16-Aug-2015 10:13 AM
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जब आप यह समाचार पढ़ रहे होंगे तब उज्जैन, मुरैना सहित 10 नगरीय निकाय चुनावों के परिणाम आ चुके होंगे और जैसी करनी, वैसी भरनी की तर्ज पर कांग्रेस की अधिकांश जगह हार हो चुकी
होगी। दरअसल, हम कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं, बल्कि इन चुनावों के प्रचार में जिस तरह कांग्रेस बेदम दिखी और भाजपा ने दमदारी से प्रचार-प्रसार किया उसके आधार पर यह आंकलन कर रहे हैं। मप्र में विधानसभा, लोकसभा, अन्य नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों में बूरी तरह परास्त होने के बाद भी कांग्रेस चेत नहीं पाई है। इसका नजारा इन 10 नगरीय निकायों के चुनाव प्रचार के दौरान देखने को मिला। जहां भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, सभी मंत्री, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान, संगठन महामंत्री अरविंद मेनन सहित पूरी भाजपा चुनाव प्रचार और प्रबंधन में जुटी रही वहीं कांग्रेस की तरफ से अकेले प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव फुटबाल बने रहे। जब प्रचार के दौरान ऐसी स्थिति रही तो परिणाम क्या होगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
न कोई चिट्ठी न संदेश
बताया जाता है कि व्यापमं में घिरी प्रदेश सरकार को इन चुनावों में घेरने के लिए प्रदेश अध्यक्ष दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित अन्य वरिष्ठ नेताओं को प्रचार के लिए स्वीकृति देने पत्र लिखा था लेकिन किसी की ओर से न कोई चिट्ठी और न ही संदेश आया। उधर, नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे के अस्वस्थ होने के कारण यादव अकेले पड़ गए। हालांकि उन्होंने शिवराज सिंह चौहान और उनकी टीम से अकेले लोहा लेने के लिए दम भरा, लेकिन अकेला चना भाड़ तो नहीं फोड़ सकता है। सूत्र बताते हैं कि जिस तरह भाजपा ने दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार के गड़े मुद्र्दे उखाडऩा शुरू किया है, उस कारण दिग्गी राजा ने इन चुनावों के प्रचार से अपने को दूर करने में ही भलाई समझी। वहीं जिन क्षेत्रों में चुनाव हुए वहां अपना जनाधार नहीं होने के कारण सांसद कमलनाथ भी चुनाव प्रचार करने नहीं आए।
उधर, सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में बताया जा रहा है कि इन चुनावों में अपने समर्थकों को टिकट नहीं मिलने से वे नाराज हैं, इसलिए वे भी प्रचार से दूर रहे। हालांकि पार्टी के पदाधिकारियों का कहना है कि पिछले कई चुनावों में देखने को मिला है कि सिंधिया अपने समर्थकों को अधिक-से अधिक टिकट तो दिलवा देते हैं, लेकिन जीतते कुछ ही हैं। ऐसे में इस बार प्रदेश संगठन ने सभी की अनुशंसाओं को दरकिनार कर अपनी पसंद के नेताओं को टिकट दिया है।
चुनाव प्रचारों अपने दिग्गज नेताओं के नहीं आने का कारण बताते हुए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव कहते हैं कि दिल्ली में संसद का मानसून सत्र चलने के कारण सभी वरिष्ठ नेताओं को कहीं नहीं जाने के निर्देश केन्द्रीय संगठन की ओर से दिए गए हैं। यही वजह है कि कोई भी बड़ा नेता चुनाव प्रचार के लिए नहीं आ सका।
तो क्या कांग्रेस अब नहीं उबर पाएगी ?
इतिहास पलटेंगे तो पाएंगे, कांग्रेस का इतिहास अपनी राख से फिर जन्म लेने का रहा है, बिल्कुल फीनिक्स पक्षी की तरह। लेकिन मप्र में जिस तरह के हालात नजर आ रहे हैं उससे तो यही सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस बूरे दौर से उबर पाएगी ? यह आज की तारीख में बड़ा सवाल है क्योंकि 2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा चुनाव में जैसी दुर्गति कांग्रेस की हुई, पहले कभी नहीं हुई। फिर पहले की तरह इंदिरा गांधी जैसी नेता भी कांग्रेस में नहीं। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर संसद के बाहर और संसद के अंदर जिस तरह का आक्रामक रूख अपनाया है, उससे अभी देश तो नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी को जरूर लग रहा है कि कांग्रेस जल्द वापस लौटेगी। इतिहास पलटें तो 1977 हो या 2014 स्थितियां एक जैसी लग रही हैं। तब 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। लेकिन जनता की बढ़ती नाराजगी के बाद 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव कराने का फैसला लिया। इस दौरान विपक्ष मजबूत हो चुका था। जब नतीजे आए तो कांग्रेस को 153 सीटें मिलीं। 197 सीटों का नुकसान हुआ। कहा जाने लगा कि कांग्रेस खत्म हो जाएगी। अब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस 10 साल सत्ता में थी। लेकिन मोदी लहर के आगे कांग्रेस बुरी तरह सिमट गई। अब तक के इतिहास में उसे सबसे कम 44 सीटें मिलीं। अगर आपको याद हो तो 22 मार्च 1977 को चुनाव में हार को स्वीकार करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा था- मैं और मेरे साथी पूरी विनम्रता से हार स्वीकार करते हैं। कभी मुझे लगता था कि नेतृत्व यानी ताकत है। आज मुझे लगता है कि जनता को साथ लेकर चलना ही नेतृत्व कहलाता है। हम वापसी करेंगे। और वाकई इंदिरा ने बड़ी ताकत के साथ वापसी की। तो क्या सोनिया गांधी भी इंदिरा के मार्ग को अपनाते हुए आगे बढ़ेंगी?
-बृजेश साहू