16-Aug-2015 10:52 AM
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पूवार्नुमानों को सच साबित करते हुए संसद का मॉनसून सत्र तूफानीÓ साबित हुआ और बिना किसी विधेयक के पास हुए ही यह सब समाप्त हो गया। भारतीय इतिहास में यह पहला संसद का सत्र रहा

जो एक दिन भी नहीं चला। पक्ष और मुख्य विपक्षी दल अपने पूर्व निर्धारित रुख पर कायम हैं। इस गतिरोध को देखने और व्याख्यायित करने के दो परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं- पहला संसदीय नियमावली का और दूसरा राजनीतिक। संसदीय कार्य नियमावली की दृष्टि से देखें, तो संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से चलनी चाहिए और नियमों के तहत प्रश्नकाल के बाद दोनों सदनों में ललितगेटÓ या व्यापमंÓ पर चर्चा हो सकती है। आरोपों में घिरा सत्ता पक्ष यही चाहता था, वह प्रश्नकाल को दरकिनार कर ललितगेटÓ पर बहस के लिए तैयार था। साथ में यह भी कह रहा था कि कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों के भ्रष्टाचार पर भी बात होगी, लेकिन केन्द्र सरकार पहले प्रस्तावित मुद्दों पर चर्चा करना चाहती थी।
संसद सत्र को चलाने के लिए भाजपा ठीक वही दलीलें दे रही थी, जो मई, 2014 से पहले कांग्रेस दिया करती थी और संसद में गतिरोध को जायज ठहराने के लिए कांग्रेस की दलील बिल्कुल वही थी, जो तब विपक्षी भाजपा की हुआ करती थी। अपने दो केंद्रीय मंत्रियों और तीन मुख्यमंत्रियों पर लगे संगीन आरोपों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मौनव्रत भी नहीं टूटा। 2013-14 के दौरान मोदी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नया नामकरण किया था- मौनमोहनÓ सिंह! संयोग देखिए, अब मोदी भी मौन हैं। सब आश्चर्यचकित हैं कि अपने जुमलों, भाषणों और वाक-चातुर्य के लिए चर्चित नेता खामोश क्यों हैं? प्रधानमंत्री मोदी अगर न खाऊंगा, न खाने दूंगाÓ वाली अपनी छवि को लेकर सजग होते, तो संसद सत्र से पहले ही कम-से-कम ललितगेटÓ के आरोपी अपने दो प्रमुख नेताओं- केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंंधरा राजे के इस्तीफे के बाद सदन में दाखिल होते। इससे उनका सियासी कद और बढ़ता।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी अपने स्तर से पहल नहीं की, जबकि पार्टी में वह लालकृष्ण आडवाणी के नजदीक मानी जाती हैं। भाजपा में अकेले आडवाणी थे, जिन्होंने जैन हवाला-डायरी में सिर्फ नाम आने पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। वसुंधरा राजे से इस तरह की राजनीतिक-नैतिकता की अपेक्षा किसी को नहीं थी, पर सुषमा से थी। उन्होंने अपने असंख्य समर्थकों-शुभचिंतकों को निराश किया है। यूपीए-2 के दौरान संसद और उसके बाहर भारी दबाव बना कर विपक्षी भाजपा ने तत्कालीन आरोपी कांग्रेसी मंत्रियों को इस्तीफे के लिए
बाध्य किया।
तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के भांजे पर अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग कराने और धन-उगाही के आरोप लगे थे। इसी तरह, तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार के एक विवादास्पद कदम पर औचित्यÓ का सवाल उठा। भारी विवाद और विरोध के बाद दोनों को इस्तीफा देना पड़ा। लोकतांत्रिक जवाबदेही और शासकीय पारदर्शिता के उसूलों की रोशनी में उस वक्त इस्तीफा जरूरी समझा गया। सुषमा स्वराज को लेकर जब संसद से लेकर सड़क तक हंगामा मचा तो उन्होंने कहा कि अगर किसी पीडि़त की सहायता करना अपराध है तो हां मैंने अपराध किया है। यानी सुषमा स्वराज ने अपनी गलती तो स्वीकारी लेकिन यह भी कह दिया कि मैं इस्तीफा नहीं दूंगी। उनके इस अडिय़ल रुख के कारण संसद की कार्यवाही बाधिक होती रही और अंतत: वह हंगामें की भेंट चढ़ गई।
आखिर सुषमा ने इनकी सुध क्यों नहीं ली?
एक तरफ सुषमा स्वराज संसद में ताल ठोंक कर कहा था कि अगर किसी पीडि़त की सहायता करना अपराध है तो हां मैंने अपराध किया है। वहीं दूसरी तरफ मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में उनकी एक तथाकथित सहेली कैंसर से जूझ रही है, लेकिन इस ओर उनका ध्यान क्यों नहीं गया। इसको लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं हालांकि कैंसर पीडि़त महिला के दावे पर सुषमा स्वराज के पीए का कहना है कि मैं उन्हें एक वर्ष से जानता हूं वह अपने को करनाल की बताती हैं। उन्होंने अपने ग्रांड सन की किडनी के लिए राहत राशि मांगी थी जिसको हमने मुख्यमंत्री राहत कोष से दिलवा दिया गया। अगर वह कहती हैं कि वे 40 साल से सुषमा जी को जानती हैं तो मुझे इसकी जानकारी नहीं है। वह कहते हैं कि मैडम से रोज 500 सौ लोग मिलते हैं। ऐसे में वह किस-किस का ध्यान रखेंगी। हालांकि एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अपने आपको सहेली बताने वाली का कभी-कभार फोन आता रहता है। लेकिन मुझे इसकी जानकारी नहीं है कि वे मैडम की सहेली हैं।
-कुमार राजेन्द्र