प्रचारकों की कमी से जूझ रहा संघ
16-Aug-2015 11:19 AM 1234961

लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत अकेले भाजपा या नरेंद्र मोदी का कमाल नहीं है, बल्कि इस जीत के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मैदानी रणनीति और प्रचारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यही नहीं अब तक जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं वहां भी भाजपा की जीत में प्रचारकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन कुछ समय से संघ के नेताओं को सत्ता सुख का ऐसा रोग लगा है कि वे संघ की बजाय भाजपा में पद पाने दौड़ पड़े हैं। भाजपा में जाने के बाद संघ के स्वयंसेवक लग्जरियस लाईफ के इतने आदी हो रहे हैं कि वे संघ की मुख्यधारा में आना नहीं चाहते दूसरी तरफ संघ भी इन्हें वापस लाने के पक्ष में नहीं है। इस कारण संघ इनदिनों प्रचारकों और काडर की कमी से जूझ रहा है। इस पर संघ प्रमुख मोहन भागवत भी चिंता जाहिर कर चुके हैं।
कई कर्मठ और युवा कार्यकर्ताओं के भाजपाई नेताओं में रूपांतरण ने संघ को चिंता में डाल दिया है। दिल्ली और अन्य राज्यों में संघ के पूर्णकालिक समर्पित 43 के करीब प्रचारक अब नेता बन चुके हैं। 150 के करीब प्रचारक संघ द्वारा बिहार चुनाव में भेजे जा रहेे हैं, इसे लेकर संघ ने केंद्र्र में भाजपा सरकार होने से संघ पर पडऩे वाले प्रभावों पर नज़र रखनी शुरू कर दी है। गत माह कम से कम दो मौंकों पर संघ नेताओं ने इस सुनियोजित व्यवस्था पर चिंता प्रकट की है। सरसंघ चालक मोहन भागवत ने संगठन को सत्ता की भूख के प्रति आगाह भी किया है। भागवत का कहना है कि प्रचारक देश सेवा के लिए हैं सम्मान पाने के लिए नहीं, प्रचारक संघ की प्रार्थना को याद रखें और संगठन को मजबूत करने का प्रयास करें। ज्ञात रहे कि संघ और भाजपा का गर्भनाल का सम्बन्ध है। संघ भाजपा की बौद्धिक ऊर्जा और सैद्धांतिक प्रणाली का स्रोत है। आमतौर पर संघ सीधे हस्तक्षेप से बचता है, आवश्यकता पडऩे पर संघ के प्रचारक या कार्यकर्ता भाजपा के माध्यम से राजनीति में भी सक्रिय हो जाते हैं। किन्तु जब से भाजपा का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा है और कई राज्यों सहित केन्द्र में भी उसकी सत्ता स्थापित हुई है तब से प्रचारकों का सक्रिय राजनीति से जुडऩा प्रचलन बन गया है। संघ को करीब से जानने वालों का मानना है कि यदि संघ को अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी पहचान बनाये रखना है तो उसे राजनीति से सुरक्षित दूरी बनाये रखनी होगी।
सत्ता ने लगाया चस्का
क्या राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक संगठन का दंभ भरने वाला संघ वाकई राजनीति से दूर है या अब उसका पूरी तरह से राजनीतिकरण हो रहा है? बीजेपी का संघीकरण तो एक कठोर सत्य है, वैसे इसे न कभी संघ ने कबूला और न बीजेपी ने। लेकिन जिस तरह गोवा में सोनी ने बीजेपी के अंदरूनी मामलों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और आडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेता को नजरअंदाज करने की कोशिश की, उससे संघ की साख पर बट्टा लगा था। मजबूरन कमान अब सीधे भागवत को संभालनी पड़ी।
जानकारों का कहना है कि भागवत का बीजेपी के बारे में सिद्धांत है- पार्टी में सुधार से ही संघ की छवि जुड़ी है। इसलिए संघ ने पीढ़ीगत बदलाव के तहत बीजेपी की सर्जरी का बीड़ा उठाया था। अध्यक्ष पद के लिए नितिन गडकरी को आगे किया, लेकिन भागवत की पसंद बने गडकरी दूसरे टर्म के लिए संघ की हरी झंडी के बावजूद बीजेपी की खींचतान के शिकार हो गए थे। इस प्रकरण ने आडवाणी और भागवत के बीच संवादहीनता की स्थिति पैदा कर दी थी, लेकिन आडवाणी के इस्तीफा प्रकरण ने दोनों के बीच संवाद कायम कर दिया था। पहली बार ऐसा हुआ है कि सलाह देने वाले संघ ने बीजेपी संसदीय बोर्ड के फैसले को मनवाने के लिए भी सीधी भूमिका निभाई थी।
संघ पहले भी परोक्ष रूप से राजनीति में दखल देता रहा है, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद संबंध खुलकर सामने आने लगे। संघ के पूर्व सरसंघचालक रज्जू भैया तक सत्ता की होड़ नहीं थी, इसलिए परिवार में कलह की स्थिति बाहर नहीं आई। तब वाजपेयी की छवि और कद की वजह से भी संघ मुखर नहीं हो पाता था। लेकिन 10 मार्च, 2000 में हार्डलाइनर माने जाने वाले केएस सुदर्शन के सरसंघचालक बनने के बाद बीजेपी में सीधा दखल शुरू हो गया। तब से लेकर अब तक संघ बीजेपी को अपने इशारे पर चलाने का प्रयास करता रहा है। लेकिन यह भी तथ्य है कि अगर संघ बीजेपी पर नियंत्रण करना चाहता है तो बीजेपी भी वैचारिक-नीतिगत मामलों से लेकर हर मसले पर संघ की ओर ही टकटकी लगाए रहती है। इसकी वजह संघ का विशाल काडर है और वह अपनी इसी ताकत के जरिए बीजेपी पर पूरा नियंत्रण रखता है। संघ का एक नुमाइंदा बीजेपी में हमेशा रहता है। पार्टी का संगठन मंत्री पूरी तरह से संघ का प्रचारक ही होता है, जिसकी नियुक्ति संघ ही करता है। फिलहाल बीजेपी में केंद्रीय स्तर पर एक संगठन मंत्री और दो सह संगठन मंत्री संघ की ओर से हैं, यही स्थिति राज्यों में भी होती है।

राजनीति को हमेशा उपकरण बनाया

संघ ने अपनी सोच को साकार करने के लिए राजनीति को हमेशा उपकरण बनाया है। आजादी के बाद जनसंघ में पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे स्वयंसेवकों को भेजा, तो 1980 में बीजेपी की स्थापना के बाद से संघ ने उसे अपना मुखौटा बना लिया। लेकिन एनडीए की सरकार बनने के बाद से संघ के प्रचारकों का रुझान भी राजनीति की ओर बढ़ा। संघ में प्रचारक अब कम होने लगे हैं और पूर्णकालिक काम करने वाले अब कुछ समय सीमा के लिए ही आना चाहते हैं। पहले तो प्रचारक व्यवस्था में शामिल होने के लिए लोग नौकरी छोड़कर आते थे। खुद सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी इसके उदाहरण हैं। संघ की मौजूदा पीढ़ी में ऐसे लोगों की कमी नहीं है। संघ पहले बीजेपी में दो-तीन उम्मीदवारों की सिफारिश करता था, लेकिन अड़ता नहीं था। अब राज्य की चुनाव समिति हो या केंद्र की, हर सीट पर संघ के नुमाइंदे (संगठन महामंत्री) वीटो का इस्तेमाल करने लगे हैं। 1998 में वाजयेपी ने जसवंत सिंह को मंत्री बनाने के लिए राष्ट्रपति भवन लिस्ट भेज दी, लेकिन शपथ से पहले संघ के दबाव में नाम कटवाया गया। संघ में अब लोग ध्येय, निष्ठा, श्रद्धा के साथ कम, निजी स्वार्थों के चलते ज्यादा जुड़ रहे हैं। अब बीजेपी के नेताओं को लगने लगा है कि अगर वे संघ के किसी नेता का वरदहस्त हासिल कर प्रदेश अध्यक्ष, सांसद या विधायक बन सकते हैं, तो वे जिला-मंडल में अपना समय क्यों गंवाएं।

बदलाव का द्वंद्व और शाखा में कमी
भागवत हमेशा कहते रहे हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र हैÓ के अलावा वे सब कुछ बदलाव को तैयार हैं। लेकिन आधुनिकता के साथ संघ का अंतर्विरोध बदलाव की राह में रोड़ा है। संघ से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, जब हेडगेवार ने खाकी निक्कर को गणवेश बनाया था, जो वह उस वक्त की आधुनिक पोशाक थी, जिसे सिर्फ अंग्रेज पहनते थे। संघ का बड़ा तबका आधुनिक दौर में इसमें बदलाव चाहता है लेकिन पुराने लोग इसे प्रतीक मानकर बैठे हैं। यह भी दुखद सत्य है कि संघ की शाखाओं में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। खुद सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी कबूलते हैं, आज परिस्थितियां अलग हैं। जीवन शैली और शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया है, जिसका परिणाम पूरे सामाजिक जीवन पर हुआ है और कुछ संघ की शाखा पर भी हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक, देश भर में संघ की 30,000 नियमित शाखाएं चल रही हैं। जब मप्र की राजधानी भोपाल की कुछ शाखाओं पर जाकर जायजा लिया गया तो  कहीं छह तो कहीं 10-12 स्वयंसेवक नजर आए। संघ के एक नेता का कहना है, जब मैं बाल स्वयंसेवक के रूप में शाखा में जाता था, तो मिट्टी का कश्मीर बनाकर सुरक्षा का खेल खेलते थे। उसी खेल में एक बार कंधा चोटिल हुआ, जो आज तक दर्द दे रहा है, पर जोश कम नहीं हुआ। वे मानते हैं कि आज शाखा में आने वाले स्वयंसेवकों में वैसी वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। संघ में लंबे समय तक प्रचारक रहे और अब बीजेपी में अहम जिम्मेदारी संभाल रहे एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि बाला साहब देवरस के बाद से ही संघ में गिरावट आ रही है। संघ में पहले सरसंघचालक का नाम नहीं लेते थे, बल्कि परम पूजनीय सरसंघचालक जी संबोधन होता था। लेकिन मीडिया में आने की ललक ने उस श्रद्धा के भाव को ही खत्म कर दिया।
राजनैतिक संगठन की तरह बनी साख
हालांकि संघ ने शाखा में भीड़ जुटाने के लिए कुछ चीजों को बदला है। लेकिन अब उसकी साख एक आम राजनैतिक संगठन की तरह ही बन गई है। यही वजह है कि बदलाव परवान नहीं चढ़ पा रहा। एक प्रचारक का कहना है कि शाखा में लोगों को जोडऩे के लिए संघ को कबड्डी और लाठी से बाहर आना पड़ेगा। एक नेता कहते हैं, संघ में 87 साल के बुजुर्ग हैं तो 10 साल का किशोर भी है, इसलिए निर्णय लेने में समय लगेगा। लेकिन आधुनिक परिप्रेक्ष्य में शाखाओं को युवाओं के हिसाब से बनाना होगा। संघ के ही लोग अब सवाल उठाने लगे हैं कि विद्या भारती के करीब 18,000 स्कूल हैं, लेकिन इनमें संघ-बीजेपी के बड़े नेताओं के कितने बच्चे पढ़ते हैं? निश्चित तौर पर बाला साहब देवरस तक संघ जो भी कहता था, उसमें नैतिक हक की झलक थी। लेकिन बाद में संघ पूरी तरह से बीजेपी पर हावी होने की कोशिश करने लगा। लिहाजा टकराव बढ़ा।
-श्याम सिंह सिकरवार

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^