गांव-देहात के खेल कबड्डी को लगे प्रो पंख
16-Aug-2015 09:59 AM 1234958

गंाव-देहात, धूल-मिट्टी का खेल कबड्डी अब गांवों की अपेक्षा शहरों में चमक बिखेर रहा है। दरअसल, क्रिकेट की तरह कबड्डी को भी आयोजक और प्रायोजकों का साथ मिल गया है। उस पर बॉलीवुड का तड़का लगते ही कबड्डी को प्रसिद्धि का ऐसा पंख लगा कि वह प्रो कबड्डी के नाम से आज हर किसी के दिल में बस चुकी है। आज आलम यह है कि कबड्डी के हर एक खिलाड़ी को लोग जानने और पहचानने लगे हैं। 4 साल पहले राकेश कुमार एशियन गेम्स के डबल गोल्ड मेडलिस्ट बने थे। उनके खेल की मदद से इंडिया ने लगातार छठी बार एशियाड चैंपियन बनने का गौरव हासिल किया था। उस कामयाबी के साल भर बाद राकेश को प्रतिष्ठित अर्जुन अवॉर्ड से भी नवाजा गया। इतनी उपलब्धियों के बावजूद राकेश की तारीफ का दायरा उनके अपने सर्कल, अपने खेल तक ही सीमित रहा। रेलवे के इस एम्प्लॉयी को 32 साल की उम्र में सुर्खियां पिछले साल मिलीं, जिसके हकदार वह 4 साल पहले से थे।
ऐमेचर कबड्डी फेडरेशन ऑफ इंडिया के झंडे तले 12 साल से खेल रहे इस जांबाज खिलाड़ी का नाम प्रफेशनल कबड्डी लीग ने एक झटके में घर-घर पहुंचा दिया। पिछले साल प्रो-कबड्डी लीग के पहले ऑक्शन में राकेश की बोली लगी सबसे ज्यादा 20 हजार डॉलर, यानी करीब 12.8 लाख रुपये। राकेश ही नहीं, उनके खेल कबड्डी की भी यही हालत थी। पिछले साल कबड्डी ने प्रोÓ के पंख लगाकर जिस तरह से उड़ान भरी है, वह उसे 9 एशियन गेम्स गोल्ड मेडल की चमक से भी नसीब नहीं हुई थी। प्रो यानी जब एक अमेच्योर (गैर पेशेवर) खिलाड़ी जब प्रोफेशनल (पेशेवर) वल्र्ड में कूदता है तो वह प्रोफेशनल या प्रो स्पोट्र्सपर्सन बन जाता है।
लोग शायद यकीन न करें कि 1936 के बर्लिन ओलिंपिक्स में कबड्डी को डेमंस्ट्रेशन स्पोर्ट के तौर पर शामिल किया गया था। उससे भी ज्यादा रोचक यह है कि हिटलर ने इस खेल की तब जमकर तारीफ भी की थी। हैरानी जताई जा सकती है कि उस वाकये के लगभग 80 साल बाद भी इस लोकप्रिय खेल की हालत नौ दिन चले ढाई कोसÓ वाली क्यों है! इसको ओलिंपिक स्टेटस हासिल क्यों नहीं है? दरअसल, किसी खेल की जड़ों को मजबूत करके उसे विशाल पेड़ बनाने की प्रक्रिया में पैसा खाद-पानी की तरह काम करता है। इसके बगैर खेल में न तो चमक-दमक होती है और न ही वह फलता-फूलता है। अब जाकर कबड्डी को प्रफेशनल टच मिला है तो वह इसके लिए मिडास टच साबित हो सकता है।

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