03-Apr-2013 10:26 AM
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भाजपा के एक शीर्ष नेता कुछ दिन पहले एक गजल गुन-गुना रहे थे
फिर वहीं लौट के जाना होगा।
यार न कैसी जुदाई दी है।

हर पांच साल बाद मतदाताओं के पास लौटना होता है और मतदाताओं के पास पहुंचने के लिए कार्यकर्ताओं को माध्यम बनाना पड़ता है। इसीलिए चुनाव आते-आते सभी दलों में कार्यकर्ता महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि चुनाव तो वे ही जिताते हैं। सत्ता की पहली सीढ़ी हैं कार्यकर्ता। मध्यप्रदेश भाजपा के नए मुखिया नरेंद्र सिंह तोमर इस सच्चाई से वाकिफ हैं और इस तथ्य से भी वे अच्छी तरह वाकिफ है कि उनके पूर्ववर्ती प्रभात झा का कार्यकर्ताओं से संवाद उतना स्पष्ट नहीं था। बल्कि एकतरफा था। झा सुनते कम थे, सुनाते ज्यादा थे। लिहाजा कार्यकर्ता उनसे छिटकने लगे थे।
शायद इसीलिए उन्हें पोखरण का सामना करना पड़ा। यदि पोखरण नहीं होता तो आगामी चुनाव में भाजपा का सफाया तय था। वो तो शिवराज की दूर-दृष्टि ने आगामी संकट को भांप लिया और नरेंद्र सिंह तोमर को जयमाला पहना दी गई। अन्यथा भाजपा को संकट से उबारना असंभव हो जाता। बहरहाल चुनावी राजनीति में कार्यकर्ता की क्या उपयोगिता है तोमर भलीभांति जानते हैं, लिहाजा उन्होंने भाजपा के ही विधायकों को नसीहत दी है कि वे महाजनसंपर्क अभियान के दौरान पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं से जरूर मिलें। क्योंकि चुनावी वैतरणी से कार्यकर्ता ही पार लगाएगा, लेकिन तोमर इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि संगठन के कई मंत्रियों और विधायकों से कार्यकर्ता मिलना ही नहीं चाहते। बल्कि कई विधायकों की तो दुर्गति इतनी अधिक है कि वे क्षेत्र में जाने से ही कतरा रहे हैं क्योंकि 10 सालों में उन्होंने न तो क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य कराया है और न ही संवाद स्थापित किया है। इसी कारण भाजपा को लगभग 90 सीटों पर अपने विधायकों को लेकर थोड़ी बहुत उलझनÓ तो है ही लेकिन इनमें भी 60 ऐसी हैं जो अति चिंतनीयÓ की श्रेणी में आती हैं। पिछले दिनों होली मिलन के दौरान इन अति चिंतनीय सीटों पर विशेष रूप से बहस छिड़ी हुई थी।
उमा भारती के निवास पर भी इसी तरह की बहस सुनने में आई। हालांकि कहने को तो दीदी होली मिलन करने आईं थी, लेकिन कहीं न कहीं इसके तार मध्यप्रदेश की वर्तमान राजनीति से जोड़े जा रहे थे। अब इसका असर आगामी समय में देखने को मिल सकता है। फिलहाल तो भाजपा मध्यप्रदेश में फीलगुड परिस्थिति में चली गई है। मुख्यमंत्री नौकरशाही को साधने में लगे हुए हैं और कार्यकर्ताओं से संवाद का दायित्व उन्होंने अपने विश्वसनीय नरेंद्र सिंह तोमर को सौंप रखा है। वैसे दोनों आजकल ज्यादातर मंचों पर साथ ही दिखाई देते हैं। शायद भाजपा यह प्रदर्शित करना चाहती है कि संगठन और सरकार में कोई मतभेद नहीं है, लेकिन भीतरी तौर पर सबकुछ ठीक नहीं है।
तोमर के प्रदेशाध्यक्ष बनने के तीन माह बीत चुके हैं पर अभी तक एक दर्जन जिले हैं जहां अध्यक्ष तय नहीं हो पाए हैं। कई बार तारीखें घोषित करने के बावजूद विभिन्न मोर्चों की प्रदेश कार्यकारिणी नहीं बन पाई इसका असर राजधानी भोपाल से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में देखा जा रहा है और जो महाजनसंपर्क अभियान चलाया था वह कार्यकर्ताओं की नाराजगी के कारण उतना सफल नहीं रहा जितनी उम्मीद की जा रही थी। कार्यकर्ताओं की नाराजगी एक बड़ा महत्वपूर्ण विषय बनता जा रहा है। उधर तोमर अपने ही गृह जिले ग्वालियर में अध्यक्ष तय नहीं कर पाए हैं। यही हाल महासचिव थावरचंद गहलोत का है। कई बड़े नेताओं के जिलों में भी अध्यक्ष घोषित नहीं हुए हैं। भीतरी खबर यह है कि कुछ मौजूदा मंत्रियों के पुत्र और रिश्तेदार जिलाध्यक्ष बनने के लिए छटपटा रहे हैं, जिसका संगठन के भीतर ही विरोध किया जा रहा है। हालांकि नरेंद्र सिंह तोमर ऐसी किसी भी छटपटाहट से इंकार करते हैं और शीघ्र ही जिलाध्यक्षों तथा मोर्चा कार्यकारिणी की घोषणा की बात कह रहे हैं। देखना यह है कि इस घोषणा में किस तरह से अंदरूनी राजनीति को साधा जाता है। इस बीच यह खबर भी सुनने में आई कि भोजशाला मुद्दे को सरकार ने जिस तरीके से हैंडिल किया उससे संघ खुश नहीं है। कुछ दिन पहले संघ के मध्य भारत प्रांत के कार्यवाह अशोक अग्रवाल ने कहा था कि धार में लाठीचार्ज रोका जा सकता था।
इस कथन से यह साफ हो रहा है कि कहीं न कहीं धार की स्थिति को लेकर भाजपाई मंत्रियों में भी जमकर खींचतान हुई थी। महाजनसंपर्क अभियान का जो फीडबैक जिलाध्यक्षों ने दिया है वह बड़ा उत्साही नहीं है। जिलाध्यक्षों का कहना है कि महाजनसंपर्क अभियान के दौरान कई जिलों के कई मंडलों में केवल औपचारिकता निभाई गई और ग्रामीण क्षेत्रों में तो जनसंपर्क करना उचित ही नहीं समझा गया। अब देखना यह है कि महाजनसंपर्क अभियान के फीडबैक का असर किन विधायकों के ऊपर पड़ता है। इस बीच जिन विधायकों के परफारमेंस को लेकर सवाल उठाए गए थे वे भी अपने टिकट बचाने के चक्कर में सक्रिय नजर आ रहे हैं। पिछले दिनों उमा भारती के बंगले पर भी कुछ विधायक देखें गए। बहुत से विधायकों ने शीर्ष नेताओं को टटोलना शुरू कर दिया है, लेकिन यह तो तय है कि चुनाव जीतने के लिए भाजपा को इस बार बड़ी संख्या में टिकिट काटने पड़ेंगे और यह भी तय है कि बहुत से विधायक नाराजगी में दल छोड़कर दूसरी पार्टी में चले जाएंगे।
भोपाल से सुनील सिंह