शिकार से नहीं, बीमारी और आपसी लड़ाई से मरे मप्र के बाघ
05-Aug-2015 07:49 AM 1234758

टाइगर स्टेट का दर्जा छिन जाने के बाद भी मप्र में बाघों के संरक्षण और संवर्धन के लिए कोई ठोस उपाय नहीं हुए हैं। इस कारण प्रदेश में पिछले पांच साल में 69 बाघों की मौत हो चुकी है। लेकिन

सबसे विसंगति की बात यह है कि इनमें से अधिकांश बाघों की मौत बीमारी या आपसी लड़ाई से हुई है। इसका खुलासा मानसून सत्र के दौरान विधानसभा में प्रस्तुत कैग की रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश में बाघों के लिए सबसे खराब जगह बांधवगढ़ और पन्ना टाइगर रिजर्व क्षेत्र है। यहां पिछले चार साल के अंदर बीस बाघ विभिन्न कारणों से मर चुके हैं। यहां अब 24 में से महज 4 बाघ ही जीवित बचे हैं, जबकि बांधवगढ़ में पिछले चार साल के अंदर बाघों के मौत के 26 फीसदी मामले सामने आए हैं। इस तरह से प्रदेश में 2009 से 2014 तक 69 बाघों की मौत हो चुकी है।
वन्य प्राणी संस्थान देहरादून की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में 69 बाघों की मृत्यु हुई है। जिसकी जांच भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक द्वारा की गई। प्रतिवेदन में बताया गया कि मृत्यु के 55 नमूनों की जांच की गई। जिसमें पाया गया कि 17 मौत बीमारी से, एक शिकार से, 19 इलाके पर कब्जे की लड़ाई से, तीन की जहरखुरानी से, बिजली से सात, दुर्घटना से चार, स्वप्रजातीय भक्षण से आठ, प्राकृतिक मौत तीन और अन्य तरह से सात बाघों की मौतें हुई हैं। विभाग अगर सक्रिय होता, तो बीमारी, विष, शिकार और बिजली से संबंधित मौतों को रोक सकता था। नियंत्रक ने यह भी बताया कि 69 मौतों में 18 प्रकरण सिर्फ बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व क्षेत्र के थे। बांधवगढ़ टीआर के परिक्षेत्र ताला 109.740 वर्ग किमी था। इसमें 34 बाघ रह रहे थे। प्रति बाघ के लिए 3.23 वर्ग किमी क्षेत्र था। हालांकि एनटीसीए के निर्देश के अनुसार प्रति बाघ दस वर्ग किमी क्षेत्र अंकित किया गया है। विभाग के अधिकारियों ने बताया है कि बाघों के क्षेत्रीय संघर्ष को रोकने के लिए उपाय किए जा रहे हैं। वहीं उनके पुनर्वास के लिए भी योजना बनाई जा रही है। वन्य प्राणी संस्थान देहरादून ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि रायसेन में बाघों की संख्या बढ़ी (16) है। जबकि सबसे ज्यादा (65) बाघों की संख्या पेंच टाइगर रिजर्व में है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश के 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्यों के आसपास फार्म हाउस और रिसोर्ट खुलते जा रहे हैं। इससे वन्य प्राणियों के क्षेत्र में कोलाहल बढऩे लगा है। जिसके कारण बाघ एक सीमित क्षेत्र में सिमटने लगे हैं और इलाके पर कब्जे की लड़ाई में अपनी जान गंवा रहे हैं।
वन विभाग के मैदानी अफसरों का कहना है कि कान्हा और पेंच नेशनल पार्क के आसपास बने रिसोर्ट के संचालक मोटी कमाई की लालच में पर्यावरण के साथ ही वन्य जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहे रहे हैं। मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नेशनल पार्को के आसपास नियम विरूद्ध संचालित 15 रिजॉर्ट संचालकों को नोटिस दिए हैं। जबलपुर संभाग के तीन जिलों में पचास से अधिक रिजॉर्ट संचालित हो रहे हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार कान्हा और पेंच नेशनल पार्क की सीमा से लगे तीन जिलों में 64 रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। इनमें मंडला के 22, बालाघाट के 20 तथा सिवनी के 22 रिसोर्ट  शामिल हैं। इनमें 15 रिसोर्ट संचालकों ने समय सीमा निकलने के बाद प्रदूषण बोर्ड से अनुमति ली नहीं है। वहीं मार्च 2014 में 11 रिसोर्ट की एनओसी समाप्त हो गई है। अब तक संचालकों नेे आवेदन नहीं किया है। वहीं 10 दस नए रिसोर्ट  के लिए संचालकों ने एनओसी के लिए आवेदन दे रखा है। नेशनल पार्क के आस-पास रिसोर्ट  खोलने से पहले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संचालन की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रदूषण बोर्ड द्वारा रिसोर्ट से निकलने वाले पानी और होने वाले ध्वनि प्रदूषण के लिए अनुमति लेनी होती है। क्षेत्रीय प्रबंधक मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एमएल पटेल कहते हैं कि कान्हा और पेंच नेशनल पार्क में 64 रिसोर्ट संचालित हैं। इसमें 15 की एनओसी समाप्त हो चुकी है।
क्षेत्रफल सबसे बड़ा, अमला सबसे छोटा
मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्य भी आते हैं।  इतने बड़े जंगलों की सुरक्षा के लिए फील्ड में सरकार ने मुख्य भूमिका में वन क्षेत्रपाल रेंजर के 1192, सहायक वन क्षेत्रपाल डिप्टी रेंजर के 1257 तथा वनरक्षकों के 13 हजार 997 पद स्वीकृत किए थे। यानी इसी महकमे पर अवैध शिकारियों, अवैध कटाई, अवैध उत्खनन को रोकने की जिम्मेदारी है। यह अमला चाहे तो जंगलों को साफ करवा देता है और यह चाहे तो सुरक्षा प्रदान करता है, जो अब पर्याप्त है।
एक टाइगर पर सालाना साढ़े ग्यारह लाख का खर्च
मप्र में एक टाइगर का सालाना खर्च साढ़े ग्यारह लाख रुपए है, जबकि अन्य राज्यों में यह 8 लाख 80 हजार है। प्रति बाघ इतनी बड़ी रकम खर्च किए जाने के बाद भी बाघों का कुनबा बढ़ाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। बहरहाल बदनामी हुई तो नए सिरे से प्रयास शुरू हुए। नतीजतन, पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क एक बार फिर बाघों का बसेरा बन गया है। यहां साल 2009 तक बाघों की दहाड़ पूरी तरह से खामोश हो गई। प्रदेश के वन मंत्री गौरीशंकर शेजवार कहते हैं कि 5 साल पहले पन्ना में दोबारा बाघों को बसाने का काम शुरू हुआ, आज वह रंग लाया है। 26 दिसंबर 2009 को पेंच से एक बाघ टी-3 और कान्हा से दो बाघिन लाई गईं। आज स्थिति यह है कि पार्क में करीब दो दर्जन बाघों की दहाड़ सुनाई देती है। विश्व का यह पहला टाइगर रिजर्व पार्क है, जहां दोबारा बसाए गए बाघों संख्या में इतनी तेजी से वृद्धि हुई है। पेंच से लाए गए टी-3 बाघ को पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क में मिस्टर पन्ना का खिताब दिया गया। पन्ना बाघ पुनस्र्थापना के इन सालों में 32 से अधिक शावकों का जन्म हुआ है।
राजेश बोरकर

 

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