16-Aug-2015 08:01 AM
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68 साल के लंबे इंतजार के बाद भारत और बांग्लादेश के 50,000 लोगों को अपनी पसंद के देश में रहने की आजादी तो मिल गई, किंतु कड़वा सच यह है कि इन 50,000 में से एक भी बांग्लादेश नहीं

जाना चाहता। दोनों देशों के निवासी भारत में ही बसने के इच्छुक हैं। यह आत अलग है कि सीमायें इन्हें अब एक दूसरे के परे धकेल रही हैं। कहनें को तो समझौते को रहम दिल रहनुमाओं की दया कहा जा रहा है लेकिन भारत भूमि के प्रति इन लोगों का लगाव और आर्थिक हालात इन्हें बांग्लादेश से जुडऩे नहीं दे रहे। इस सुखद बंटवारे में जो कुछ बंटा है उससे कहीं अधिक वह ताना-बाना तार तार होने का खतरा पैदा हो गया है जो इन निवासियों के पूर्वजों ने सदियों से बुना था। दूसरी तरफ बांग्लादेश की समृद्ध टेक्सटाइल इण्डस्ट्री भी इन अकुशल हाथों को सीमा के पार धकेल रही है जिनकी जरूरत उस खाते-कमाते धंधे में न के बराबर है क्योंकि ये प्रशिक्षित श्रमिक नहीं है। इनमें से ज्यादातर निम्नस्तरीय काम करके अपना पेट पालते हैं चाहे वह चमड़ा कमाना हो या फिर गंदगी साफ करने से लेकर छोटे-मोटे आइटम बनाकर बेचने का काम। इन लोगों के हांथ इसी काम के लिए बने हैं। बांग्लादेश में सामाजिक ढांचा अलग तरह का है और प्रभुत्वशाली अभिजात्य वर्ग भारत की अपेक्षा कम तादाद में है इसलिए वहां इनकी खपत नहीं है लेकिन भारत में है। पूर्वोत्तर में जिन करोड़ों बांग्लादेशी अप्रवासियों ने पूवोत्तर की डेमोग्राफी को बदल दिया है वही वजह इन 50,000 लोगों के सामने भी है इसलिए कागजों पर भले ही अदला-बदली हो जाये लेकिन प्रबल आशंका यही है कि गाहे-बगाहे असली-नकली कागजों के भरोसे यह सब भारत में ही आ जायेंगे।
बहरहाल 31 जुलाई को भारत और बांग्लादेश के बीच हुए भूमि अदलाबदली समझौते में 50 हजार से ज्यादा लोगों को पहली बार नागरिकता मिली है। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें इस समझौते का कोई लाभ नहीं हुआ और अब उनका भविष्य अधर में लटक गया है। इनमें से दो परिवार ऐसे हैं जो इस समझौते के चलते कहीं के नहीं रहे। 62 साल के अब्दुल हामिद और उनके 82 वर्षीय मामा शोभान अली शेख के परिवारों को भारत व बांग्लादेश दोनों ही नागरिकता देने को तैयार नहीं है। इस प्रकार ये परिवार त्रिशंकु बन गये हैं। दोनों परिवार करीब 19 साल पहले बीएसएफ के 12 जवानों को बचाने के प्रयास में भारत की सीमा में आ गए थे। जब वे वापस लौटे तो उनके घरों को जमीदोंज कर दिया गया और उन्हें देशद्रोही कहा जाने लगा वहीं भारत इन्हें घुसपैठिया मानता है। वे इस समय साहिबगंज इलाके में रहते हैं। हामिद कहते हैं कि उन्होंने दो भाइयों, तीन बहनों और मामा शोभान के साथ भारत में प्रवेश किया था। दोनों परिवारों में कुल 77 सदस्य हैं और बच्चे भी बड़े हो गए, उनकी शादियां भी हो चुकी हैं। हम चाहते हैं कि भारत हमें अपनी नागरिकता प्रदान करे।
पति यहां और पत्नी बांग्लादेश में
वहीं डासिआरछारा में रहने वाले सरवार आलम और मरीना बेगम की चार साल पुरानी शादी इस समझौते के कारण टूट गई। इस दंपत्ती के दो बच्चे भी हैं। इस समझौते के बाद सरवार आलम भारत में रहना चाहते थे वहीं मरीना बांग्लादेश में रहना चाहती थी। समझौते के बाद डासिआरछारा बांग्लादेश का हिस्सा बन गया है। सरवार और मरीना दोनों 20 साल के हैं और पहले दोनों ने सहमति से भारत में जाने का फैसला लिया। अंतिम समय में मरीना ने अपना विचार बदल दिया। भारत और बांग्लादेशी एनक्लेव में रहने वाले लोगों की अदलाबदली से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि इस तरह के कई मामले हैं जहां परिवार के सदस्यों के बीच अलग-अलग राय है।
अब सुरक्षा की चिंता
भारत और बांग्लादेश के बीच लंबे इंतजार के बाद सीमा पर बसे विवादित एनक्लेव (छींटमहल) की अदला- बदली की प्रक्रिया के बाद इन क्षेत्रों में सुरक्षा सुनिश्चित करना सुरक्षा एजेंसियों की सबसे बड़ी चिंता है, ताकि ये इलाके राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के केंद्र न बन जाएं। आंतरिक मामलों की संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष व कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य प्रोफेसर प्रदीप भट्टाचार्य ने बताया कि भारत का हिस्सा बने दर्जनों छींटमहलों में सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता है। बांग्लादेश से और पश्चिम बंगाल में सक्रिय जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) मॉड्यूल के सदस्यों का अवैध तरीके से प्रवेश रोकने के लिए यह जरूरी है। उन्होंने कहा कि मैंने पहले ही गृह मंत्रालय को लिखा है कि इंटेलीजेंस ब्यूरो (आइबी), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और राज्य की पुलिस के साथ मिलकर सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाया जाए ताकि राष्ट्र विरोधी तत्व इस मौके का लाभ न उठा सकें। इस मुद्दे को लेकर गंभीर चिंताएं हैं। भट्टाचार्य की तरह ही चिंता जताते हुए राज्य खुफिया ब्यूरो के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि इस मामले में जमीनी स्तर पर खुफिया सूचनाओं को एकत्र करने का काम पहले से ही किया जा रहा है।
-रजनीकांत