा सकती है। कुछ ऐसे ही विचार इटली के हिंदी विद्वान के हैं।  वे मानते हैं कि भारत की राजनीति में इच्छाशक्ति का अभाव है इसलिए हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी। फिर कौन है हिंदी को राष्ट्रभाषा के मुकुट से वंचित करने वाले? तंकमणि अम्मा इस तथ्य को सिरे से खारिज करती हैं कि हिंदी के विरोध में दक्षिण भारत लामबंद होता रहा है। उनका कहना है कि दक्षिण में हिंदी का विरोध अब न के बराबर है। देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी कहा कि हिंदी भारत की सभी भाषाओं की बड़ी बहन है। उन्होंने जोर देकर इस तथ्य को रेखांकित किया कि हिंदी प्राचीनता के मामले में तमिल से छोटी है, लेकिन लोकप्रियता के मामले में सभी भाषाओं से बड़ी है। फिर बाधा क्या है। देश और विदेश के प्रकाशनों में हिंदी की लोकप्रियता कम नहीं है, लेकिन किसी विदेशी से दुनिया के शीर्ष 10 साहित्यकारों के नाम पूछो तो उसमें विश्व की सबसे लोकप्रिय भाषा हिंदी का एक भी साहित्यकार शामिल नहीं होता क्यों?  हिंदी का सामथ्र्य किसी भाषा से कम है। दरअसल हिंदी से अन्य भाषाओं में और अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद की अनुपलब्धता और अनुवादकों की कमी कहीं न कहीं विश्वस्तरीय हिंदी साहित्यकारों को एक क्षेत्र तक सीमित कर चुकी है। हिंदी में अनुवाद विद्या को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। चित्रा मुद्गल कहती हैं कि कैलाश वाजपेयी, निर्मल वर्मा, अज्ञेय जैसे साहित्यकार विरले ही मिलते हैं जिन्होंने हिंदी की समृद्धि के लिए अन्य भाषाओं को भी माध्यम बनाया। हिंदी सेवा का यही एकमात्र रूप नहीं है। मॉरीशस की मंत्री लीला देवी दूखन -लछुमन का कहना है कि हिंदी को विश्व में बढ़ावा देने के लिए भारत को ही प्रयास करने होंगे। उन्होंने बताया कि मॉरीशस में  हिंदी संस्थान की स्थापना के लिए भूमि इत्यादि मुहैया करा दी गई है। अब भारत सरकार को वहां शीघ्र-अतिशीघ्र हिंदी संस्थान की स्थापना करनी चाहिए। दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में यह संकल्प लिया गया है कि ग्यारहवां हिंदी सम्मेलन मॉरीशस में आयोजित किया जाए और उससे पहले 2018 में वहां हिंदी संस्थान की स्थापना हो जानी चाहिए। देखना है यह संभव हो पाता है अथवा नहीं। मध्यप्रदेश में तो शिवराज सरकार ने एक अस्थाई स्ट्रक्चर को भव्य स्वरूप देकर दुनियाभर के हिंदी प्रेमियों को प्रसन्न कर दिया किंतु मॉरीशस में जो स्थाई हिंदी संस्थान बनने वाला है उसका स्वरूप क्या होगा यह देखना दिलचस्प है।

यहाँ भी राजनीति
विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवियों को प्राथमिकता देते हुए साहित्यकारों की उपेक्षा का सवाल उठाया गया। आरोप लगा कि भाजपा नीति सरकार होने के कारण एक विशेष विचार धारा के लोगों को प्राथमिकता दी गई। हिन्दी भवन से जो सूची प्राप्त की गई थी उसमें काट-छांट करके अपने वालों को ही बुलाया गया कुछ हद तक ऐसा हो सकता है लेकिन यह पूर्णत: सच नहीं है। सम्मेलन के अंतिम दिन जो कवि सम्मेलन होने वाला था वह पेटलावद की घटना के कारण निरस्त कर दिया गया। इस सम्मेलन में भी कुछ ऐसे कवियों को निमंत्रित किया गया था जो राजनीतिक रूप से ज्यादा रसूख वाले थे। एक बड़े साहित्यकार ने पाक्षिक अक्स से चर्चा में बताया कि यह सांगठनिक कमी है जिसे भाजपा को सुधारना चाहिए। किंतु कुछ ऐसे भी साहित्यकार थे जिन्होंने इसे नजर अंदाज किया और हिन्दी सम्मेलन की सराहना की।
दुनिया हिन्दी के साथ है
हिन्दी विश्व भाषा है इसे संयुक्त राष्ट्र में मान्यता मिलनी ही चाहिये-लीला देवी दूखन -लछुमन, शिक्षा व मानव संसाधन मंत्री, मॉरिशस
यह अब तक का सबसे सफल और सम्पूर्ण हिन्दी सम्मेलन है-ऊषा राजे सक्सेना, ब्रिटेन।
मैं उस देश में आया हूँ जहां सबसे पहले मानव के कदम पड़े, मुझे हिन्दी से प्यार है-मो. इदरीस, दक्षिण अफ्रीका।
हिन्दी और उर्दू बहने हैं दोनों भाषाओं में एक दूसरे को समृद्ध करने की शक्ति है-गुलनाज एवं अब्दुल मजीद, मिस्त्र।
मुझे हिन्दी मीठी भाषा लगती है-स्तोल्यदोवे अलेक्सान्द्र-रूस।
भारत में हिन्दी राष्ट्रभाषा बननी ही चाहिये-प्रो. तत्याना आरोन्स्कया, रूस।
हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवियों के नाम पर सभागारों के नाम रखते तो अच्छा रहता-सुशीला शर्मा, जर्मनी।
जिन हिन्दी सेवियों को पुरस्कृत किया गया उनमें प्रमुख हैं-
<डॉ. पी. जयरामन, अमेरिका < अनूप भार्गव, अमेरिका < हाशिम दुर्रानी, ऑस्ट्रेलिया < श्रीमती स्नेह ठाकुर, कनाडा <श्रीहैंस बर्गर वैसलर, जर्मनी < प्रो. अकिरा ताकाहाशी, जापान < प्रो. ऊषा शुक्ला, द. अफ्रीका < सुश्री कमला रामलखन, त्रिनिदादएंडटोबैगो < डॉ. देइमान्त्स वालांस्यूनस, लिथुआनिया < सुश्री नीलम कुमार, फिजी < श्री सार्तजे वेरबेक, बेल्जियम < अजामिल माताबादल, मॉरीशस < गुलशन सुखलाल, मॉरीशस < कैलाश बुधवार, यू.के. <डॉ. इंदिरा गलिएवा, रूस < सुश्रीडीएमआईके दशानायके, श्रीलंका < सुरजन परोही, सूरीनाम < डॉ. इमरे बांगा, हंगरी < श्रीमती ऊषा राजे सक्सेना, यू.के.
10वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा हिंदी के बारे में की गई घोषणाएं
ठ्ठ    हिन्दी विश्वविद्यालय को अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप दिया जाएगा।
ठ्ठ    राजभाषा विभाग को पुनर्जीवित कर उसे संस्कृति विभाग का हिस्सा बनाया जाएगा।
ठ्ठ    मानवाधिकार की भांति ही भाषाधिकारी की बात होनी चाहिये।
ठ्ठ    न्यायालयों की कार्यवाही तथा निर्णय हिन्दी भाषा में प्रसारित होंगे। अनुवादकों की नियुक्ति की जाएगी।
ठ्ठ    अन्य देशों की भाषाओं के साथ हिन्दी शब्दकोष का विकास किया जायेगा।
ठ्ठ    उपभोक्ता वस्तुओं के सारे लेवल तथा जानकारी राजभाषा हिन्दी में होंगे।
ठ्ठ    सभी सरकारी विभागों/इकाइयों का नामकरण अनिवार्यत: हिन्दी में होंगे।
ठ्ठ    जहाँ अंग्रेजी और हिन्दी का प्रयोग साथ में होना हो, वहाँ हिन्दी प्रथम भाषा और अंग्रेजी द्वितीय भाषा के रूप में प्रयुक्त की जाएगी।
ठ्ठ    समस्त प्रशासकीय दस्तावेज तथा (तकनीकी) प्राक्कलन अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी में लिखे जावेंगे।
ठ्ठ    किसी अधिकारी का निलंबन आदि इस आधार पर नहीं हो सकेगा कि उसे अंग्रेजी नहीं आती।
ठ्ठ    अन्य भाषाओं के शीर्षस्थ साहित्यकारों की रचनाएं हिन्दी पाठ्यक्रमों में जोड़ी जावेंगी।
ठ्ठ    हिन्दी में काम करने के परिणामस्वरूप यदि किसी को प्रताडऩा अथवा हतोत्साहन किया जाता है तो उसे इस पर सख्ती से प्रतिबंध लगाया जाएगा तथा इसके विरुद्ध दांडिक प्रावधान भी किया जाएगा।
ठ्ठ    प्रशासन में हिन्दी भाषा से भी बढ़कर मानवाधिकार का विषय है। पत्राचार की भाषा यदि आम आदमी की समझ में न आये तो यह उसके मानवाधिकारों का हनन है।
ठ्ठ    मध्यप्रदेश में शासकीय पत्राचारों में, शासकीय दस्तावेजों में तथा तकनीकी प्राक्कलनों में हिन्दी भाषा का उपयोग अनिवार्यत: किया जायेगा।
ठ्ठ    मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव एवं सरकार के सभी वरिष्ठ अधिकारी नस्तियों एवं पत्राचार में हिन्दी का ही उपयोग करेंगे। केन्द्र शासन को भी सभी पत्र हिन्दी में ही भेजे जायेंगे और यदि अंग्रेजी में भेजना अनिवार्य हो तो साथ में अंग्रेजी अनुवाद संलग्न किया जायेगा किंतु मुख्य पत्र तो हिन्दी में ही भेजा जायेगा। अंग्रेजी में आये पत्र का उत्तर भी हिन्दी में भेजा जाएगा।
ठ्ठ    हिन्दी भाषा में अन्य राज्यों की भाषाओं के प्रासंगिक शब्दों को समाहित कर हिन्दी की शब्दावली को और अधिक समावेशी बनाया जायेगा।
ठ्ठ    राज्य की सभी बड़ी कम्प्यूटर प्रणालियों के साफ्टवेयर हिन्दी में लिखे जायेंगे।
ठ्ठ    राज्य द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं का माध्यम हिन्दी रखा जायेगा।
ठ्ठ    प्रशासनिक शब्दावली की पुस्तकों का वितरण समस्त अधिकारियों को सुनिश्चित किया जायेगा एवं इसे सरल बनाने के लिये जनता को सुझाव लिये जायेंगे।
ठ्ठ    प्रदेश में विधि, विज्ञान, चिकित्सा एवं तकनीकी क्षेत्रों में अनुवाद के लिये अनुवादकों की नियुक्ति की जायेगी।
ठ्ठ    राज्य शासन द्वारा जारी समस्त विज्ञापन हिन्दी में ही जारी किये जायेंगे। अंग्रेजी समाचार पत्रों में भी हिन्दी में ही होंगे।
ठ्ठ    अहिन्दीभाषी राज्यों से मध्यप्रदेश में आये अधिकारियों के लिए हिन्दी भाषा के प्रशिक्षण का विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार कर लागू किया जायेगा।
ठ्ठ    मध्यप्रदेश में संस्कृति विभाग के अधीन राज्य हिन्दी अधिकारी की नियुक्ति की जायेगी।
ठ्ठ    मध्यप्रदेश में हिन्दी में अच्छा कार्य करने वाले अधिकारियेां एवं कर्मचारियों को लोक सेवा दिवस/हिन्दी दिवस पर पुरसकृत किया जायेगा।
ठ्ठ    हिन्दी विषय के शिक्षकों के लिये प्रशिक्षण एवं पदोन्नति के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराये जायेंगे।
ठ्ठ    राज्य द्वारा जारी किये जाने वाली समस्त अधिसूचनाएं एवं आदेश निर्देश हिन्दी में जारी किये जायेंगे।
ठ्ठ    मध्यप्रदेश में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को राज्य हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया जायेगा।
ठ्ठ    प्रत्येक 2 वर्ष में एक बार राज्य हिन्दी सम्मेलन का आयोजन जो हिन्दी के विस्तार और विकास का काम करेगा।
ठ्ठ    विश्व हिन्दी सम्मेलन की तत्काल लागू हो सकते योग्य अनुशंसाओं को मध्यप्रदेश शासन द्वारा अक्षरश: लागू किया जायेगा।

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^