16-Aug-2015 08:07 AM
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बिहार भाजपा में अंतरद्वंद्व छिड़ा हुआ है। बाहरी और भीतर की कशमकश में पार्टी जूझ रही है। दिलचस्प यह है कि जो गलती दिल्ली में की गई थी वही बिहार में दोहराने की तैयारी है। पैराशूट से नेता
उतारे जा रहे हैं। भाजपा नेतृत्व स्थानीय कार्यकर्ताओं से संवाद स्थापित करने में असफल रहा है। परिदृश्य वैसे ही बदल रहा है जैसे दिल्ली में बदला था। लोकप्रियता के शिखर से रसातल की ओर भाजपा का सफर जारी है इस पर दुखद यह है कि भाजपा बिहार में चेहरा विहीनÓ है। शत्रुध्न सिन्हा जैसे लोकप्रिय नेता शत्रुओंÓ के गुणगान में मशगूल हैं। उधर दिल्ली में भाजपा को नेस्तनाबूद करने वाली आम आदमी पार्टी बिहार में धमाकेदार दस्तक की तैयारी में है। देखना है कि जीत के लिए आश्वस्त भाजपा अपनों और परायों के इस चक्रव्यूह को कैसे भेद पाती है।
बिहार एक बार फिर देश की राजनीति की दिशा तय कर सकता है। विधानसभा चुनाव से सिर्फ यह तय नहीं होना है कि कौन सत्ता में आएगा। बल्कि इससे बड़े राजनीतिक मुद्दों की दिशा भी तय होगी। मंडल की राजनीति करने वाली जमातों का क्या होगा? कमंडल से विकास के रास्ते पर खड़ी भाजपा के लिए दिल्ली की हार का सिलसिला जारी रहेगा या वह अपवाद बन जाएगा। राहुल गांधी का नया उत्साह क्या मतदाताओं को कांग्रेस के खेमे में लाएगा? - जैसे कई सवालों के जवाब यहाँ मिल सकते हैं। बिहार जिस मोड़ पर खड़ा है वहां से जो जाति और विकास का संतुलन साधने का भरोसा दिला पाएगा वही विजयी होगा। इसलिए बिहार फतह के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चार नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी है, जिनमें से तीन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हैं। बीजेपी ने राज्य को अलग-अलग भागों में बांटा है। इनके काम का सुपरविजन पार्टी के महासचिव भूपेंद्र यादव करेंगे। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार और धर्मेंद्र प्रधान भी यादव का सहयोग करेंगे। जाहिर है इनमें से तीन बिहार के लिए बाहरी हैं और यही क्षेत्रवादीÓ असंतुलन बिहारी भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी है।
चार सेक्टर में बांट सौंपी जिम्मेदारी
अमित शाह ने बिहार को चार सेक्टरों में बांट कर अपने विश्वसनीय नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी है। उत्तरपूर्व में संघ के प्रचारक शिवनारायण, उत्तर पश्चिम में संघ के प्रचारक पवन शर्मा, दक्षिण पश्चिम में संघ के प्रचारक राजेंद्र सिंह और दक्षिण पूर्व में सीआर पाटिल (गुजरात के नवसारी से सांसद) को जिम्मेदारी गई सौंपी है। इन चार नेताओं को आठ-आठ स्थानीय नेतृत्व की मदद मिलेगी। प्रचार के लिए कौन सा प्रचार वाहन कहां भेजा जाए, इसको तय करने की जिम्मेदारी इन्हीं स्थानीय नेतृत्व की होगी। भाजपा ने जो चार कमांडर्स मैदान में उतारे हैं उनमें से केवल शिवनारायण ऐसे हैं जो बिहार से हैं। वह स्टेट भाजपा के संयुक्त महासचिव हैं। शिवनारायण एबीवीपी और भारतीय मजदूर संघ में भी रह चुके हैं। शिवनारायण को 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान संघ से भाजपा में लाया गया था। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान विधान परिषद के सदस्य दिलीप जायसवाल उनकी मदद करेंगे। शिवनारायण को 10 जिलों की 67 विधानसभा सीटें संभालना हैं। दिल्ली के पवन शर्मा उत्तर पूर्व बिहार की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। यहां 72 विधानसभा क्षेत्र हैं जो 9 जिलों को कवर करते हैं। पवन दिल्ली भाजपा में संगठन मंत्री और दिल्ली भाजपा के ही उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। पवन की मदद के लिए विधान परिषद सदस्य लालबाबू प्रसाद को लगाया गया है। भाजपा को झारखंड में और बिहार आम चुनावों में जीत दिलवाने वाले राजेंद्र सिंह 9 जिलों में 58 विधानसभा क्षेत्रों की कमान संभाल रहे हैं। सिंह यूपी के काशी और अवध क्षेत्रों में भाजपा के लिए संगठन का काम कर चुके हैं। राजेंद्र बिहार में स्वदेशी जागरण मंच से भी जुड़े रहे हैं। उनकी मदद के लिए बिहार बीजेपी के वाइस प्रेसिडेंट राजेंद्र गुप्ता को लगाया गया है। मोदी-शाह के करीबी सीआर पाटिल को जिस दक्षिण-पूर्वी बिहार की जिम्मेदारी दी गई है वहां 46 विधानसभा सीटें हैं जो 10 जिलों में आती हैं। पाटिल साल 2014 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी और वी.के. सिंह के बाद सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले तीसरे सांसद हैं। बिहार विधान परिषद के सदस्य रजनीश कुमार बिहार विधानसभा में उनके असिस्टेंट की जिम्मेदारी संभालेंगे। उनके नेतृत्व में पिछले कई वर्षो से हुए विकास ने बिहार को रूपांतरित कर दिया है, यह साफ दिखता है, इसे परखा जा सकता है। उन्होंने निर्धनतम लोगों की जिंदगी को छुआ है। बिहार के लोग विकास की इस कहानी को जारी रखना चाहते हैं। भाजपा दीवार पर लिखी इस इबारत को देख चुकी है।
बंटा हुआ है जनता परिवार !
जहर और भुजंग में विभाजित जनता परिवार के लिए भी बिहार की राह इतनी आसान नहीं है। जनता परिवार को साथ आने के लिए हमेशा एक अदद राजनीतिक दुश्मन की तलाश रहती है। यह पहली बार हो रहा है कि उस दुश्मन की तलाश के बावजूद वे एक नहीं हो पा रहे, क्योंकि समय ने बहुत कुछ बदल दिया है। घटक दलों के नेताओं की समस्या यह है कि सब भविष्य की ओर देख रहे हैं। कोई इतिहास से सबक लेना तो दूर वर्तमान को स्वीकारने को भी तैयार नहीं है। सब जानते हैं कि अगर एक होकर नहीं लड़े तो सब खेत रहेंगे। इसके बावजूद इस जमात के नेताओं के अहम उनके राजनीतिक कद से बड़े हो गए हैं। एक विचित्र-सी स्थिति बन गई है। बिहार की बात करें तो असली मसला नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के मिलने का है। पर दोनों की स्थिति मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा वाली है। मन मिल नहीं रहा और जरूरत कहती है कि मिलो। जिसे पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है उसे न तो कोई पंच बनाने को तैयार है और न ही अध्यक्षजी पंचायत करने में कोई दिलचस्पी दिखा रहे हैं। नीतीश और लालू आपस में बात करने के बजाय अपने सिपहसालारों के जरिए संवाद कर रहे हैं। शुरू में माना गया कि यह सीटों के बंटवारे में मोलभाव के लिए दबाव की राजनीति है। लेकिन यह सिलसिला रूकने की बजाय बढ़ता जा रहा है। इससे नुकसान दोनों का हो रहा है। लालू को मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार मंजूर भले ही हो गये हैं लेकिन वे उन्हें शुरू से ही प्रिय नहीं थे। दरअसल बिहार में सबसे पहले लालू का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी कोई बना था तो वह नीतिश कुमार ही थे। जिन्होंने लालू के जंगल राज को समाप्त किया। भाजपा नीतिश के कद का नेता फिलहाल बिहार में पैदा नहीं कर पाई। यही वजह है कि लालू नीतिश की लोकप्रियता और अपने ठेठपन का तालमेल जनता के समक्ष प्रस्तुत कर आगामी चुनाव जीतना चाह रहे हैं। ताकि भाजपा से इतर राजनीति बिहार में जीवित रहे। बाद में वे अपना मार्ग अलग तलाशेंगे या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा लेकिन लालू के त्याग की एक सीमा है। वे उस सीमा के बाहर नहीं जा सकते क्योंकि बिहार में इस वक्त उनकी पार्टी के कई नेता पंख फडफ़ड़ा रहे हैं जिन्हें उन्मुक्त गगन मिलने पर वे कभी भी उड़ान भर सकते हैं। यह उड़ान चुनावी नतीजों के बाद एक नये लांचिंग पैड के रूप में भी हो सकती है। बिहार की राजनीति घुटन से निकलने के लिए लालायित है। कमाल इस बात का है कि सभी दलों में ऐसे घुटनशीलÓ नेताओं की तादात बढ़ रही हैं।
शिवरथÓ के मुकाबले तहलका, मधुबाला, हसीना नम्बर वनÓ
बिहार में शब्दों की जंग ही नहीं है बल्कि तकनीक से भी एक युद्ध लड़ा जा रहा है। लेकिन लालू यादव का ठेठपन बरकरार है। भाजपा जहाँ मध्यप्रदेश में जीत की हैट्रिक लगाने वाले शिवराज सिंह चौहान के विजयी चुनावी रथ पर सवार होने की तैयारी में है। तो वहीं लालूप्रसाद यादव ने प्रचार के लिए हसीना नम्बर वनÓ, मधुबालाÓ और तहलकाÓ, टमटम तैयार करवायें हैं। भाजपा ने अपने हाईटेक रथ को परिवर्तन रथ की संज्ञा दी है। इस तरह के तीन रथ मध्यप्रदेश से ही रवाना होगें जिनका उपयोग 2008, 2013 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में किया जा चुका है।
विकास बनाम जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच सामंजस्य बैठने के बाद अब यह माना जा रहा है कि उससे जो जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होगा, वह भाजपा के विकास के मुद्दे पर भारी पड़ेगा। इस आंकलन में वस्तुस्थिति के संज्ञान की पैठ कितनी है, यह तो चुनाव परिणाम आने पर पता चलेगा, लेकिन इस समय देश को जो माहौल है, उससे यह स्पष्ट होता है कि लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी ने विकास के जिस मुद्दे को केंद्र बनाया था, अब कोई भी चुनाव हो-पंचायत से लेकर लोकसभा तक-विकास के मुद्दे की अवहेलना नहीं की जा सकती। जहां केंद्रीय सरकार विकास की योजनाओं को गतिशील बनाने और विपक्ष पर संसद को ठप कर उनमें बाधा डालने का आरोप लगा रही है, वहीं प्राय: प्रत्येक राज्य केंद्र से और अधिक विकास के लिए सहायता की अपेक्षा प्रगट कर रही है तथा जहां वह विकास कार्यों में पिछड़ रही है-जैसे उत्तर प्रदेश-तो उसका ठीकरा केंद्रीय सरकार के सिर पर फोडऩे का कोई अवसर जाने नहीं देती। उसका आरोप है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ही इस राज्य से हैं तथा सबसे अधिक सांसद चुनाव कर जो उत्तर प्रदेश देश को राजनीतिक दिशा प्रदान करता है, उसकी बदले की भावना से सबसे ज्यादा उपेक्षा हो रही है। जिस तरह से केंद्रीय उपेक्षा का ढोल पीटना शुरू हो गया वह अमला चुनाव आने तक इतना कनफोड़वा हो जायेगा कि लोगों को ढोल में पोल अपने आप समझ में आने लगेगा। फिलहाल तो नीतिश कुमार शांतभाव से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने में मशगूल हैं। इस चिट्ठी में नीतिश ने अपने डीएनए को बिहारी बताते हुए प्रधान मंत्री को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अब उनकी महत्वकांक्षा बिहार तक ही सीमित है। इस चिट्ठी में प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रैली में दिये गये उस बयान का जवाब है जिसमें मोदी ने कहा था कि नीतिश ने ना सिर्फ मोदी का बल्कि जीतनराम मांझी जैसे महादलित का भी अपमान किया है। इससे यह लगता है कि नीतिश भविष्य की राजनीति की संभावना भी जीवित रखना चाहते हैं। वे चिट्ठी के के माध्यम से यह प्रकट रूप में स्वीकार रहे हैं कि अब उनके जीवन का सत्य केवल बिहार तक सीमति रहने का है। कोई राष्ट्रीय भूमिका में वे अपने आप को नहीं देखना चाहते। न ही सेकुलर जमात का दूल्हा बनने का ख्वाब उन्होंने पाला है। ऐसी स्थिति में नीतिश-लालू-भाजपा का यह त्रिकोणीय संघर्ष बिहार में दिलचस्प राजनीतिक परिदृश्य को जन्म देगा। क्योंकि संघर्ष तो है ही नीतिश लालू ऊपर से भले ही एक दिखें पर भीतर से बंट चुके हैं।
-आरएमपी सिंह