राख में सांस तलाश रही कांग्रेस
12-Sep-2015 05:11 AM 1234945

राख में सांस तलाश रही कांग्रेस

हालांकि अपने अहं की खातिर सोनिया और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी संसद के मानसून सत्र को विफल कराकर ही माने। इस पूरे सत्र के दौरान कांग्रेस ने लोकसभा और राज्यसभा में जैसा बर्ताव किया, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। कांग्रेस ने जिन मसलों को लेकर सरकार को घेरा और संसद नहीं चलने दी, वे बेतुके ही अधिक थे। ललित मोदी की मदद के मामले में सुषमा स्वराज पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने और व्यापमं घोटाले के लिए शिवराज सिंह चौहान को जिम्मेदार ठहराकर उनके इस्तीफे मांगने पर अड़ी कांग्रेस ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि इन नेताओं का मामला ए. राजा, पवन बंसल, अश्वनी कुमार या फिर अशोक चह्वाण जैसा नहीं है, जिन्हें मनमोहन सिंह के समय इस्तीफा देना पड़ा था। हालांकि कांग्रेस ने मोदी सरकार पर संसद के बाहर और संसद के अंदर जिस तरह का आक्रामक रूख अपनाया है, उससे अभी देश तो नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी को जरूर लग रहा है कि कांग्रेस जल्द वापस लौटेगी।

इतिहास पलटें तो 1977 हो या 2014 स्थितियां एक जैसी लग रही हैं। तब 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। लेकिन जनता की बढ़ती नाराजगी के बाद 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव कराने का फैसला लिया। इस दौरान विपक्ष मजबूत हो चुका था। जब नतीजे आए तो कांग्रेस को 153 सीटें मिलीं। 197 सीटों का नुकसान हुआ। कहा जाने लगा कि कांग्रेस खत्म हो जाएगी। अब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस 10 साल सत्ता में थी। लेकिन मोदी लहर के आगे कांग्रेस बुरी तरह सिमट गई।  इतिहास में उसे सबसे कम 44 सीटें मिलीं। अब कांग्रेस के सामने अस्तित्व बचाने की चुनौती है। वैसी ही चुनौतियां जैसी इंदिरा गांधी के समक्ष 1977 में थी।

इंदिरा गांधी 1977 के चुनाव के बाद पार्टी के प्रति जनता की खराब हुई धारणा को बदलना चाहती थीं। पार्टी के कई नेता असंतुष्ट थे। इंदिरा गांधी को बगावत रोकनी थी। संजय गांधी का प्रभाव नियंत्रित कर पार्टी पर पकड़ फिर से मजबूत करनी थी। बहुत कुछ वैसी ही परिस्थितियां 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया गांधी के सामने हैं। उन्हें जनता की यह धारणा बदलनी है कि पार्टी कमजोर हो चुकी है। पार्टी में खेमेबाजी को खत्म कर पार्टी पर पकड़ फिर से मजबूत बनानी है।

अगर आपको याद हो तो 22 मार्च 1977 को चुनाव में हार को स्वीकार करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा था- मैं और मेरे साथी पूरी विनम्रता से हार स्वीकार करते हैं। कभी मुझे लगता था कि नेतृत्व का अर्थ ताकत है। आज मुझे लगता है कि जनता को साथ लेकर चलना ही नेतृत्व कहलाता है। हम वापसी करेंगे। वाकई इंदिरा ने बड़ी ताकत के साथ वापसी की। तो क्या सोनिया गांधी भी इंदिरा के मार्ग को अपनाते हुए आगे बढ़ेंगी? इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। सोनिया की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह स्वयं इंदिरा नहीं बन सकतीं। राहुल के भरोसे सोनिया को कांग्रेस की राजनीति को आगे बढ़ानी है। और इस काम को बखूबी अंजाम देने में वह प्रयत्नशील भी हैं। 1977 में कांग्रेस की चुनावी हार के बाद इंदिरा गांधी ने किसानों के बीच जाकर सक्रियता बढ़ाई थी। राहुल के छुट्टी पर जाने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी वैसी ही सक्रियता दिखाते हुए राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्यप्रदेश में किसानों से मिलीं। इससे पहले भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में संसद से राष्ट्रपति भवन तक विपक्षी दलों के मार्च का नेतृत्व भी किया। अब राहुल के समक्ष बड़े मुद्दों पर सक्रियता दिखाने की चुनौती है।

सबसे पहले राहुल को कांग्रेस संगठन में अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी। अभी हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद कमल नाथ ने कहा था, कांग्रेस राहुल और सोनिया के बीच झूल रही है। इन स्थितियों से कांग्रेस को बचाने की जिम्मेदारी अब राहुल के कंधों पर है। आगे बढ़कर राहुल को पार्टी की कमान अपने हाथों में लेनी होगी ताकि फैसले केंद्रीकृत हो सकें। इससे कांग्रेस जिस तरह से अपने ही नेताओं के बीच तालमेल न होने के संकट से जूझ रही है, उससे निपटा जा सके। एक तरफ संदीप दीक्षित कह रहे हैं कि सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बने रहना चाहिए तो मिलिंद देवड़ा कह रहे हैं कि राहुल को नेतृत्व की कमान सौंपने का समय आ गया है। राहुल गांधी अगर पार्टी संगठन में सक्रिय हो जाते हैं तो उनके सामने पहली परीक्षा बिहार के विधानसभा चुनाव की होगी। राज्य में अक्टूबर में चुनाव होने हैं। कभी जनता परिवार का हिस्सा रहे लालू और नीतीश बिहार में आज एक साथ हैं। भाजपा-लोजपा के बीच गठबंधन है। बिहार के बाद अगले साल पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं। 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं जहां से 2012 में राहुल गांधी ने चुनावी प्रबंधन की शुरुआत की थी। राहुल गांधी के सियासी करियर की बात करें तो 2004 में वह पहली बार सांसद बने थे। जनवरी 2013 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। लेकिन वे 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय से पार्टी में सक्रिय हैं। तब से लेकर अब तक देशभर में लोकसभा चुनाव सहित 20 चुनाव हुए। 6 राज्यों में कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही। लेकिन उसे 5 चुनावों में ही जीत मिली। लोकसभा चुनाव सहित 15 राज्यों में पार्टी हारी है। यह बात सही है कि एक दशक के मनमोहन के शासनकाल में राहुल की हैसियत पार्टी में सिर्फ सांसद भर की रही, लेकिन ये राहुल की अपनी कमजोरी थी। दस साल का समय राजनीति में अपनी हैसियत बनाने के लिए कम समय नहीं होता वो भी तब जब

पार्टी की कमान उनकी मां सोनिया गांधी के हाथों में हो।

बहरहाल, उक्त तमाम चुनौतियों को स्वीकार कर राहुल गांधी किस तरह से कांग्रेस की राजनीतिक नाव को पार लगाते हैं इस पर देश की नजर है। निश्चित रूप से सड़क से संसद तक राहुल का नया अवतार जिस तरह से सामने आया है उससे इतना तय है कि कांग्रेस आगे बढ़ेगी क्योंकि और पीछे जाने के लिए कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं बचा है। जो स्थिति कांग्रेस की 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में हुई इससे खराब प्रदर्शन और क्या होगा। इसलिए अब कांग्रेस के लिए आगे बढऩे का वक्त है। मोदी सरकार ने बैठे-बिठाए भूमि अधिग्रहण विधेयक का मुद्दा भी दे दिया है। 67 प्रतिशत किसानों के मुद्दे को लेकर कांग्रेस एक बार फिर इतिहास दोहरा सकती है।

इतिहास पलटेंगे तो पाएंगे, कांग्रेस का इतिहास अपनी राख से फिर जन्म लेने का रहा है, बिल्कुल फीनिक्स पक्षी की तरह। तो क्या एक बार फिर इतिहास दोहरा पाएगी कांग्रेस? यह आज की तारीख में बड़ा सवाल है क्योंकि 2014 में जैसी दुर्गति कांग्रेस की हुई, पहले कभी नहीं हुई। फिर पहले की तरह इंदिरा गांधी जैसी नेता भी कांग्रेस में नहीं।

-अरविंद नारद

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