मोदी के मन का फेर
02-Sep-2015 05:17 AM 1234845

मोदी के मन का फेर

कबीर ने कहा है-

माला फेरत जुग हुआ, फिरा न मनका फेर।

करका मनका डार दे, मन का मनका फेर

68 सालों से इस देश के प्रधानमंत्री मन का मनका ही तो फेरना चाह रहे हैं।

लेकिन कर का मनका फेरना उनकी

नियति बन चुका है।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अवश्य मन का मनका फेरना चाहा, लेकिन चीन युद्ध का सदमा बर्दाश्त न कर सके। राजनीति की यही विडम्बना है। हर साल लाल किले की प्राचीर से इस देश का प्रधानमंत्री जो बोलता है उसे मंत्र ज्यादा कहा जाता है। क्योंकि प्रधानमंत्री के आसपास का तंत्र उसे ऐसे ही मंत्र चुनकर देता है जो जनता को मुग्ध किए रहें।

पिछली बार 15 अगस्त के दिन नरेंद्र मोदी के भाषण में जो ऊर्जा और ओज थी वह उनके मन के शब्दों की सामथ्र्य की वजह से थी लेकिन इस बार मोदी संभलकर बोले। 16 माह का अनुभव उन्हें यह तो सिखा ही चुका है कि राजनीति में कर का मनका ही चलता है। मोदी इस बार कुछ घोषणाएं करना चाह रहे थे, लेकिन उनके कदम ठिठक गए। संभवत: स्वयं उन्होंने और उनके भाषण लेखकों ने सच्चाई उनके सामने रखी होगी।

एक दिन पूर्व स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के उद्बोधन में दी गई चेतावनियां भी कही न कहीं मोदी के भाषण में परिलक्षित होती दिखाई दीं। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में विपक्ष का स्वतंत्रÓ व्यवहार जब अराजकता की पराकाष्ठा तक पहुंच रहा हो तो कहीं न कहीं इसका असर सरकार के कामकाज और उत्साह पर पड़ता ही है। प्रधानमंत्री भी इससे अछूते नहीं थे। भूमि अधिग्रहण विधेयक से लेकर जीएसटी तक ऐसे कई प्रावधान हंै जो संसद की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं। ऐसे में एक देश का प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से कुछ बोले भी तो कैसे। क्योंकि जो वह करना चाहता है, जो उसका विजन है उसकी राह में कई बाधाएं हैं। संसद बदले का अखाड़ा बनता जा रहा है। भाजपा ने कई शीत सत्र और अन्य सत्रों में विपक्ष में रहते हुए हंगामा किया इसलिए कांग्रेस भी अब वैसा ही हंगामा करेगी सरकार के कामकाज में अनावश्यक बाधाएं उत्पन्न करेगी, यह प्रचलन है। इसीलिए प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस का भाषण भी रस्मी ज्यादा क्रांतिकारी कम था। अन्य बातों के अलावा उन्होंने जो 2022 तक 125 करोड़ भारतीयों के संकल्प को दोहराते हुए भ्रष्टाचार खत्म करने का आवाहन किया उसका असर तब ज्यादा प्रभावी हो सकता था जब भाजपा शासित राज्यों में हो रहे घोटाले और घपलों पर कठोर रवैया अपनाया जाता। यह सच हे कि कोल ब्लॉक की नई नीलामी स्पेक्ट्रम तथा रेडियो एफएम की नीलामी से सरकार को बहुत बड़ी मात्रा में धन मिला है, लेकिन नरेगा जैसी योजनाओं में भ्रष्टाचार एक बड़ी चुनौती है। 15 हजार करोड़ रुपए की बचत एलपीजी की सब्सिडी से हुई है। लेकिन यह इस देश की जनता की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की वजह से संभव हो पाया। सरकार का इसमें इतना ही योगदान है कि सरकार ने एक प्रेरक की तरह अभियान चलाया। किंतु भ्रष्टाचार और तंत्र की लापरवाही तो लोकसेवकों, नौकरशाही और प्रशासन के बीच में व्याप्त है। उसे सुधारना अभी भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है।

सीबीआई ने वर्ष 2014 में भ्रष्टाचार के 18 सौ मामले दर्ज किए जबकि इससे पहले वर्ष 2013 में मात्र 8 सौ मामले दर्ज किए थे। यह प्रशासन को कसने की शुरुआत है या मामले अधिक होने लगे हैं। क्योंकि काले धन में सरकार दो कदम आगे बढ़कर एक कदम पीछे लौट आई है। पहले कहा जाता था कि कालाधन गरीबों के खाते में आ जाएगा, फिर कहा गया यह जुमला है, बाद में काले धन के खाताधारियों के नाम उजागर करने की बात कही गई। लेकिन वे भी सामने नहीं आ सके। इसलिए प्रधानमंत्री ने इस बार कोई घोषणा नहीं की। वन रेंक वन पेंशन को लेकर भूतपूर्व सैनिकों की हड़ताल जारी है। लेकिन प्रधानमंत्री कोई समय सीमा नहीं दे सकेंगे। क्योंकि 16 माह के अनुभव ने उन्हें बता दिया है कि समय सीमा में काम करना संभव नहीं है। प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि 15 अगस्त 2014 को जब उन्होंने लालकिले की प्रचीर से अपने विचार रखे थे उस वक्त वे नए नए थे और खुले मन से अपनी बात कह रहे थे। 16 माह बाद अब बिना किसी लाग लपेट के खुलेमन से कहने का सवाल ही पैदा नहीं होता उन्हें पता चल चुका है कि कहां कमियां हैं। उन कमियों को दूर करना जरूरी है। सच तो यह है कि उनकी सरकार द्वारा मनमोहन सरकार द्वारा बोए हुए को काट रही है। लेकिन फिर भी कुछ योजनाएं हैं जो उत्साह जगाती हैं। चाहे वह 17 करोड़ लोगों के प्रधानमंंत्री जनधन योजना के तहत खुले हुए खाते हों या फिर स्वच्छता अभियान के तहत शहरों की रैंकिंग हो। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना, जीवन ज्योति योजना जैसी कुछ योजनाएं उल्लेखनीय रूप से महत्वपूर्ण कही जा सकती हैं, लेकिन स्वच्छता अभियान का आलम यह है कि देश की राजधानी दिल्ली ही देश के शीर्ष स्वच्छ शहरों में शामिल नहीं है- हमारा अपना आंकलन ही यह बता रहा है। गंगा की सफाई तो केवल कागजों में उलझकर रह गई है। जहां तक पुराने कानूनों को खत्म करने का प्रश्न है। उन्हें समेटने के साथ यह जरूरी है कि नए कानून ज्यादा व्यावहारिक बने। आज बिल्डरों द्वारा सबसे ज्यादा ठगी की जा रही है। देश का रियल स्टेट बाजार पूंजीपतियों के हाथ में खेल रहा है। लाखों आवास खाली पड़े हैं लेकिन करोड़ों लोग आवास विहीन हैं। यह विसंगति इसलिए है क्योंकि देश में बिल्डरों पर अंकुश लगाने के लिए कानून नहीं है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री इस बारे में भी कुछ घोषणा करते तो अच्छा लगता।

अभी भी देश के 40 करोड़ लोगों की बुनियादी समस्याएं रोटी, कपड़ा और मकान है। जिस 2022 की बात प्रधानमंत्री अपने भाषण में बार-बार करते हैं। उसकी कड़वी हकीकत यह है कि 2022 तक भारत की जनसंख्या चीन बराबर हो सकती है-एक नई चुनौती। प्रधानमंत्री  को कठोर और प्रभावी जनसंख्या नीति की घोषणा भी करनी ही चाहिए जो कि वोट की राजनीति में उलझकर रह गई है।  देश के छह लाख गांवों को बुनियादी सुविधाओं से लैस करना और समस्याओं से मुक्त करना आसान नहीं है। प्रधानमंत्री ने सभी सांसदों से आग्रह किया था कि वे एक वर्ष में लगभग तीन गांव को गोद लेकर उनका विकास करें। कितने सांसदों ने इस पर अमल किया? घोषणा राजनीति में उलझकर रह गई। हर अच्छी पहल का यही हश्र होता है। सक्षम, समृद्ध, स्वस्थ, सुसंस्कृत, स्वाभिमानी, गौरवशाली और श्रेष्ठ भारत बनाने का संकल्प निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। लेकिन यह संकल्प पूरा कब होगा कौन करेगा पूरा? आजादी की 69वीं वर्षगांठ से लेकर 75वीं वर्षगांठ तक का समय ज्यादा लंबा नहीं है। इतने सीमित समय में बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है।

लय में लौट आए पीएम

राजनीति जितना तात्कालिकता का खेल है, उतना ही दीर्घकालिक फायदे हासिल करने की चुनौतीपूर्ण कला भी है। तात्कालिकता को ध्यान में रख कर उठाए गए कदमों से राजनेता को फौरी फायदा भले ही मिल जाए, लेकिन इसके जरिए मिली कामयाबी अल्पजीवी ही होती है। लेकिन दीर्घकालिक लक्ष्य को ध्यान में रखकर जुबान खोलने और सियासी कदम उठाने वाले राजनेता को अगर उसके कदमों का सियासी फायदा मिलता है तो आने वाले वक्त में वह स्टेट्समैन यानी युग परिवर्तक शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है। मोदी के मौजूदा कदम और भाषणों का निश्चित तौर पर तात्कालिक सियासी लाभ उठाना बड़ा मकसद है। लेकिन जिस तरह वे अपनी रणनीति को वक्त और स्थान को चुनकर जनता के बीच उछालते हैं, उससे लगता है कि कहीं न कहीं उनके मन में उन्हें स्टेट्समैन के तौर पर याद किए जाने की चाहत छुपी हुई है। हाल के भाषणों और कदमों का संकेत तो यही कहता है। दुबई के क्रिकेट स्टेडियम में चालीस हजार लोगों के सामने अपने 75 मिनट के भाषण में उन्होंने जिस तरह लोगों का दिल जीता, उससे एक बार फिर अमेरिका में न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर पर हुए भाषण की याद ताजा कर दी। बुत परस्ती के विरोधी देश की सरजमीन पर भारत माता की जय बोलकर जिस तरह प्रधानमंत्री ने हर उस मुद्दे को छुआ, जो भारतीय गौरव गाथा की बखान करता है, उससे अमीरात में बैठे हजारों भारतीय तो खुश हुए ही, भारत में भी उनके चहेतों को लगा कि उन्होंने अपनी लय नहीं खोई है। उनकी लय बरकरार है। हालांकि आलोचना करने वाले यह कहने से नहीं चूक रहे कि दुबई में लोगों के बीच सवा घंटे का लंबा भाषण नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर वहां मौजूद चालीस हजार लोग भाषण सुनने के लिए टिके क्यों रहे। उनका टिकना ही साबित करता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी लय पर अपना काबू बरकरार रखा है।

नरेंद्र मोदी जिस भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं, उसके बारे में माना जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। मोदी ने कुछ साल पहले गुजरात के मुख्यमंत्री रहते मुस्लिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया था तो उनकी बड़ी लानत-मलामत हुई थी। तब उन्हें धर्मनिरपेक्षता की महान परंपरा के भंजक के तौर पर दिखाया गया था। लेकिन उसी मोदी ने एक मुस्लिम देश की धरती पर जिस तरह ना सिर्फ अपने लोगों के बीच नया संदेश दिया, उससे चकित ही रहा जा सकता है। अमीरात की धरती पर जायेद मस्जिद की यात्रा करना और वहां स्वामीनारायण मंदिर की स्थापना के लिए मंजूरी हासिल करना मामूली बात नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह है कि संयुक्त अरब अमीरात से देश में साढ़े चार लाख करोड़ के निवेश का वायदा हासिल कर लेना भी सहज उपलब्धि नहीं है। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर देश को तेजी से आगे बढ़ाने का सपना देखने और अपने वोटरों को दिखाने वाले मोदी को इस वायदे से खुशी होनी ही थी। जाहिर है कि दुबई क्रिकेट स्टेडियम के मोदी के भाषण में आत्मविश्वास भरने का काम अमीरात से मिले इस बड़े निवेश वायदे ने भी दिया है। देश में खाड़ी के देशों से काफी रकम आती है। वहां काम कर रहे प्रवासी अपने घरों में पेट्रो डॉलर भेज कर भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार को भरने में खासी मदद करते हैं। केरल जैसे राज्य की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा इस पेट्रो डॉलर पर ही निर्भर करता है। निश्चित तौर पर अरब देशों में हर वर्ग के भारतीय काम करते हैं, लेकिन उनमें मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या अच्छी खासी है। दुबई क्रिकेट स्टेडियम के भाषण में हर वर्ग के लोग जुटे, लेकिन जाहिरा तौर पर इनमें ज्यादा संख्या मुस्लिम लोगों की ही थी। जाहिर है कि वे अपने घरों में भी इस खुशी को फोन और इंटरनेट के जरिए बांटेंगे। निश्चित तौर पर इसका असर कम से कम भारतीय जनता पार्टी के लिए सकारात्मक ही होगा। यानी इस एक कदम से मोदी ने राजनीतिक मोर्चे पर बड़ा सियासी मकसद हासिल करने की दिशा में बड़ा कदम बढ़ा दिया है।

अमीरात की यात्रा से लौटने के ठीक अगले दिन बिहार के पहले आरा और फिर सहरसा में जिस तरह मोदी ने भाषण दिया, उसने भी साफ कर दिया है कि मोदी अभी चूके नहीं हैं। दोनों भाषणों ने साबित किया है कि राजनीतिक रणनीति बनाने और उसे सही वक्त पर लागू करने का नजरिया मोदी ने खोया नहीं है। आरा में उन्होंने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के विशेष पैकेज का ऐलान किया। जिससे बिहार में हर तरफ मोदी-मोदी सुनाई देने लगा है।

-धर्मवीर रत्नावत

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^