जाट, गुर्जर और पटेल आरक्षण का खूनी खेल
01-Sep-2015 07:12 AM 1235076

दक्षिण अफ्रीका की धरती पर जब महात्मा गांधी को 7 जून 1893 को डरबन से 80 किलोमीटर दूर पीटरमॉरिजबर्ग रेल्वे स्टेशन पर प्रथम श्रेणी के डब्बे से बाहर फेंक दिया गया था तब उन्होंने एक ही प्रण किया था कि वे दुनिया में ऐसा समाज चाहते हैं जो बराबरी का हो। न कोई छोटा हो न कोई बड़ा हो, न किसी समुदाय या जाति को राजाश्रय मिले और न ही किसी समुदाय या जाति को हेय दृष्टि से देखा जाये। राज की नजरों में सब समान हों। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए समानता की लड़ाई में जुट गये महात्मा गांधी के आन्दोलन को वहां के खनन उद्योग में लगे पटेल समुदाय के उन उत्साही नौजवानों का भरपूर सहयोग मिला जो दुनिया के इतिहास में एक नई शक्ति का उदय होते देख रहे थे। आज उन्हीं पटेलों के वंशज और दक्षिण अफ्रीका के आर्थिक विकास मंत्री इब्राहिम पटेल गर्व से यह कहते हैं कि दक्षिण अफ्रीका ही नहीं बल्कि इस ग्लोब की आर्थिक प्रगति में पटेलों का बड़ा भारी योगदान है। किंतु दक्षिण अफ्रीका से 8264 किलोमीटर दूर गुजरात में हिंसा पर उतारू पटेल समुदाय को शायद अपना गौरवमयी इतिहास विस्मृत हो गया है। वे ये भूल गये हैं कि उन्होंने अपने लौह इरादों के बल पर बिना किसी सरकारी सहायता के अपनी दुरावस्थाओं और दुर्भाग्य को न केवल बदल डाला है बल्कि विश्व के आर्थिक जगत में एक अलग ही मुकाम बनाया है। अहमदाबाद से अफ्रीका और सेनफ्रांसिसको से सूरत तक जिस पटेल समुदाय ने अपनी मेहनत, अपनी लगन और अपने व्यावसायिक चातुर्य के बल पर अर्थतंत्र ही नहीं बल्कि कई देशों की राजनीति में भी अच्छी खासी पैठ बना ली है, आज वही समुदाय भारत में ओबीसी के आरक्षण में से थोड़ा सा हिस्सा मांगने के लिए इतना बेताब क्यों हो गया है कि उसने ....सारे गुजरात को आरक्षण की आग में धकेल दिया है। 15 के करीब लोग इस धधकती आग में स्वाहा हो गये हैं। गुजरात थम गया है। वर्ष 2002 के बाद पहली बार सेना को बुलाना पड़ा है। स्कूल, कॉलेज, ट्रेन से लेकर वायुयान तक सब कुछ थम गये हैं। वह गुजरात जो प्रगति के पथ पर भारत ही नहीं बल्कि सारी दुनियाँ में तेजी से दौड़ रहा था आज रेंगने लगा है। चारों ओर भय और असुरक्षा का माहौल है यह शब्द लिखे जाने तक गुजरात के लगभग 8 शहर कफ्र्यू की चपेट में थे।

कफ्र्यू उठ जायेगा, दुकानें खुल जायेंगी, काम पहले की भांति चलने लगेगा, परिवहन सुचारू हो जायेगा लेकिन सवाल वही रहेगा कि पटेल आरक्षण को लेकर आंदोलित क्यों हुए। किसी दूसरे विषय पर उनका आंदोलन होता तो समझमें भी आता। लेकिन जिन पटेलों पर सरदार बल्लभ भाई पटेल को इतना विश्वास था कि उन्होंने संविधान सभा के समक्ष पटेलों को आरक्षण देने की मांग तक रखना मुनासिब नहीं समझा, जिन पटेलों ने 80 के दशक में आरक्षण के खिलाफ आंदोलन किया था, आज वे पटेल ही आरक्षण व्यवस्था में एक मामुली हिस्सा मांगने के लिए इतने उतावले क्यों हंै? किसने उन्हें इस गलतफहमी में डाल दिया कि आरक्षण मिलने से अपेक्षाकृत समृद्ध उनका समुदाय और समृद्ध हो जायेगा या उनकी बेरोजगारी खत्म हो जायेगी। देश के हीरा उद्योग से लेकर तमाम बड़े उद्योगों की कमान जिन पटेलों के हाथों में है उन्हें आरक्षण की मांग करते देख सारा देश सकते में है। खुद आनंदीबेन पटेल की सरकार भी इस अचानक उठे आंदोलन से बदहवास हो गयी। सरकार को यह अंदेशा नहीं था कि पटेल अचानक आरक्षण के लिए लामबंद हो जायेंगे। लेकिन इससे भी बड़ा और विचारणीय तथ्य यह है कि पटेल समुदाय एक 22 वर्षीय नौजवान के पीछे खड़ा हो गया। वह नौजवान जिसे पिस्तौल बंदूक हाथ में लेकर कभी कार की बोनट पर तो कभी जाम छलकाते हुए फोटो खिचाते हुए देखा जा सकता है। जिसने लोकसभा चुनाव के समय आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल के पक्ष में सोशल मीडिया पर अभियान चलाया था। यह चिंता की विषय है कि आंदोलन करने के लिए पटेल समुदाय को एक परिपक्व और जिम्मेदार नेतृत्व भी नहीं मिला। कुछ गुमराह तथा बड़ी संख्या में बहकाये गये लोगों ने हार्दिक पटेल को हीरो बना दिया और उसके पीछे चल पड़े।

भीड़ जुटाना तात्कालिक लोकप्रियता का प्रतीक तो हो सकता है लेकिन यह योग्यता तो बिलकुल भी नहीं है। अतीत में ऐसे कई नेताओं ने भीड़ एकत्र कर इस तरह के हिंसक आंदोलन किये, उनसे कुछ हासिल नहीं हुआ। प्रश्न यह भी है कि सरकारी सम्पत्ति तोड़कर, हिंसा करते हुए, लोगों के दैनिंदिन जीवन को अस्त-व्यस्त करते हुए आंदोलन करना कहां की समझदारी है। क्या ऐसे आंदोलन को जन समर्थन मिल सकता है? हार्दिक पटेल ने सुर्खियों में आने के लिए जो हथकंडा अपनाया वह किसी प्रोपेगंडा से कम नहीं है।

हार्दिक पटेल को यह समझना चाहिए कि समाज में आरक्षण की व्यवस्था उस तबके को आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक रूप से समर्थ बनाने के लिए की गई है जो सदियों तक जातिप्रथा और घृणा के कारण अपमानित, शोषित और उपेक्षित जीवन जीता रहा। जिसे हर तरह के लाभ से वंचित करते हुए समाज ने भयानक गरीबी और पीड़ा की जिंदगी में धकेल दिया।

पटेल समाज का इतिहास उठाकर देखें तो दूर दूर तक एक भी प्रकरण ऐसा नहीं दिखाई देता जिससे यह प्रकट हो कि इस समुदाय ने सामाजिक रूप से तिरस्कार और आर्थिक दुष्चक्र की स्थिति का सामना किया हो। पटेल हमेशा ही बड़ी जमीनों के मालिक रहे और अपेक्षाकृत समृद्ध भी रहे। थोड़ी बहुत गरीबी तो सभी समुदायो में है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सभी समुदाय आरक्षण की मांग करते हुए सड़क पर उतर आयें। सवाल यह भी है कि आरक्षण मिलने के बाद क्या सभी को सरकारी नौकरी मिल जायेगी।

 

पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण क्यों?

संविधान निर्माना बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा जिन दबे-कुचले लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिए जो 10 वर्ष का संकल्प लिया था उसे आजीवन जारी रख भविष्य में लोग इसी के इर्द-गिर्द राजनीति करेंगे।

जिस तरह भारत की पवित्र नदियां गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी इत्यादि पापियों के पाप धोते-धोते कब की मैली हो चुकी हैं। उसी तरह यह भारत की सुजलाम-सुफलाम भूमि भी अब जातीय आरक्षण का भार ढोते-ढोते सामाजिक विग्रह की समर भूमि बन गयी है। जातीय आरक्षण का आर्थिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले सभी जन यह याद रखें कि उन्हें ऊपर उठाने में लगभग आधी शताब्दी तो अवश्य ही बीत चुकी है। वे यह सोचें कि इतना अरसा गुजर जाने के बाद भी उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ? अरबों-खरबों की राष्ट्रीय सम्पदा इस मद में स्वाहा हो जाने के बाद किसी एक खास पिछड़े नेता का प्रधानमंत्री बन जाने के बाद, किसी एक खास परिवार का पीढिय़ों तक मुख्यमंत्री बने रहने के बाद,किसी खास दलित नेता का आधी शताब्दी तक केंद्रीय मंत्री बने रहने के बाद,पीढ़ी दर पीढ़ी आईएएस,आईपीएस बने रहने के बाद, किसी दलित महिला का लोकसभा अध्यक्ष बन जाने के बाद, किसी भूतपूर्व मुख्यमंत्री का राज्यपाल बनकर व्यापमं कांड में संलग्न रहने के बाद, किसी कूटनीतिक देवयानी का अमेरिका में अपनी ही नौकरानी का शोषण करने के बाद यदि किसी का मानसिक पिछड़ापन नहीं गया,तो इसमें देश की शोषित-पीडि़त जनता का क्या कसूर है?

संविधान की मंशानुसार भारत के निर्धन-दलित-आदिवासियों को आरक्षण दिए जाने पर तो किसी को कोई एतराज नहीं है। यह तो नितांत जरूरी है कि शोषितों-पीडि़तों को आरक्षण मिले! किन्तु जब देश के भूस्वामी-जमींदार, पूंजीपति, अफसर, मंत्री और अपराधी  तथाकथित पिछड़ी जाति के आधार पर देश की सत्ता पर अनवरत काल तक अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहेंगे, तो बड़ी मुश्किल होगी। मैं समझ नहीं पा रहा हूं की यदि द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के वंशज पिछड़े और दरिद्र हो सकते हैं, तो निर्धन सर्वहारा  सुदामा के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए? सम्राट चन्द्रगुप्त, बिंदुसार, अशोक के वंशज यदि दलित और पिछड़े हो सकते हैं, तो झोपड़ी में रहने वाले लंगोटीधारी चाणक्य के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए? कहीं ऐसा तो नहीं कि संसदीय लोकतंत्र में बहुमत की दादागिरी के वास्ते, वोट की राजनीति वालों ने निरीह-निर्दोष-निर्धन जनता की छाती पर यह आरक्षण की दुंदभी बजाई हो!

कुछ लोग कह सकते हैं कि खाते-पीते समाज के लोगों के लिए आरक्षण की प्रासंगिकता क्या है? हार्दिक ही क्यों?

22 साल के युवक हार्दिक पटेल के पीछे पटेल समुदाय की लामबंदी ने भारत की राजनीति को झकझोर दिया है। यूरोप के इतिहास को गौर से देखें तो प्रोपेगंडा पार्टियां अचानक प्रकट हुईं और छा गईं उन्होंने थोड़े समय के लिए ही सही पुरानी राजनैतिक पार्टियों में खलबली मचा दी। प्रोपेगंडा की यही खासियत है। यह अचानक तेजी पकड़ता है और फिर हर जगह छा जाता है। प्रोपेगंडा किसी भी राजनीतिक दल को लाजवाब करने के लिए काफी है। हार्दिक पटेल के पीछे 4-5 लाख की भीड़ बिना किसी प्रयास के क्यों जुट जाती है। यह समझना भाजपा और कॉग्रेस दोनों के लिए कठिन हो रहा है। क्या पटेल समुदाय का दोनों दलों से मोह भंग हो चुका है। भाजपा लगातार लगभग ढाई दशक से सत्तासीन है लेकिन भाजपा में आनंदीबेन पटेल को छोड़ दिया जाये तो पटेल समुदाय पर पकड़ बनाने वाला नेतृत्व नदारत है। बाकी नेता औसत दर्जे के ही हैं। कॉग्रेस ने कभी भी पटेलों को ज्यादा तरजीह नहीं दी। बल्कि वल्लभ भाई पटेल तो कॉग्रेस के महापुरुषों की सूची से ही बाहर हो चुके हैं क्योंकि उन्हें अब भाजपा के मंच पर सुशोभित किया जाता है। इसी कारण पटेल समुदाय ताकतवार होने के बावजूद भी नेतृत्व विहीन है। वह गुजरात की राजनीति में अपने आप को अलग-थलग पाता है। उसकी आकांक्षाओं को पूरा करने में मौजूदा सरकार सफल नहीं रही। हार्दिक पटेल का राजनीतिक क्षितिज पर किसी धूमकेतु सा प्रकट होना भाजपा के लिए चिंता का विषय है। कॉग्रेस गुजरात में शून्य होने की कगार पर है। कॉग्रेस को सही मायने में गुजरात में एक आंदोलन खड़ा करना था। लेकिन कॉग्रेस की मोबलाइजेशन की क्षमता अब इतनी नहीं है कि वे गुजरात में ऐसा आंदोलन खड़ा कर सकें। यह चिंता का विषय है और दयनीय स्थिति भी है। यदि हार्दिक पटेल और उनके पीछे काम करने वाले कोई राजनीतिक महत्वकांक्षा लेकर पुन: प्रकट होते हैं तो कॉग्रेस तीसरे नम्बर पर चली जायेगी। पटेलों के बीच कॉग्रेस का अच्छा खासा वोट बैंक है। यदि वह बोट बैंक हार्दिक पटेल द्वारा हड़प लिया गया तो कॉग्रेस ना घर की रहेगी ना घाट की। कॉग्रेस के लिए हार्दिक पटेल का आंदोलन खतरे की घंटी है। हार्दिक अब ऐसा नाम बन गया है जो न तो निगलते बन रहा है ना उगलते। कॉग्रेस तटस्थ होकर इस आंदोलन को देख रही है। इसमें उसका जरा भी लाभ नहीं है। जहाँ तक भाजपा का प्रश्न है उसकी असली चिंता हार्दिक पटेल नहीं है। बल्कि असली चिंता यह है कि प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति को एक नया आयाम मिल रहा है। नरेन्द्र मोदी ने खुद को पिछड़ा बताते हुए सारे देश के पिछड़ों को लामबंद करने की कोशिश की। उन्हें इसका फायदा भी मिला अब हार्दिक पटेल गुजरात में और उन्हीं के जैसे कुछ दूसरे छोटे-छोटे नेता अन्य प्रदेशों में पिछड़ों की राजनीति को अलग दिशा में ले जाने की कोशिश करने लगे तो इसका असर दूरगामी होगा। इसीलिए हार्दिक पटेल पटेल आंदोलन के बैनर तले दूसरे समुदायों को भी  रिझाने की कोशिश में है। पटेलों के अलावा कई दूसरे समुदाय भी इस आंदोलन में शामिल हो सकते हैं। यही असली वजह है कि भाजपा नीत सरकार खबराई हुई है। नरेन्द्र मोदी ने ट्यूट की है उसका सार यही है कि जिस गुजरात को उन्होंने विकास के ट्रेक पर लाने की कोशिश की वह भटक रहा है। लेकिन  ट्यूट से जुड़ा हुआ सवाल यह भी है कि यदि गुजरात समृद्ध और सुखी है तो वहां आंदोलन की आवश्यकता क्यों पड़ी।                                            क्या आरक्षण सौ प्रतिशत कर दिया जाय?

आज ब्राम्हण और बनियों के एक वर्ग को छोड़ दिया जाय तो हर समुदाय आरक्षण की मांग करने लगा है। कुछ समय पहले सरकारी नौकरी में विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधित्व से संबंधित एक सर्वेक्षण किया गया था जिसमें यह पता चला था कि ब्राम्हण और कायस्थ सर्वाधिक संख्या में हैं। उसके बाद बाकी समुदायों का नम्बर आता है। उस वक्त एक सुझाव यह भी आया था कि जो समुदाय सरकारी नौकरी में ज्यादा हैं उन्हें सीमित रखने के लिए उनका कोटा तय कर देना चाहिए। संविधान सभा ने बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में 10 वर्ष के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, लेकिन पहले कांग्रेस ने इसे लगातार 50 वर्ष तक बढ़ाया। बाद में बाकी सरकारें भी ऐसा ही करने लगीं। हालांकि जिस वर्ग के लिए यह प्रावधान था उसका भाग्य नहीं बदला। क्योंकि उसी वर्ग में एक अभिजात्य वर्ग तैयार हो गया है। जो पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1993 से लेकर वर्ष 2013 तक लगभग 4 बार क्रीमी लेयर का मामला सरकार को हल करने के लिए कहा है। लेकिन यह वर्ग इतना शक्तिशाली है कि सरकार क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभों से अलग करने का साहस ही नहीं जुटा पाती। यह सुझाव अव्यवहारिक बताकर खारिज कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि आरक्षण किसी भी स्थिति में 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकता। इस 50 प्रतिशत में भी अनुसूचित जाति और जन जाति का हिस्सा तय है। इसके बाद ओबीसी तथा अन्य दूसरी कैटेगिरी बचती है। जिनके लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है। इसी 27 प्रतिशत पर हर समुदाय दावा कर रहा है। चाहे वे पटेल हों, चाहे गुर्जर , चाहे वे जाट हों, चाहे वे पाटीदार हों या अन्य कोई समुदाय। कभी कायस्थों ने भी इसी में अपनी हिस्सेदारी जतायी थी। लेकिन महज 27 प्रतिशत हिस्से में क्या होगा। आंकड़े बताते हैं कि सारे देश में सभी राज्यों और केन्द्र में प्रतिवर्ष सरकारी पद, फौज को छोड़कर कभी भी एक लाख से अधिक नहीं निकलते। जिनमें से 50 प्रतिशत के करीब सामान्य हैं यानी कोई भी व्यक्ति चाहे वे किसी समुदाय के हों आवेदन कर सकते हैं। बचे 50 प्रतिशत पद जिनकी तादात कभी भी 50 हजार से अधिक नहीं रहती आरक्षित वर्ग के हिस्से में आते हैं। जिस वर्ग में प्रतिवर्ष 2 करोड़ शीक्षित बेरोजगार पैदा हो जाते हैं वहां 50 हजार की संख्या छलावा ही है। लेकिन इसके बाद भी आरक्षण के लिए आंदोलन होते हैं, रेल्वे ट्रैक उखाड़े जाते हैं, बसें जलाई जाती हैं, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया जाता है। पर लोगों की यह समझ में नहीं आता कि आरक्षण मिलने के बाद भी उनमें से 90 प्रतिशत को कभी सरकारी नौकरी नहीं मिली। इसी लिए आरक्षण और इस तरह के तामम आंदोलन नेताओं के लॉन्चिग पैड बन गये हैं। कभी महेन्द्र सिंह टिकैत, सुभाष घीसिंग ने अपनी राजनीति इसी अंदाज में शुरू की अब कर्नल बैंसला और हार्दिक पटेल लॉन्च हो गये हैं।                                                                                     लेकिन शोषितों के हालात नहीं बदले

हर तरफ मरहला-ए-दारो-सलीब आज भी है,  जो कभी था इंसा का नसीब आज भी है,

जगमगाते हैं उफक पार सितारे लेकिन,रास्ता मंजिल-ए-हस्ती का मुहीब आज भी है।

लगभग 10 के करीब आयोग। अनगिनत कमेटियां। राज्यों और केेन्द्र में 1950 से जारी आरक्षण। जिसे 10-10 वर्ष बढ़ाया जा रहा है। लेकिन इसके बाद भी दलितों, शोषितों, जनजातियों के हालात क्यों नहीं बदले। सारे आयोग सारे कमीशन, सारी रिपोट्र्स यही कहती हैं कि भारत में दलित और आदिवासियों का बड़ा वर्ग आरक्षण के लाभ से वंचित है। अभी भी हाशिए पर है। गरीब है और शोषित है। इसका अर्थ है कि आरक्षण ने उनके मुस्तकबिल को नहीं बदला। उनमें एक वर्ग अवश्य पैदा हो गया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी लाभान्वित होता जा रहा है। एक प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक ने किसी पत्रिका में एक शोध पूर्ण लेख लिखा था जिसका सार यह था कि पूंजीवाद और आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं साथ नहीं चल सकती। एक तरफ डंकल प्रस्तावों को भारत ने किसी विषधर की तरह गले में लपेट लिया और अर्थव्यवस्था खोलते हुए विश्व बैंक तथा एडीबी की शर्तों के समझ घुटने टेक कर असंख्य सरकारी नौकरियां खत्म कर दीं। अब इन नौकरियों के बचे खुचे अवशेषों में सभी हिस्सा चाहते हैं। यदि आरक्षण देना ही है। तो क्रीमी लेयर को अलग किया जाए। समाजवादी अर्थशास्त्र अपनाया जाए। सरकारी क्षेत्र का दायरा बढ़ाया जाए। क्या समय का चक्र अब पीछे लौट सकता है? इसलिए सारे आरक्षण आंदोलन लॉचिंग पैड बन गए हैं। अंग्रेजों ने पाकिस्तान छोड़ा हमसे लडऩे के लिए और हमने आरक्षण अपनाया आपस में लडऩे के लिए। आरक्षण अब अगड़ों-पिछड़ों की नहीं आरक्षित और गैर आरक्षितों की लड़ाई की जमीन तैयार कर रहा है।

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