16-Sep-2015 01:47 PM
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बेतकल्लुफ वे गैरों से हैं,
नाज उठाने को हम रह गए।
बिहार में अब अपनों के नाज नखरों का दौर चल रहा है। दलित राजनीति के महारथी जीतनराम मांझी और रामविलास पासवान तो समझौता हो जाने के बावजूद एनडीए के भीतर युद्धरतÓ हैं ही,

दलित वोटों पर दावेदारी कर रहे लालू-नीतीश के अलावा राहुल गांधी भी दलित रथ पर सवार होने की योजना बना रहे हैं। सुनने में आया है कि 19 सितंबर को राहुल अपने चुनावी अभियान का जब श्रीगणेश करेंगे तो बाबा साहब अंबेडकर और जगजीवन राम जैसे दलित नेताओं के विशाल चित्रों पर माला पहनाते हुए और शीष झुकाते हुए जनता के सामने नामुरदार होंगे। लब्बोलुबाब यह है कि दलित -मुस्लिम और यादव बिहार की चुनावी राजनीतिक के केंद्र में हैं। मुलायम सिंह यादव ने उत्तरप्रदेश की भयानक परिस्थितियों के मद्देनजर जनता परिवार से दूरी बना ली है और अब एक नए रहनुमा असदुद्दीन ओवैसी भी चुनावी मैदान में हैं- 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटों के सहारे। बहुआयामी चुनावी परिदृश्य में जातिवाद, सम्प्रदायवाद के बरक्स नीतीश और नरेंद्र मोदी का विकासवाद बिहार की चुनावी लड़ाई का मुख्य मुद्दा है। बाबा रामदेव ने ठीक ही कहा कि विकास को लेकर नीतीश और नरेंद्र मोदी की तुलना उचित नहीं है। लेकिन वे इस बात को रेखांकित करना भूल गए कि जब तुलना उचित नहीं है तो मोदी विकास के मुद्दे को ही तूल क्यों देते रहे हैं। दरअसल जो मोदी की सहूलियत है वही लालू, कांग्रेस और नीतीश की मजबूरी बन चुकी है। मोदी विकास के मैदान में सबको पटकनी देने का सोच रहे हैं, नीतीश ने भी इसका तोड़ निकाल लिया है। अब नीतीश की जनसभाओं में विकास का प्रमुखता से बखान हो रहा है। नीतीश जानते हैं कि भाजपा की आलोचना कर और साम्प्रदायिकता का मुद्दा उठाकर वे दौड़ से बाहर हो जाएंगे। इसलिए उन्होंने रणनीति बदली है। शत्रुÓ का दुर्बल पक्ष नहीं बल्कि मजबूत पक्ष उनके निशाने पर है। वे मुंहजुबानी आंकड़ों की बरसात करते हैं। उनकी उंगलियों के पौर पर मानो आंकड़े लिखे हुए हैं। उनकी शरीर की भाषा संख्याओं से अभिव्यक्त हो रही है।
बिहार कितना बदला, कितनों का उद्धार हुआ, कितनों के काम हुए, कितनी बेरोजगारी खत्म हुई, कितनी विकास योजनाएं चली, क्या बदला और क्या बदलना जरूरी है। नीतीश बिना थके बोल रहे हैं। बीच-बीच में जुमले भी चलते हैं। डीएनए को लेकर उन्होंने खूब बयानबाजी की, इसे मुद्दा बनाने की कोशिश भी की। किन्तु जब डीएनए की टीआरपी गिर गई तो नीतीश और लालू दोनों विकास पर लौट आए। जनता के लिए यह तालमेल थोड़ा असुविधाजनक है। क्योंकि लालू के सर पर जंगलराज का पंखÓ (स्नद्गड्डह्लद्धद्गह्म् द्बठ्ठ ह्लद्धद्ग ष्टह्म्श2ठ्ठ) लगा हुआ है। इसीलिए राहुल गांधी भी परेशान हैं। भीतरी खबर यह है कि लालू के साथ मंच साझा करने को लेेकर जो तनातनी शुरू हुई थी वह लालू पुत्र तेजस्वी कुमार पर आकर रुकी है। अब लालू नहीं उनके सुपुत्र तेजस्वी राहुल के मंच की शोभा बढ़ाएंगे।
समय का फेर है कभी कांग्रेस को भीड़ नहीं मिलती थी तो लालू यादव को छत्तीसगढ़ से लेकर महाराष्ट्र तक हर जगह कांग्रेस की सभाओं में स्टार प्रचारक के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। अब उन्हीं लालू से कांग्रेस को परहेज है। विडंबना यह है कि बिहार में परस्पर विरोधी विचारधाराएं भाजपा को पटखनी देने के लिए एक मंच पर हैं और यही जनता के मिजाज में बदलाव का कारण है। सितंबर के पहले सप्ताह में 3 सर्वेक्षण फेंकेÓ गए। एक स्थानीय स्तर पर किया गया जिसका कोई महत्व नहीं है। लेकिन दो सर्वेक्षण उन राष्ट्रीय एजेंसियों ने किए थे जिन्होंने दिल्ली के चुनाव की भविष्यवाणी की थी। इनमें से एक सर्वेक्षण एनडीए को तो दूसरा जनता परिवार के साथ कांग्रेस के महागठबंधन को आगे बता रहा है। दोनों का औसत निकाला जाए तो तस्वीर यह बनती है कि दोनों गठबंधनों में ज्यादा अंतर नहीं है और हार-जीत का फैसला कुछ समीकरण करेंगे।
छोटे-छोटे वोट बैंक ज्यादा अहमियत रखते हैं। इन्हीं की भूमिका इन चुनावों में महत्वपूर्ण है। 16 प्रमुख जातियां, उपजातियां, सहायक जातियां और 4 समुदाय- बिहार की राजनीति बंटी हुई है। दलित, महादलित, मुसलमान के आगे भी बिहार की राजनीति है। यह इन राजनीतिक दलों को समझना होगा। सुखद यह है कि नीतीश इस पक्ष को भांप रहे हैं। उन्होंने इन समुदायों से इतर कई दूसरे समुदायों की नब्ज भी टटोलने की कोशिश की है। देर से ही सही लेकिन नीतीश ने आचार संहिता लगने से पहले सारे वर्गों को साधना शुरू कर दिया था। उन्होंने कुछ योजनाएं भी लागू करवाई। यह बात अलग है कि चुनाव आयोग ने जो प्रशासनिक सर्जरी की है उसके मद्देनजर अब नीतीश को राजनीति की बिसात अलग फ्रेम में बिछानी पड़ेगी।
यह नीतीश के लिए एक तरह से क्चद्यद्गह्यह्य द्बठ्ठ स्रद्बह्यद्दह्वद्बह्यद्ग है कि मुलायम सिंह यादव ने ऐन वक्त पर अपना निर्णय बदल लिया, क्योंकि मुलायम के रहते ताकत का केंद्र लखनऊ बनने की आशंका थी, नीतीश इसे बर्दाश्त नहीं करते, वे पटना के बाहर ताकत का केंद्र निर्मित होते नहीं देख सकते थे। उन्हें मालूम है कि दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने जो गलती की थी वही गलती मुलायम के नेतृत्व में महागठबंधन करने जा रहा था। इसलिए उन्होंने जानबूझकर गठबंधन में मुलायम को ज्यादा तवज्जो नहीं दी और चार सीटों में ही उन्हें समेट दिया। लालू यादव कसमसाकर रह गए। वे मनाने भी गए लेकिन लालू बिना हथियार के योद्धा हैं। उनके हाथ में कुछ नहीं है। भीतरी सूत्र बताते हैं कि लालू मुलायम को कोई ठोस आश्वासन नहीं दे सके। इसलिए मुलायम ने भी उन्हें रबड़ी-मिठाई खिलाकर रवाना कर दिया। वैसे भी मुलायम की बिहार में पकड़ न के बराबर है। यादव वोट पूरा लालू यादव को जाता है और मुसलमानों का वोट धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच बंट जाता है। सपा यूपी से लगे कुछ एक इलाकों में सक्रिय है इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन एमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने लालू और नीतीश को असहज कर दिया है। उन्हें ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। दोनों दलों के नेताओं ने औवेसी को भाजपा से ज्यादा कोसा है। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वे किस कदर बेचैन हैं। चुनाव का पहला चरण 12 अक्टूबर को है और अंतिम चरण 5 नवंबर को है। इस दौरान लालू और नीतीश अपने पुख्ता वोट बैंक को ज्यादा समय देना चाहते थे लेकिन औवेसी उन्हें मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में ज्यादा व्यस्त रखेंगे। औवेसी राष्ट्रीय राजनीति में सर्वमान्य मुस्लिम नेता बनकर उभरने के लिए बेताब हैं, लेकिन उनका यह उभार बिहार में कामयाब हो गया तो यूपी में भी यह प्रयोग दोहराया जाएगा। इसलिए नरेंद्र मोदी की आंधी से कहीं ज्यादा ओवैसी रूपी बयार ने बिहार का मिजाज बिगाड़ दिया है।
जहां तक भाजपा का प्रश्न है किसी चेहरे का अभाव अब भाजपा की कमजोरी बन चुका है। मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके चुनाव लडऩा कितना जरूरी है यह भाजपा को अब महसूस हो रहा है। क्योंकि राजनीतिक दल के रूप में भाजपा भले ही पहली पसंद हो लेकिन नेता के रूप में बिहार में अभी भी नीतीश कुमार ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। यदि जनता ने नीतीश के सामने मोदी को रखा है तो इसमें जनता का दोष नहीं है बल्कि यह भाजपा की कमजोरी है कि वह बिहार में कोई सर्वमान्य नेता पिछले एक दशक में पैदा नहीं कर पाई है। मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों के विपरीत बिहार में ताकतवर होते हुए भी भाजपा नेतृत्व के मामले में पिछड़ती रही है। यूं तो बिहार से कई बड़े नेता हैं। चाहे वे सुशील मोदी हों या फिर रविशंकर प्रसाद पर बिहार की स्थानीय राजनीति में किसी की भी पकड़ नहीं है। इसलिए नरेंद्र मोदी ही बिहार के स्टार प्रचारक हैं। जातीय समीकरणों में भी भाजपा पिछड़ा वर्ग पर अवश्य प्रभावी है लेकिन अन्य समुदायों के बीच भाजपा की पहचान उतनी सुदृढ़ नहीं है। बिहार में कोई भी बड़ा यादव नेता भाजपा नहीं दे पाई है। शाहनवाज हुसैन जैसे मुस्लिम नेता भाजपा को मुस्लिम वोट नहीं दिलवा सकते। भाजपा की जीत तभी संभव होगी जब लोकसभा चुनाव की तरह मोदी रूपी आंधी विधानसभा चुनाव में भी चलेगी, लेकिन कब तक और कैसे?
चुनाव आयोग की सख्ती
इस बार बिहार चुनाव में चुनाव आयोग कुछ ज्यादा ही सक्रिय और सख्त है। जीतनराम मांझी के बेटे को 4 लाख से अधिक रुपयों के साथ गिरफ्तार करके यह संकेत दे दिया गया है कि धांधली नहीं चल पाएगी। कई जगह छापे भी पड़े हैं। चुनावी सामग्री के वितरण से लेकर प्रचार प्रसार के हर माध्यम पर चुनाव आयोग की नजर है। कई रैलियों और आयोजनों को चुनाव आयोग ने पहले भी रद्द कर दिया था। इस बार बोगस वोटिंग रोकने के लिए विशेष इंतजाम किए गए हैं। सुरक्षा बल भी पूरी तरह मुस्तैद है बस मौसम से ही सबको डर लग रहा है।
क्यों मान गए मांझी
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अंतत: जीतनराम मांझी को मना ही लिया। अब वे 17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और उनके पांच उम्मीदवार भाजपा के बैनर तले चुनाव लड़ेंगे। इसका अर्थ ये हुआ कि मांझी 22 सीटें लेने में कामयाब रहे। लोक जनशक्ति पार्टी को 41 सीटें देकर भाजपा ने साध लिया है। वहीं रालोसपा को 25 सीटें मिली हैं। भाजपा ने 155 सीटों पर चुनाव लडऩा किन हालातों में स्वीकारा है इसे केवल समझा जा सकता है। भाजपा के सभी विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव लडऩे की बात उठी थी लेकिन अब भाजपा को 155 से ही संतोष करना पड़ा। इसे लेकर पार्टी के भीतर मतभेद भी चल रहा है, लेकिन मांझी खुश हैं।
दो सर्वे दोनों के निष्कर्ष अलग-अलग
14 सितंबर तक बिहार में 243 सदस्यीय विधानसभा के लिए होने वाले चुनावों के संबंध में विभिन्न एजेंसियों द्वारा कई सर्वेक्षण निकाले गए लेकिन इनमें से सर्वाधिक प्रभावशाली दो एजेंसियों ने जो सर्वेक्षण किए हैं उनमें दोनों गठबंधनों के बीच कड़ा मुकाबला है। पहले एक टीवी चैनल द्वारा की गई रायशुमारी में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस के महागठबंधन को 116 से 132 सीटें मिलने का पूर्वानुमान जताया गया था। कहा गया था कि बीजेपी नीत गठबंधन को 94 से 110 सीटें मिल सकती हैं। इस गठबंधन में लोजपा, आरएलएसपी और एचएएम शामिल हैं। यह रायशुमारी सी-वोटर ने की है जिसका कहना है कि उसने अगस्त माह से सितंबर के पहले सप्ताह के बीच सभी विधानसभा सीटों में अलग अलग जगहों पर 10,683 लोगों का साक्षात्कार लिया और निष्कर्ष निकाला। एजेंसी का कहना है कि राज्य स्तर पर खामियों में तीन फीसदी की और क्षेत्रीय स्तर पर पांच फीसदी की कमी या बढ़त हो सकती है। वर्ष 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में जेडीयू और बीजेपी के गठबंधन को 206 सीटें मिली थीं जबकि रामविलास पासवान के साथ लालू प्रसाद के आरजेडी की अगुवाई वाले गठबंधन ने केवल 25 सीटें जीती थीं। लेकिन बाद में एक और सर्वेक्षण आया जिसमें एनडीए को फायदा दिखाया गया। यह सर्वेक्षण नरेंद्र मोदी की रैली के बाद आया था। इस सर्वेक्षण से यह लग रहा है कि मोदी की रैलियों से अभी भी बिहार में फर्क पड़ सकता है। हालांकि रैली की भीड़ हर बार वोट में तब्दील नहीं होती। इसका अनुभव मोदी को है और भाजपा को भी। इसीलिए स्वाभिमान रैली में जब कम भीड़ दिखी तो नीतीश ने ज्यादा चिंता नहीं की थी।
-बिहार से सतिन देसाई