01-Sep-2015 06:48 AM
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बिहार की सियासत में शह-मात का खेल चल रहा है। नरेन्द्र मोदी ने जो भारी भरकम पैकेज की घोषणा की है उसके बाद नीतीश, लालू और कॉग्रेस की स्थिति साँप-छछंूदर के

समान हो चुकी है। न निगलते बन रहा है न उगलते। पैकेज की आलोचना करते हैं तो बिहार की जनता नाराज हो सकती है और प्रशंसा करते हैं तो श्रेय नरेन्द्र मोदी को जा सकता है। एक तरफ कुँआ है तो दूसरी तरफ खाई है। राजनीतिक विडबंना की यह पराकाष्ठा है। नीतीश इससे पहले कभी भी इस तरह के वैचारिक दलदल में नहीं फंसे। लालू की बात अलग है। लालू मसखरी का प्रहसन रचते-रचते बिहार में लगातार लम्बे समय तक कायम रहे और जंगल राज को उन्होंने बिहार की जनता का मुस्तकबिल बना दिया था। लेकिन नीतीश दुर्भाग्य के इस कुहासे में किसी सूर्य के समान उदित हुए और बिहार में विकास की गंगा बहा दी। निश्चित रूप से नीतीश का सितम्बर 2013 तक का लगभग 7 वर्र्षीय कार्यकाल लाजवाब था उस दौरान उन्होंने लालू प्रभाव से बिहार को मुक्त करा दिया था। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद यह संक्रमण अब फिर नीतीश के आसपास आच्छादितÓ हो गया। जिस तरह वे दृढ़ता से नरेन्द्र मोदी के खिलाफ खड़े हो गये थे और एक झटके में एनडीए से बाहर निकल आये थे उस वक्त बिहार ही नहीं देश की जनता के एक तबके में यह संदेश गया था कि मोदी का मुकाबला यदि कोई कर सकता है तो वह नीतीश ही हैं। लेकिन लोकसभा चुनाव की पराजय के बाद जिस तरह उन्होंने जंगल राज के पैरोकार लालू यादव से हाथ मिलाया उसके बाद जनता ने यह समझ लिया कि नीतीश का लक्ष्य कुर्सी है। उन्हें कुर्सी ज्यादा प्रिय है। यदि नीतीश थोड़ा जोखिम उठाते हुए सभी राजनीतिक दलों से समान दूरी बनाकर अपना अलग वजूद कायम करने की कोशिश करते तो शायद सत्ता भले ही ना मिलती लेकिन देर सबेर एक ज्यादा विश्वसनीय और सशक्त नेतृत्व के रूप में उनकी पहचान अवश्य बनती अब ढाक के वही तीन पात-फिर वही कुंजे क$फस, फिर वही सैय्याद का घर। आखिर बिहार की जनता को मुक्ति की राह कब मिलेगी? उसें सही नेतृत्व कब मिलेगा? अवसरवादी, जातिवादी, संप्रदायवादी राजनीति से आजादी कब मिलेगी? ये प्रश्न आगामी विधान सभा चुनाव के मद्दे नजर कुछ ज्यादा ही मौजूं हो उठे हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त भी बहुत सी अनसुलझी पहेलियां हैं जिन्हें सुलझाना होगा। लालू-नीतीश द्वय मुसलमानों के मतों को लेकर खासे चिंतित हैं। एआईएमआईएम (ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) के अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी ने 16 अगस्त को किशनगंज में रैली आयोजित कर लालू-नीतिश को बैचेन कर दिया है। किशनगंज वही इलाका है जहां भाजपा मोदी लहर में भी नहीं जीत पाई थी। यहां कुछ क्षेत्रों में 70 प्रतिशत तक मुसलमान है। यही चिंता का विषय है। सीमांचल के लगभग 7 जिले ऐसे हैं जहां पर मुसलमानों की संख्या 20 से लेकर 55 प्रतिशत तक है। जिस तरह किशनगंज में ओवैसी को हाथों-हाथ लिया गया है उससे जनता परिवार में बेचैनी होना स्वाभाविक है। ओवैसी ने महाराष्ट्र चुनाव में 24 विधानसभा उम्मीदवार उतारे थे। जिनमें से 2 उम्मीदवार जीतने में कामयाब भी रहे और ओवैसी की पार्टी को 5 लाख वोट भी मिले। इस जीत से उत्साहित ओवैसी एआईएमआईएम को अब अखिल भारतीय स्तर पर लाने के ख्वाब देख रहे हैं। बिहार में 25 सीटों पर उनकी पार्टी चुनाव लडऩे की तैयारी में है। यदि ऐसा हुआ तो लालू-नीतिश का गणित अवश्य गड़बड़ाएगा। नीतिश कुमार ने तो ओवैसी को वोट की राजनीति न करने की सलाह तक दे डाली है और कहा है कि उन्हें सोचना चाहिए कि वे देश को किस तरफ ले जा रहे हैं। लेकिन ओवैसी का कहना है कि धर्मनिरपेक्ष दलों में मोदी को हराने की ताकत नहीं है। धर्मनिरपेक्ष दल ताकतवर होते तो बिहार, उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव में उनकी दुर्गति न होती और न ही झारखंड जैसे राज्यों में वे विधानसभा चुनाव हारते। ओवैसी की इस दलील में दम तो है। वैसे भी नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद से सांप्रदायिक लावा खदबदा रहा है। उत्तरप्रदेश में जिस तरह के परिणाम आए उससे साफ लगा कि राजनीतिक ध्रुवीकरण अब पिछले तीन दशक में सबसे ज्यादा है। राजनीति के एक धु्रव पर नरेंंद्र मोदी हैं तो दूसरे धु्रव पर लालू, नीतिश, मुलायम और बची-खुची कांग्रेस है। लेकिन ओवैसी अलग ही प्रकार के मतदाताओं की पसंद हो सकते हैं। खासकर उन मतदाताओं की जो कट्टर सांप्रदायिक एजेंडे से प्रभावित होते आए हैं। ओवैसी को मुसलमानों का तोगडिय़ा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हिंदुओं में जो वर्ग तोगडिय़ा को पूजता है। मुसलमानों में उससे मिलता जुलता वर्ग ओवैसी को अपना आदर्श मानता है। चिंता की बात तो यह है कि इस वर्ग की तादाद लगातार बढ़ रही है। यदि ऐसा न होता तो ओवैसी की पार्टी को महाराष्ट्र में दो सीटें न मिलती। गनीमत है ओवैसी ने उत्तरप्रदेश और बिहार में लोकसभा चुनाव नहीं लड़े। अन्यथा नतीजे और भी चौकाने वाले हो सकते थे। अब बिहार के विधानसभा चुनाव में ओवैसी के आने से माहौल हिंदू बनाम मुसलमान बन गया और उसी तरह का ध्रुवीकरण हो गया तो मोदी के लिए यह एक सुखद परिवर्तन ही कहलाएगा लेकिन इसमें लालू-नीतिश की राजनीति पिट जाएगी। एक जमाने में लालू ङ्क्षहदू मामलों की कट्टर मुखालफत किया करते थे। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोक दिया था। लेकिन आज चुनावी नतीजे देखकर लालू के हौसले भी पस्त पड़ गए हैं।
लालू जानते हैं कि यदि मुसलमान भावुक हो सकता है तो हिंदू भी उतना ही भावुक हो सकता है और भावुकता में उसका फैसला जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसी संकीर्णता से परे संप्रदायवाद से ओत-प्रोत हो जाए इसमें कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। यही कारण है कि ओवैसी का आगमन बोतल में से जिन्न निकलने के समान है। यदि वे 25 विधानसभा क्षेत्रों में लालू-नीतिश का संतुलन तोडऩे में कामयाब रहे तो भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। इसलिए भीतर ही भीतर ओवैसी को मनाने के प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन उनसे गठबंधन कोई नहीं करना चाहता। जाहिर है गठबंधन करने से वे बेनकाब हो जाएंगे-ठीक उसी तरह जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने लालू-नीतिश आदि के साथ मंच साझा करके एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। विश्लेषकों का कहना है कि इससे केजरीवाल बेनकाब हो गये हैं। केजरीवाल अकेले चुनाव लड़ेंगे तो अंतत: लालू-नीतीश को ही नुकसान पहुँचेगा इसलिए केजरीवाल प्रकट रूप में सामने ना आये लेकिन भीतर ही भीतर उन्होंने लालू-नीतीश का समर्थन किया हुआ है। ऐसे में ओवैसी ही भाजपा की एकमात्र उम्मीद हैं। हाल ही में ओवैसी ने गैस सब्सिडी छोड़कर मोदी की मुहिम में अपना छोटा सा योगदान दिया है। बिहार में यदि वे पच्चीस सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो यह मोदी के लिए बड़ा भारी योगदान हो जायेगा।शत्रुघ्न सिन्हा को खामोश कर सकती है भाजपा
भाजपा सांसद और फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा की ओर से लगातार पार्टी लाइन से अलग हटकर बयान देने को लेकर भाजपा आलाकमान बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कड़ा फैसला ले सकती है। पार्टी नेताओं का कहना है कि वे कई बार पार्टी की विचारधारा के विपरीत जाकर ऐसे बयान दे रहे हैं जिससे पार्टी को शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है। गौर हो कि शत्रुघ्न सिन्हा इन दिनों लगातार ऐसे-ऐसे बयान दे रहे हैं, जिससे लगता है कि कहीं वे अपनी ही पार्टी का खेल बिगाडऩे में तो नहीं जुटे हैं। अब बिहारी बाबू ने कहा है कि वे रामविलास पासवान को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। बताया जाता है कि भाजपा की बिहार ईकाई के नेताओं ने आलाकमान को शत्रुघ्न पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई को लेकर पत्र भी लिखा है, लेकिन पार्टी चुनाव से पहले शत्रुघ्न पर कार्रवाई करने से बच रही है। नेताओं का कहना है कि इससे शत्रुघ्न को पार्टी के खिलाफ खुलकर बोलने का मौका मिल जाएगा, जो चुनाव में भाजपा के लिए नुकसानदायक हो सकता है। गौरतलब है कि शत्रुघ्न सिन्हा कई बार सार्वजनिक मंचों से बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार को विकास पुरुष करार देते हुए उनकी तारीफ कर चुके हैं। यही नहीं मुंबई हमले के दोषी याकूब मेमन को फांसी नहीं देने वाली याचिका पर शत्रुघ्न सिन्हा ने हस्ताक्षर किए थे। जिससे भाजपा को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी। इसके लिए पार्टी ने शत्रुघ्न को आड़े हाथों लिया था। बताया जाता है कि सांसद शत्रुघ्न पार्टी के भीतर अपनी उपेक्षा किए जाने से नाराज हैं। शत्रुघ्न कई बार नरेंद्र मोदी की आलोचना कर चुके हैं। वहीं अब बिहार चुनाव में भी उन्हें कोई खास अहमियत नहीं मिल रही है, जिससे नाराज शत्रुघ्न भाजपा पर निशाना साधने का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं। वहीं दूसरी ओर अगर भाजपा ने किसी अगड़े को नेता प्रोजेक्ट करने का इशारा भी किया तो पिछड़ा गोलबंदी में देर नहीं लगेगी। भले ही उसके पास दलित और पिछड़ा समर्थन दिखता है। लेकिन इन समाजों के सारे नेता सहयोगी दलों के हैं या पार्टी में हाशिये पर रहे हैं। अगर बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी जमती है तो कल को देश भर में अपना अहँ छोड़कर ज़हर पीने यानी भाजपा विरोधी गठबंधन करने वाले नेताओं की लाइन लग जाएगी। उत्तर प्रदेश मेँ मायावती और मुलायम मिलें न मिलें। लेकिन इन दोनों में कांग्रेस से गठजोड़ करने के लिए उसी तरह की होड़ लगेगी जैसी बिहार में जदयू और राजद ने लगाई थी। वैसे गैर कांग्रेसवाद की तरह गैर भाजपावाद या सेक्युलरवाद की राजनीति अब भी परिभाषित नहीं है, लेकिन यह प्रवृत्ति तेज हो जाएगी।
-रजनीकांत पारे