05-Aug-2015 07:38 AM
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12 मार्च 1993, मुंबई महानगर में एक डबल डेकर बस अपनी मस्ती में चली जा रही है। नन्हें-मुन्ने बच्चे जो कि इस देश के कर्णधार थे, गाते-गुनगुनाते घर या स्कूल को जा रहे थे। वे सभी वर्ग के
थे। किसी के अब्बू ने अपनी प्यारी बिटिया ने छोड़ा था तो किसी के पापा ने अपने बेटे को चूम कर स्कूल बस में बिठाया था। किसी की मां अपने दोनों आंखों के तारों को उस बस में बिठाकर बेफिक्र हो गई थी। दीन-दुनिया से दूर नफरत और घृणा से परे वे फरिस्ते चले जा रहे थे। उन्हें क्या मालूम था कि ये उनकी मौत का सफर है, लेकिन सेन्चुरी बाजार में मेनहोल के ऊपर से गुजरते ही बम फटा और परखच्चे उड़ गए। 113 बच्चे, महिलाएं और पुरूष मारे गए। आसपास खून बिखरा हुआ था। लाशों के ढेर लग चुके थे। बच्चों के अंग-किसी का हाथ, किसी का पैर, किसी का सर तो किसी का धड़ दूर-दूर तक बिखर चुके थे। जमीन पर जो खून बिखरा हुआ था, वह न किसी मुसलमान का था न किसी हिंदू का। वह खून था इस देश के नौनिहालों का। उस दिन दहल गई थी मुंबई। मुंबई स्टॉक एक्सचेंज से लेकर सेंचुरी बाजार तक और शहर के कई इलाकों में आरडीएक्स की छड़ें लगा दी गई थीं। एक के बाद एक कई बम फटते गए। 257 जानें मिनटों में चली गईं। बेकसूर मारे गए। सैकड़ों अपाहिज हो गए। चीत्कार मच गया। हमेशा की तरह पहले शक पाकिस्तान पर किया गया। पाकिस्तान ने ये हमला कराया या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन यह सत्य है कि हमला करने वाले हमारे अपने ही देश के नागरिक थे। अपनी ही आस्तीन के सांप थे। अपने ही घर के चिराग थे, जिन्होंने घर को ही जला दिया।
किंतु 29 जुलाई 2015 को इस घटना के 22 साल 5 माह बाद षड्यंत्रकारी याकूब मेमन की पैरवी करने वाले और फेसबुक से लेकर सोशल मीडिया तक उस दानव के पक्ष में लामबंद होने वाले इस देश के उन कथित दयावानोंÓ के चेहरे पर न तो शिकन है और न ही शर्म। वे उतनी ही बेशर्मी और नफासत से एक आतंकवादी की पैरवी करने को प्रस्तुत हैं मानो किसी क्रांतिकारी की पैरवी करने के लिए अदालत का दरवाजा खट्खटा रहे हों। मानव अधिकारों के कथित रहनुमाओं की इस सहानुभूति ने मुंबई बम कांड के पीडि़तों के दर्द को और बढ़ा दिया। इन लोगों ने आधी रात को दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के आवास पर जो तमाशा किया, उसने इस देश की न्यायपालिका को न केवल आहत किया बल्कि देश की प्रतिष्ठा को भी विश्व मंच पर धक्का पहुंचाया। जिस आतंकी का दिल मासूम बच्चों के लिए मेनहोल में आरडीएक्स फिट करते समय नहीं पसीजा, उसके प्रति इतनी सहानुभूति, एक नहीं दो बार राष्ट्रपति के समक्ष दया की गुहार, सुप्रीम कोर्ट में बार-बार अर्जी, मानो वह आतंकी नहीं कोई देशभक्त था। बेबुनियाद, तर्कहीन और बहुत हद तक आपराधिक जुनूनी तरफदारी एक खूनी के लिए। मीडिया का एक वर्ग भी जार-जार रो रहा था- याकूब पढ़ा-लिखा है, उसने दो बार एमए किया है, जेल में वह पढ़ता रहा, वह बच्चों को पढ़ाना चाहता था, स्कूल खोलना चाहता था, वगैरह-वगैरह, जितने मुंह उतनी बातें। याकूब की फांसी को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश भी समाजवादी पार्टी के सांसद और ओवैसी बंधुओं जैसे तमाम लोगों ने की। इंटरनेट पर, फेसबुक पर अभियान चलाया गया कि मुसलमान की दो ही जगह है, कब्रिस्तान या पाकिस्तान। यह जहर फैलाने वाले कौन थे, क्या इन्हें यह ज्ञात नहीं था कि स्वतंत्रता से लेकर अब तक जो 1343 सेे ऊपर फांसियां हुई हैं, उनमें केवल 79 मुसलमानों को फांसी दी गई है, 5 प्रतिशत से भी कम। फांसी पर लटकने वाले 90 प्रतिशत हिंदू हैं। ऐसे में हिंदू बनाम मुस्लिम का सवाल ही कहां पैदा होता है। हत्यारे किसी कौम के नहीं होते। वे मानवता के दुश्मन होते हैं। इसके बाद भी याकूब की फांसी को हिंदू बनाम मुसलमान बनाने की कोशिश की गई। मुसलमानों को बरगलाने का प्रयास किया गया कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। गलत आंकड़े बताए गए। मुंबई सहित देश के कई भागों में बहुत से राजनीतिक दलों ने याकूब के पक्ष में प्रदर्शन किया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस देश में है, किंतु किस हद तक। एक हत्यारे आतंकवादी के पक्ष में बयान देना, उसके पक्ष में लामबंद होना, ऐसी अभिव्यक्ति तो केवल भारत में ही संभव है। यदि अमेरिका में ऐसा किया जाता तो ग्वांतनामों जेल के किसी कोने में सडऩे के लिए छोड़ दिया जाता, लेकिन भारत की सहिष्णुता, उदारता और सहृदयता का इतना नाजायज फायदा? लेकिन वोट के लालच में दीवानी हुई राजनीति ने याकूब की फांसी को शहादत में बदलने की कोशिश की। इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर याकूब की मौत एक बड़ा भारी मीडिया इवेंट बन गई। याकूब केवल इसलिए चर्चा में आ गया, क्योंकि वह एक मुसलमान था। फांसी तो धनंजय चटर्जी को भी हुई थी। किसी को पता है, उसे कब लटका दिया गया? कोई चटर्जी की पैरवी करने आधी रात को सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं गया, तब कहां थे वे शांतिभूषण और उन जैसे अनेक स्वयंभू मानवतावादी? क्या चटर्जी इंसान नहीं था? याकूब के लिए आधी रात को अदालत खुली, तड़के चार बजे तक चर्चा होती रही, लेकिन न्यायपालिका ने तय कर लिया था। न्याय का तकाजा यह कहता है कि जिस हत्यारे की रूह निर्दोष लोगों का कत्ल करते वक्त नहीं कांपी, उसके प्रति दया दिखाना न्याय को ही दंडित करने के समान है, इसलिए फांसी दे दी गई। नागपुर की यरवदा जेल में सुबह 6.30 पर आतताई को सूली पर लटका दिया गया। उसकी यही गति तय थी।
याकूब के साथ ही इस मामले पर विराम नहीं लग सकता। मुंबई बम कांड तो अब खुला है। मामले का मुख्य आरोपी अंडरवल्र्ड डॉन दाउद इब्राहिम पाकिस्तान में छुपा बैठा है। कई आरोपी फरार हैं। दाउद के भाई सुलेमान मेमन को जमानत मिल गई, इसलिए उसे भारत की न्यायपालिका में विश्वास है, लेकिन बर्ली में जिस रूबीना की कार से एके-56 रायफल और बम मिले थे, वह पुणे की जेल में उम्रकैद की सजा काट रही है। मेमन का भाई टाइगर मेमन देश छोड़कर भाग चुका है। एक अन्य भाई औरंगाबाद में उम्रकैद की सजा काट रहा है। तीसरे भाई यूसुफ मेमन को भी औरंगाबाद में सजा दी गई है। याकूब की पत्नी राहीन मेमन एक मां होते हुए भी इस षड्यंत्र में शामिल थी, उसे सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया है।
मुंबई दहलाने जुटाया पैसा
भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में 1993 में एक साथ 12 स्थानों पर सिलसिलेवार बम धमाके का मास्टरमाइंड डॉन दाऊद इब्राहिम था, जो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की छत्रछाया में कराची में चैन से रह रहा है। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट याकूब मेनन ने मुंबई को दहलाने के लिए हवाला के जरिए पैसे जुटाए थे। गिरफ्तारी से पहले वह सीए फर्म चलाता था और इसके माध्यम से वह अपने बड़े भाई टाईगर मेनन के कालेधन का कारोबार संभालता था। मामले की टाडा कोर्ट में पैरवी करने वाले सरकारी वकील उज्वल निकम बताते हैं कि इस हमले की साजिश दुबई में रची गई थी। हवाला के जरिए पैसा इक_ा करने के बाद याकूब ने 15 लोगों को पाकिस्तान में ट्रेनिंग के लिए भेजा था और उनके लिए हवाई जहाज का टिकट भी उपलब्ध कराया था। बम धमाके से पहले याकूब देश छोड़कर भाग गया था। ऐसे में उसके खिलाफ आरोप साबित करना बड़ी चुनौती थी। दो साल बाद 1994 में नेपाल के काठमांडू से सीबीआई ने उस गिरफ्तार कर लिया था। टाडा कोर्ट ने 27 जुलाई 2007 को 53 वर्षीय याकूब समेत 11 लोगों को फांसी की सजा सुनाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए 10 दोषियों की मौत की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था कि इनकी भूमिका याकूब मेमन से अलग थी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिलने के बाद याकूब मेमन ने राष्ट्रपति के यहां भी दया याचिका दायर की थी, जिसे पिछले साल ही खारिज कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त को पांच साल की सजा सुनाई। वहीं, याकूब मेमन को भगोड़े दोषियों के बाद सबसे बड़ा अपराधी मानते हुए उसकी फांसी की सजा को बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में एक बार फिर पाकिस्तान की भूमिका पर भी सवाल उठाया। कोर्ट ने माना कि 1993 के बम धमाकों के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का भी हाथ था। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि दोषियों को बम बनाने और अत्याधुनिक हथियारों का प्रशिक्षण पाकिस्तान में ही मिला था। आईएसआई और दाऊद इब्राहिम ने आतंकियों को मुंबई में हथियार और गोला-बारूद उपलब्ध कराए थे। मुंबई पुलिस के लिए इन धमाकों की जांच एक बहुत बड़ी चुनौती थी, लेकिन जांच एजेंसियों के साथ मिलकर पुलिस ने इस मामले की जांच को आगे बढ़ाया। शुरुआत में पुलिस को मुंबई में इतनी बड़ी मात्रा में गोला बारूद पहुंचने का कोई सुराग नहीं मिला, लेकिन विस्फोटकों से भरे एक स्कूटर ने पुलिस को मामले की तह तक पहुंचाया। पुलिस को टाइगर मेमन के घर से एक चाभी मिली, जो इसी स्कूटर की थी और पुलिस के हाथ एक बड़ा सुराग लगा। यहां से जांच आगे बढ़ती चली गई। पुलिस के हाथ सुराग लगते ही बड़ी संख्या में आरोपियों की धरपकड़ शुरू हो गई। इस दौरान एक चौंकाने वाला नाम सामने आया। पुलिस को जांच में बॉलीवुड अभिनेता संजय दत्त के घर से एक एके-47 बंदूक मिली। पुलिस ने संजय दत्त को टाडा के तहत गिरफ्तार कर लिया। इस मामले में 4 नवंबर 1993 को शुरू हुआ मुकदमा करीब 14 साल तक चला। मुकदमे में 100 आरोपियों को सजा हुई, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
बम धमाकों में भूमिका
याकूब मेमन 1993 बम धमाकों के मुख्य आरोपी इब्राहिम मुश्ताक उर्फ टाइगर मेमन का भाई है। टाइगर मेमन आज भी दाऊद इब्राहिम की तरह पाकिस्तान में छुपा बताया जाता है। इन धमाकों में 257 लोगों की जान गई थी, जबकि हजारों लोग उसमें जख्मी हुए थे। बम धमाकों के ठीक 20 साल बाद यानि 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने याकूब को फांसी की सजा सुनाई। 27 जुलाई 2007 को याकूब को सबसे पहले मुंबई की टाडा कोर्ट के जज पी डी कोडे ने सजा ए मौत सुनाई। 1993 के मुंबई धमाकों पर बनी अनुराग कश्यप की फिल्म ब्लैक फ्राइडेÓ में अभिनेता इम्तियाज अली ने याकूब मेमन का किरदार निभाया था। वीडियो न्यूज मैग्जीन न्यूजट्रैकÓ को दिए इंटरव्यू में याकूब ने कबूला था कि बम धमाकों की साजिश टाइगर मेमन और उसके साथियों ने रची। ये वीडियो फुटेज भी फिल्म में शामिल की गई थी।
पत्नी राहीन पर भी लगे आरोप
याकूब मेमन की पत्नी राहीन मेमन पर भी पति पर लगे आरोपों की आंच पड़ी और उसे पुलिस ने गिरफ्तार किया। राहीन पर आरोप था कि उसने पति को इस आतंकी वारदात को अंजाम देने के लिए उकसाया था। जब उसे अरेस्ट किया गया तब वह गर्भवती थी और उसे उसके बच्चे के साथ जेल में ही रहना पड़ा। हालांकि उसके खिलाफ भी पुलिस को किसी तरह का कोई सबूत नहीं मिला और उसे 2006 में जमानत दे दी गई।
22 वर्ष एक फांसी
22 वर्ष का समय लगा मुकदमें को अंजाम तक पहुंचने में और 22 वर्ष बाद एक फांसी भी हुई तो केवल एक याकूब मेमन को, जबकि उसकी बीबी से लेकर उसके परिवार का एक-एक सदस्य इस षड्यंत्र में शामिल था। मुंबई बमकांड की साजिश उसी के निवास पर रची गई थी। उसी ने सारे संसाधन जुटाए। पैसा खर्च किया गया और एक नहीं कई-कई बार उन इलाकों की रैकी की। नौजवानों को बम लगाने के लिए तैयार किया गया। अपने घर के हर सदस्य को इस खूनी खेल में शामिल किया।
पढ़ाई-लिखाई और करियर
30 जुलाई 1962 को मुंबई में पैदा हुए याकूब मेमन का बचपन मुंबई में सेंट्रल रेलवे लाइन के स्टेशन भायकला में ही बीता। याकूब की शुरुआती पढ़ाई एंटिनो डीसूजा स्कूल में हुई जबकि उसने 1986 में कॉमर्स विषय में बुरहानी कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड आट्र्स से ग्रैजुएशन किया। पढ़ाई में तेज मेमन ने 1986 में इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया में नामांकन कराया और 1990 में उसने चार्टर्ड एकाउंटेंट की डिग्री हासिल की। सीए की डिग्री लेने के बाद
मेमन ने बचपन के दोस्त चेतन मेहता के साथ मिलकर 1991 में अपनी फर्म मेहता एंड मेमन एसोसिएट्स बनाई। हालांकि इस फर्म से चेतन जल्द ही अलग हो गया। इसके बाद याकूब ने अपनी एक दूसरी फर्म ए आर एंड संस बनाई जो बहुत ही सफल रही।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
बेहद धार्मिक होने के साथ-साथ याकूब के पिता अब्दुल रज्जाक मेमन क्रिकेटर भी रहे। रज्जाक मेमन ने मुंबई लीग भी खेला है। रज्जाक को बम धमाके के आरोप में पकड़ा गया था, लेकिन बाद में उनको जमानत दे दी गई। हालांकि 2001 में 73 साल की उम्र में रज्जाक की मौत हो गई।
याकूब मेमन की मां हनीफा मेमन एक घरेलू महिला हैं। हालांकि बुजुर्ग अवस्था में होने के चलते अब उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता है। फिलहाल वे एक व्हील चेयर पर रहती हैं। मुंबई बम धमाकों में हनीफा पर आरोप था कि उन्होंने अपने बेटों को आतंकी वारदात को अंजाम देने के लिए उकसाया था। हालांकि बाद में किसी तरह के सबूत नहीं मिल पाने के चलते हनीफा को जमानत दे दी गई।
न्याय के लिए रात भर जागे सुबह काम पर लगे
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने याकूब मेमन के प्रकरण पर लगभग रात भर सुनवाई की और अगले दिन सुबह 10.30 बजे फिर से कोर्ट पहुंच गए। न्यायमूर्ति मिश्रा ने 30 जुलाई को तड़के 3.18 मिनट से लेकर 4.05 मिनट तक सुप्रीम कोर्ट के रूम नंबर 4 में सुनवाई की। इससे पहले मीडिया मिश्रा के घर के बाहर जमा हो गया था। इस उम्मीद में कि वे अपने घर पर ही सुनवाई करेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई करने के बाद सुबह लगभग 5 बजे निर्णय की घोषणा करते हुए न्यायमूर्ति मिश्रा ने याकूब की फांसी के वारंट को रोकने से इनकार कर दिया। इसके डेढ़ घंटे बाद ही याकूब को फांसी दे दी गई। उसी जल्लाद द्वारा जिसने पाकिस्तान के आतंकवादी अजमल कसाब को पुणे की यरवदा जेल में तीन वर्ष पहले फांसी दी थी। 61 वर्षीय विद्वान न्यायाधीश दीपक मिश्रा पटना और दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। वे वर्ष 2017 में देश के मुख्य न्यायाधीश बन सकते हैं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। इनमें से एक दिल्ली पुलिस को दिया गया वह
फैसला है जिसमें उन्होंने एफआईआर को 24 घंटे के भीतर वेबसाईट पर अपलोड करने का कहा था।