शिव ही सत्य है... व्यापमं की जांच सीबीआई को
21-Jul-2015 08:13 AM 1235034

व्यापमं मामला सीबीआई को सौंपा जा चुका है। पूर्व डीजीपी नंदन दुबे ने इस मामले की जाँच सीआईडी को सौंपी थी तब उन्हें यह पता नहीं था कि यह घोटाला इतना बड़ा होगा कि शिवराज ही सीबीआई को जाँच सौंप देगें। हाईकोर्ट ने सीबीआई को सौंपने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इसलिए शिव ही सत्य है। यह कहना उचित ही है।  क्योंकि वे सत्य नहीं होते तो सीबीआई जांच की बात क्यों कहते। यह बात अलग है कि सीबीआई सत्य को कितना निकाल पाएगी।   सीबीआई ने नम्रता, अक्षय सिंह समेत पांच संदिग्ध मौत की केस डायरी जब्त करते हुए भाजपा नेता गुलाब सिंह किरार सहित पांच एफआईआर और दर्ज की है।  किंतु इसके साथ एक सवाल पैदा होता है कि जब शिव सत्य हैं तो एक दिन में सत्तापक्ष छह-छह प्रेसवार्ता करके सफाई क्यों दे रहा है। एक सवाल यह भी है कि जब विश्वासघाती पांचों मंजिलों पर हैं तो शिव आंख मंूदकर ब्यूरोक्रेसी पर
भरोसा क्यों कर रहे हैं। आईएएस जिन्हें एलियंस कहा जाता है किसी के सगे नहीं होते। बहरहाल अब मांग उठी है कि सीबीआई भी जांच-पड़ताल सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में करे। कल तक जिस सीबीआई को सरकार का तोता कहा जाता था, आज वह कांग्रेस और देश तथा मध्यप्रदेश में सत्तासीन भाजपा के कुछ करामाती नेताओं की नजर में इतनी विश्वसनीय बन गई है कि व्यापमं जैसा पैचीदा मामला सीबीआई को सौंपते हुए इन लोगों के मन में वैसा ही इत्मीनान और शांति का भाव उत्पन्न हो रहा है जैसा पिंडदानÓ के बाद होता है। सीबीआई के पाले मेें व्यापमं के जाने के बाद कांग्रेस के तेवर नरम पड़े हैं और भाजपा में शिवराज के खिलाफ भीतरी मुहिम चलाने वाले दूसरे अभियान में जुट गए हैं। लेकिन इस पूरी कवायद में एक आशंका उभरकर सामने आई है कि कहीं शिवराज को सॉफ्ट टॉरगेट तो नहीं बनाया जा रहा है। व्यापमं अमानवीयता की पराकाष्ठा तक पहुंचा, हमारे दौर का सबसे हत्यारा और निर्मम घोटाला है- इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन जिस तरह शिवराज सिंह चौहान को बलि का बकरा बनाने की कोशिश की जा रही है, उससे व्यापमं जैसे खतरनाक कांड की राजनीति में उलझकर अनिर्णीत रहने के खतरे भी पैदा हो गए हैं। बनिस्पत इस तथ्य के कि मुख्यमंत्री आवास से लेकर राज्यपाल आवास तक, सचिवालय से लेकर देवालय तक, भाजपा कार्यालय से लेकर संघ कार्यालय तक और कांग्रेस से लेकर भाजपा तक यह घोटाला सर्वव्यापी है इसलिए इसमें शामिल भी कोई नहीं है और क्लीनचिट भी किसी को नहीं है- यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि जिस शिवराज ने इस घोटाले के उजागर होने के बाद एसआईटी का गठन किया, एसटीएफ को जांच सौंपी, आज वे ही कटघरे में क्यों खड़े किए जा रहे हैं? यदि शिवराज दोषी होते या उनकी नीयत में खोट होती, तो वे क्यों खुद आगे बढ़कर एसआईटी का गठन करते और इस जांच को गति देने के लिए हर-संभव प्रयास कर रहे होते? मीडिया के प्रभाव में रहने वाले इस देश के जागरूकÓ वर्ग की एक त्रासदी यह भी है कि जहां हवा का रुख रहता है वहां वह भी बहने लगता है- अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
आज व्यापमं रूपी तूफान की रफ्तार भरी हवाएं श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री आवास की भित्तियों को झकझौर रही हैं, तो यह सवाल अनायास ही पैदा हो रहा है कि जेत के भोले-भाले किसान शिवराज को कहीं उसके अपनों ने ही तो दंश नहीं दे दिया? चाणक्य ने कहा था कि जिस तरह पानी में रहने वाली मछलियां कब जल पी लेती हैं पता नहीं चलता, उसी तरह राज पुरुष कब राजकोष को तबाह कर देते हैं पता नहीं चलता। राजकोष भले ही तबाह नहीं किया है लेकिन जनता का विश्वास तो तबाह किया ही गया है और यह तबाही जिसने भी मचाई है, उसने शिवराज को हवा तक नहीं लगने दी। वे शिवराज के अपने भी हो सकते हैं और पराए भी। जो भी हों, लेकिन शिवराज की सरलता-सहजता और भोलेपन का इन लोगों ने नाजयज फायदा उठा लिया है। शिवराज जनकल्याण में मगन रहे, विकास के लिए पसीना बहाते रहे, प्रदेश की कृषि विकास दर को विश्व में सर्वाधिक स्तर तक लाने के लिए दिन-रात जुटे रहे, ओला-पाला-आपदा से पीडि़त मर्मांतक पीड़ा से तड़पते किसानों के आंसू पौंछने के लिए दिल्ली और भोपाल की खाक छानते रहे, जनता के दुख-दर्द जानने के लिए लंबी-लंबी यात्राएं करते रहे, चाहे अफ्रीका में चाहे अमेरिका के फिशर हॉल में- शिवराज हर जगह मध्यप्रदेश की बात करते रहे, फ्रेंडस ऑफ मध्यप्रदेश बनाते रहे। लेकिन उधर उनके ही कुछ कथित विश्वसनीय उनकी ही प्रतिष्ठा को घुन लगाते रहे। यह बेखबरी ही उस शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता के ताबूत में आखरी कील सिद्ध हो रही है, जिसकी तुलना लालकृष्ण आडवाणी ने 2013 के मार्च में अटल ज्योति अभियान के वक्त अटल बिहारी वाजपेयी से करते हुए शिवराज को प्रधानमंत्री के संभावित प्रत्याशी की दौड़ में शामिल कर दिया था। देश में भले ही नहीं किंतु प्रदेश में शिवराज की कोई काट नहीं थी। तमाम विरोधाभासों के बावजूद चुनाव में आशातीत सफलता ने इस बात को सिद्ध भी किया था।
लेकिन हमें तो अपनों ने मारा गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती भी वहीं डूबी जहां जलÓ कम था।  यह जल जलजला कब बना, शांति सैलाब में कब बदली, शिवराज को पता ही नहीं चला। कूटनीतिज्ञ गोबल्स ने राजनीतिज्ञों को चेतावनी दी है कि वे जिस पर सर्वाधिक विश्वास करते हैं, उससे सावधान रहें। यह बात अक्षरश: सत्य है। राजनीति में हमेशा अपने ही धराशाई करते हैं। न जाने क्यों और किसलिए शिवराज के सलाहकारों ने उन्हें लंबे समय तक सीबीआई जांच से रोके रखा और जब सीबीआई जांच की घोषणा हुई, तो यह संदेश गया कि नरेंद्र मोदी ने अमित शाह के मार्फत दबाव बनाया तब कहीं जाकर शिवराज सीबीआई जांच के लिए राजी हुए। वे शिवराज जो कभी पार्टी में नरेंद्र मोदी के समकक्ष उनके बराबर के कद के नेता माने जाते थे, अचानक दयनीय हालात में पहुंच गए। बात केवल इतनी सी थी कि शिवराज चाहते थे कि वे खुद एसटीएफ के माध्यम से इस घोटाले को इतनी शीघ्रता से अंजाम तक पहुंचा दें कि किसी को उंगली उठाने का मौका ही न मिले। लेकिन शिवराज की इस तत्परता को प्रदेश की नौकरशाही और उनके ही सलाहकारों ने हास्यास्पद बना दिया। जिस सीबीआई को पिछले एक दशक में सुप्रीम कोर्ट एक नहीं अनेक मौकों पर गरिया चुका है, आज वही सीबीआई इस निर्मम घोटाले का पर्दा फाश करेगी। चाकू तरबूजे पर गिरे या तरबूजा चाकू पर गिरे, कटना तो तरबूजे को ही है। कुछ ऐसी ही स्थिति आज मध्यप्रदेश में निर्मित हो गई है। अपने मुंह से प्रेस वार्ता में सीबीआई की जांच की घोषणा करने के बावजूद कटघरे मेें शिवराज ही हैं। सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सभी शिवराज के खिलाफ लामबंद होते नजर आ रहे हैं। अपराध केवल यह है- शिवराज ने व्यापमं का भंडाफोड़ किया, वे खुद व्हिसिल ब्लोअर बने, उन्होंने एसटीएफ का गठन किया, वे हाईकोर्ट में गए, सुप्रीम कोर्ट में गए और अब सीबीआई की दहलीज पर भी उनके ही कदम पड़े। जब-जब गुलिस्तां को लहू की जरूरत पड़ी, गर्दन शिवराज की ही कटी और कटती रहेगी क्योंकि भोले-भाले शिव जनता के बीच भले ही लोकप्रिय हों लेकिन जिन भस्मासुरों को उन्होंने अपने आस-पास जमा कर रखा है, वे ही उनके सर पर हाथ रखने के लिए लालायित हैं और ताज्जुब की बात तो यह है कि कोई विष्णु नहीं है, जो भस्मासुर को मोहिनी बनकर मोहिनी अट्टम करवा ले, शिव को यह गरल खुद ही पचाना होगा। लेकिन देर-सवेर उन्हें उन लोगों पर विश्वास करने की आदत त्यागनी होगी, जो उनकी सदाशयता का नाजायज फायदा उठाते रहे हैं। शिवराज को शत्रुओं से नहीं मित्रों से खतरा है।
बहरहाल जब व्यापमं सीबीआई के पाले में चला ही गया है, तो कुछ अहम सवाल खड़े हो रहे हैं। अभी तक जो भी देखो वह यही कहता आया है कि व्यापमं में बड़ी मछलियों तक जांच एजेंंसियां नहीं पहुंच सकी हैं इसीलिए इस घोटाले के सूत्र पकड़ में नहीं आ पाए। उधर 45 के करीब मौतों ने जिनमें से कुछ संदेहास्पद और डरावनी भी हैं, इस महाघोटाले को एक नया आयाम दिया है। घोटाला खुलेगा, कैसे खुलेगा, कौन जिम्मेदार ठहराए जाएंगे, किसे सजा होगी, यह अलग विषय है। लेकिन 25 से 45  वर्ष के नौजवानों की असामायिक मृत्यु क्यों हो रही है? क्या उन्हें किसी ने मौत के घाट उतार दिया है? या फिर व्यापमं का तनाव और अकारण चिंताएं इन अकाल मौतों का कारण बनती जा रही हैं। जो जेल में बंद हैं, वे जेल के किसी कोने में सड़ रहे हैं। जघन्य से जघन्य हत्याकांड में, बलात्कार के वीभत्स प्रकरणों में, डकैतियों और फिरौती के मामलों में खूंखार से खूंखार अपराधी की जमानत हो रही है लेकिन व्यापमं जिसका एकमात्र सूत्र वह एक्सल सीट है, जिसकी विश्वसनीयता संदेहास्पद है, में बंंद मंत्री से लेकर संत्री तक सभी जमानत के लिए तरस रहे हैं। वह बाहर निकलने को बेताब हैं। मान लो कल को उनमें से कुछ निर्दोष सिद्ध होते हैं, तो क्या उनके उन बेशकीमती दिनों को लौटा दिया जाएगा? लंबे समय तक सबूतों के अभाव में जेल की सलाखों के पीछे कब तक इन्हें रखा जाएगा? कुछ के ऊपर तो लिकर, आम्र्स एक्ट भी लगाए गए हैं। यह किस लिए? इससे भी व्यापमं की जांच पर आंच अवश्य आएगी। क्योंकि जांच सही दिशा में न चले, तो न्याय देने वाली संस्थाएं भी भ्रमित हो सकती हैं। सीबीआई को यह सुनिश्चित करना होगा कि जांच की प्रक्रिया का हर अंग सुचारू रूप से काम करे। एक-एक कड़ी को जोड़ा जाए, मिसिंग लिंक तलाशे जाएं। सीबीआई को उन टनों से जमा दस्तावेज को खंगालने मेें ही महीनों लगने वाले हैं, तब जाकर जांच शुरू होगी। कांग्रेस और कुछ व्हिसिल ब्लोअर ने एक्सल सीट को लेकर सवाल उठाए हैं। उन सवालों से भी जूझना होगा। कांग्रेस ने एक दिवसीय बंद का आयोजन भी किया है। वैसे देखा जाए तो व्यापमं की जांच 1996 से प्रारंभ की जानी चाहिए। इस मामले में सबसे पहला प्रकरण सन 2000 में सामने आया था, ऐसा कुछ न्यूज चैनलों पर बताया गया है। यदि यह सच है, तो जांच का दायरा केवल भाजपा सरकार तक सीमित क्यों रहे? क्योंकि व्यापमं अपने गठन के समय से ही सवालों के घेरे में रहा है। डीमेट में पूरा मटियामेट है, तो व्यापमं में हर परीक्षा की पवित्रता और विश्वसनीयता कटघरे में है। मध्यप्रदेश की तरुणाई शर्मसार है। प्रदेश का होनहार डॉक्टर या अन्य पेशेवर प्रदेश से बाहर नौकरी के लिए आवेदन करता है, तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जाता है कि कहीं यह मुन्नाभाई तो नहीं क्योंकि जिस प्रदेश में मेडिकल परीक्षा में पास होने वाला छात्र 12वीं के बोर्ड में फेल हो जाता हो और उसके बाद भी महीनों तक उसका मेडिकल कॉलेज में दाखिला रद्द न होता हो उस प्रदेश में शिक्षा की स्थिति क्या होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। मध्यप्रदेश के व्यापमं और डीमेट घोटालों ने यहां के विद्यार्थियों और यहां की पूरी शिक्षा पद्दति की छवि को रसातल में पहुंचा दिया है। सीबीआई के मार्फत इस प्रतिष्ठा को पुन: पाने की चुनौती भी सामने है पर सीबीआई कितनी क्षमता से काम कर सकेगी? कोल आवंटन ब्लॉक, थ्री-जी, आदर्श घोटाला जैसे तमाम घोटालों की जांच के बोझ तले दबी सीबीआई पर व्यापमं का भार कहीं ज्यादा तो नहीं हो जाएगा? जिस एजेंसी के पास 6562 मामले पहले ही लंबित पड़े हों, वह व्यापमं जैसे महाघोटाले में कितना समय दे पाएगी, जिसमें 2500 आरोपी हैं, 1900 जेल में बंद हैं, 600 फरार हैं और 45 से अधिक मौतें हो चुकी हैं। पिछले 4 सालों मेें सीबीआई ने भ्रष्टाचार के 2220 मामले दर्ज किए हैं, जिनमें से 708 मामलों की जांच पेंडिंग है। सीबीआई द्वारा जांच की मामलों में सजा की दर 69 प्रतिशत है लेकिन यह सजा भी हाई प्रोफाइल लोगों को नहीं मिलती। वे बचने के रास्ते तलाशते रहते हैं और पद से चिपके रहते हैं। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी रामनरेश को नोटिस भेज दिया है, लेकिन वे खामोश हैं। वर्ष 2009 में जब व्यापमं घोटाले की पहली मौत सामने आई थी, तभी यह मामला सीबीआई को स्थनांतरित कर दिया जाता, तो शायद शिवराज को आज जो परेशानी और अपयश झेलना पड़ा है वह न झेलना पड़ता। प्रतिष्ठा पाने में वर्षों लग जाते हैं लेकिन प्रतिष्ठा धूमिल होने में एक क्षण भी नहीं लगता। 38 वर्षीय आज तक के पत्रकार अक्षय सिंह की मौत व्यापमं घोटाले में टर्निंग प्वाइंट सिद्ध हुई है। मौतें रुकी नहीं हैं। कभी कोई महिला इंस्पेक्टर घरेलू कारणों से तालाब में कूद कर जान देती है, तो उसे भी व्यापमं से जोड़ दिया जाता है। हर मृत्यु संदिग्ध बन गई है। प्रोफेसर डॉ. साकल्ले की संदिग्ध आत्महत्या से लेकर दिल्ली में प्रोफेसर डॉ. अरुण शर्मा की संदिग्ध मृत्यु तक व्यापमं भयानक होता जा रहा है।
दिसंबर 2013 में जब व्यापमं से संबंधित एक रिपोर्ट मीडिया में लीक हो गई थी, उस समय कथित रूप से व्यापमं से जुड़े 2 गवाहों द्वारा एसटीएफ को सुरेश सोनी और दिवंगत के.सी. सुदर्शन का नाम इस मामले में बताया गया था। बाद में यह खबर भी उड़ी कि शिवराज ने स्वयं मीडिया को इस बारे में सूचना लीक की। जिसकी सफाई देने उन्हें कथित रूप से नागपुर भी जाना पड़ा। लक्ष्मीकांत शर्मा के हवाले से भी यह खबर सामने आई कि उन्होंने भी कथित रूप से संघ के कुछ शीर्ष नेताओं के नाम लिए हैं। संघ का नाम बार-बार इस मामले में आने से मामला पैचीदा होता जा रहा था। उस वक्त शिवराज को सलाह दी गई थी कि सीबीआई को जांच सौंप दी जाए तो बेहतर रहेगा, लेेकिन शिवराज एसटीएफ पर ज्यादा विश्वास करते थे क्योंकि उन्होंने ही एसटीएफ को फ्री हैंड दे रखा था। क्योंकि फ्री हैंड नहीं मिलता, तो लक्ष्मीकांत शर्मा सहित तमाम दिग्गज सलाखों के पीछे नहीं होते। लेकिन आज शायद शिवराज अपने निर्णय पर पछता रहे होंगे। जिस तरह राजस्थान में सभी विधायक वसुंधरा के पक्ष में लामबंद हो गए, वैसी लामबंदी शिवराज के पक्ष मेंं नहीं दिखाई दी। उनके तो गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने ही उन्हें कटघरे में खड़ा कर डाला। कैलाश विजयवर्गीय से अमित शाह की लंबी चर्चा भी सत्ता के गलियारों में अलग नजरों से देखी जा रही है। अपनों से घिरे शिवराज अब मध्यप्रदेश में स्वाभिमान यात्रा निकाल रहे हैं। कल तक जो मीडिया शिवराज के खिलाफ बोलने से कतराता था, आज वह ज्यादा मुखर है। सीबीआई को शीघ्र ही किसी नतीजे तक पहुंचना होगा।
घोटाले का इतिहास
क्या व्यापमं घोटाला शिवराज के कार्यकाल में ही घटा और फला-फूला? यह सच नहीं है। इस घोटाले की जड़ें कांग्रेस के शासनकाल तक पहुंचती हैं। पत्रकार राणा अय्यूब ने लिखा है कि यह बड़ा मनोरंजक तथ्य है कि कांगेे्रस व्यापमं घोटाले पर इतना हल्ला मचा रही है, जबकि इसकी नींव 1996 में उसी के कार्यकाल में पड़ी। अय्यूब के मुताबिक पहली एफआईआर भी सन 2000 में हुई, जब राज्य में दिग्विजय सिंह सत्तासीन थे। वे लिखती हैं कि इस घोटाले में आईएएस, आईपीएस, दलालों के अलावा कांग्रेस और भाजपा दोनों के कई नेता शामिल हैं। लेकिन इसका कुयश शिवराज सरकार के ऊपर ही क्यों आया? क्या सत्ता में होने का दंश उन्होंने भोगा? आज उन्हीं शिवराज पर इस मामले को सीबीआई को सौंपने में देरी के आरोप लगे हैं, जिन्होंने आगे बढ़कर एसटीएफ को यह जांच सौंपी थी। 2009 में जब पारस सखलेचा ने विधानसभा में व्यापमं की अनियमितताओं को लेकर सवाल उठाया था, तो एक लापरवाह सा जवाब मिला था कि हम सूचना एकत्र कर रहे हैं। उस वक्त शिवराज सिंह चौहान के पास मेडिकल शिक्षा का विभाग भी था, जिन्होंने अनियमितताओं की जांच के लिए एक समिति बनाकर अपने कत्र्तव्य की इतिश्री कर ली। शिवराज को इस मामले की गंभीरता और विशालता का उस वक्त अनुमान नहीं था। वर्ष 2011 में विधानसभा में फिर सवाल उठा। जवाब शिवराज ने दिया- उन्होंने शांति पूर्वक कहा कि डेंटल और मेडिकल कॉलेज में 2007 से 2010 के बीच हुए एडमीशनों में अनियमितता की कोई शिकायत नहीं मिली है और न ही किसी ऐसे प्रत्याशी का पता चला है। लेकिन इसके बाद प्याज के छिलकों की तरह यह घोटाला खुलने लगा। 29 नवंबर 2011 को जब सदन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जवाब देने के लिए खड़ेे हुए, तो उन्होंंने पहली बार बताया कि व्यापमं में 114 मुन्ना भाइयों का पता चल चुका है।  2011 से लेकर 2013 तक शिवराज के पास 17 पत्र पहुंच चुके थे, जिनमें बड़े घोटाले की चेतावनी दी गई थी। लेकिन तब भी मेडिकल कॉलेजों से 6 माह की जांच के बाद केवल छात्रों को आरोपी बनाया गया। जो परीक्षा प्रक्रिया पूरी तरह सड़ चुकी थी, उसके तहत तब भी परीक्षाएं ली जा रही थीं। आरोपी मौज उड़ा रहे थे। आज 46 मौतों के बाद कुछ नए रहस्योद्घाटन के इंतजार में हर दिन समाचार पत्र खोले जाते हैं। व्यापमं पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि बच्चा-बच्चा इसके किरदारों से वाकिफ है। पाक्षिक अक्स ने एक नहीं अनेक बार इन अनियमितताओं की तरफ कभी सीधे तो कभी संकेतों में इशारा किया था, घोटालेबाजों पर सिलसिलेवार स्टोरीज प्रकाशित की। आज जिस अंजाम की तरफ यह घोटाला बढ़ रहा है उस अंजाम की कल्पना मध्यप्रदेश में किसी ने नहीं की थी। एक दिन पहले तक केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के शिवराज का खुलकर बचाव करने के बावजूद पीएम नरेंद्र मोदी के संदेश पर सीएम ने मामले की सीबीआई जांच की घोषणा की है। राजनाथ ने सीबीआई जांच की मांग स्पष्ट रूप से खारिज कर दी थी। विदेश रवाना होने से पहले ही प्रधानमंत्री ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को निर्देश दिया था कि मामला गहराने पर पार्टी सीबीआई जांच से पीछे न हटे। इसके बाद शाह ने शिवराज को खुद निर्देश देने के बजाय राज्य के प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे के जरिए अपना फैसला बता दिया था। शाह ने गृहमंत्री राजनाथ से भी कहा कि वे चौहान को सीबीआई जांच के लिए तैयार होने को कहें। माना जा रहा है कि पीएम सीबीआई जांच का ऐलान कर कांग्रेस को सवाल उठाने का मौका नहीं देना चाहते हैं।

जिम्मेदारों के बेहुदा बयान
जो आया है सो जाएगा, कोई रेल में कोई जेल में।
- बाबूलाल गौर
सबसे बड़े पत्रकार तो हम हैं, हमसे पूछो जो पूछना है।
-कैलाश विजयवर्गीय
व्यापमं घोटाला मूर्खतापूर्ण मुद्दा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐसे मुद्दों पर बयान देने की कोई जरूरत नहीं है।
-सदानंद गौड़ा

हैकरों ने पकड़ा व्यापमं?
व्यापमं मामला इंदौर के विपिन महेश्वरी ने कथित हैकरों के माध्यम से पकड़ा था। उस वक्त डीजीपी नंदन दुबे ने सीआईडी को जाँच सौंपी और फिर एसटीएफ को मामला पहुँचा। आज राहुल गाँधी सवाल उठा रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी ने कहा था ना खाऊँँगा ना खाने दूंगा। फिर शिवराज को क्यों नहीं हटा रहे हैं। दरअसल पहले जब मामला पकड़ाया तो किसी को खाने खिलाने के इंतजाम का पता ही नहीं था। आज सीबीआई के हाथ में बहुत से सबूत हैं जो एसटीएफ ने ही जुटाये हैं। एसटीएफ पर उंगली भले ही उठायी जा रही है लेकिन खाने खिलाने के इंतजाम से लेकर कई लोगों को पकड़कर उन्हें सलाखों के पीछे भेजने का इंतजाम एसटीएफ ने ही किया था। इसलिए व्यापमं में किसी को बचाया जा रहा था या नहीं इसका खुलासा शायद सीबीआई कर सके लेकिन यह तय है कि जिस तरह एसटीएफ काम कर रहा था कई लोगों में खौफ था और कुछ परेशान भी थे। इसीलिए पत्रकार की मौत जी का जंजाल बन गयी और मामला सीबीआई तक पहुँच गया।

कैसे बदला घटनाक्रम?
तीन दिन के भीतर पत्रकार अक्षय सिंह, डॉ. अरुण शर्मा और इंस्पेक्टर टे्रनी अनामिका की सदिग्ध मौतों ने मीडिया में बवंडर मचा दिया। राज्यपाल रामनरेश यादव के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका स्वीकार कर ली। उधर आम आदमी पार्टी और जनता की नजरों से ओझल हो चुकी कांग्रेस ने इस मुद्दे पर व्यापक आंदोलन खड़ा कर दिया।
व्यापमं नाट्यं
व्यापमं पर फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे प्रकाश झा को स्क्रिप्ट में लंबा समय लग सकता है। तब तक व्यापमं नाट्यम् का मंचन तो हो ही सकता है कुछ दृश्य हम सुझा देते हैं।
दृश्य 1- जब से व्यापमं सीबीआई को सौंपा गया है। कुछ  प्रभावशाली नेताओं की पत्नियां नियमित ब्यूटी पार्लर जाकर आईब्रो, फेशियल करवा रही हैं। ऐसे ही एक प्रभावी नेता की महत्वाकांक्षी पत्नी ने ब्यूटी  पार्लर से लौटने के बाद अपने आप को आईने में निहारते हुए बगल में खड़ी सैरंध्री से अनायास पूछ लिया-ऐ री क्या मैं राजमहिषी जैसी दिखती हूं? उधर लाल परेड ग्राउंड में विश्व हिंदी दिवस की तैयारियां करवा रहे एक विद्वान ने महिषÓ का अर्थ भैंस निकाला है।
दृश्य 2- ऊंचाई पर पर्वताश्रय में स्थित एक महल की भित्तियों से निरभ्र रात्रि में आती तीव्र आवाजें नीचे अथाह जल राशि की नीरवता भंग कर रही हैं। शुभ्र ज्योत्सना में महल की चार दीवारी के भीतर कोई राज पुरुष चीख रहा है। मुंह बंद करने के लिए इतना ही खर्च करना था, तो कमाई ही क्यों की थी?
दृश्य 3- बिहार के दो युवा पत्रकारों को- जिनका अभी-अभी विवाह हुआ है और जिनकी अवगुंठनवती नवौढ़ा अभी-अभी पितृगृह से लौटी हैं, आदेश मिला है कि जाओ व्यापमं की कवरेज करो। दोनों जाने के लिए प्रवर्त हैं किंतु उससे पहले गया जी में जाकर पिंड दान करना और बिरादरी में मृत्युभोज देने का कर्तव्य निबाहना चाहते हैं।

मृतकों की दर्दनाक दास्तान
व्यापमं घोटाले में सुप्रीम कोर्ट दखल के बाद अब सीबीआई इसकी कडिय़ों को जोडऩे में लगी है, उम्मीद की जा रही है कि इस बारे में जल्द ही दोषियों को गिरफ्तार किया जाएगा।  इंदौर से कऱीब 20 किलोमीटर दूर कैठिया के पुलिस स्टेशन में दर्ज है वो एफआईआर जो व्यापमं घोटाले का सबसे दर्दनाक पहलू सामने लाती है। दरअसल, साल 2012 में नम्रता की लाश रेलवे ट्रैक पर मिली। इसके बाद की जांच उलझी हुई है। नम्रता की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताती है कि उसकी मौत गला दबाने से हुई। उसकी डीएनए रिपोर्ट में उसके कपड़ों पर सीमन सैंपल भी मिले, लेकिन ये सैंपल उसके साथ सफऱ करने वालों के नहीं निकले। तीन महीने बाद पुलिस ने उसका फोन शारदा नाम की एक लड़की से बरामद किया। नम्रता के परिवारवालों का कहना है कि दोनों एक-दूसरे को जानते थे, लेकिन पुलिसवाले कहते हैं, वे आपस में अनजान थीं। जांच में ये बात भी समने आई कि नम्रता का दाखिला मेडिकल कॉलेज में जगदीश सागर ने करवाया था, जो अब गिरफ़्तार है। दोनों व्यापमं के घोटाले में साथ थे, लेकिन शायद दोनों के बीच किसी मुद्दे पर झगड़ा हो गया। बहरहाल मौतों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा रहा है।  जिन्होंने जान गंवाई उनके नाम हैं-
नम्रता, डा.डीके साकल्ले, शैलेष यादव, विजय पटेल, रिंकू उर्फ प्रमोद शर्मा, देवेन्द्र नागर, आशुतोष सिंह, श्यामवीर सिंह यादव, आनंद सिंह यादव, ज्ञानसिंह जाटव, अमित जाटव, अनुज उइके, पशुपतिनाथ जायसवाल, राघवेन्द्र सिंह, आनंद सिंह, विकास पांडे, दीपक जैन, अंशुल सचान, ज्ञान सिंह भिंड, विकास सिंह, अनुज पांडे, अरविंद शाक्य, कुलदीप मरावी, अनंतराम टैगोर, मनीष समीधिया, दिनेश जाटव, ज्ञान सिंह सागर, आनंद कुमार सिंह, बृजेश राजकुमार, नरेन्द्र तोमर, डॉ.राजेन्द्र आर्य, रामेन्द्र सिंह भदौरिया, तरूण मछार, आशुतोष तिवारी, ज्ञान सिंह ग्वालियर, विकास ठाकुर, आदित्य चौधरी, रविन्द्र प्रताप सिंह, प्रेमलता पांडे, बंटी सिकरवार, दीपक वर्मा, ललित कुमार गुलारिया, नरेन्द्र राजपूत, अमित सागर, अनामिका, डॉ. अरुण शर्मा और अक्षय सिंह।

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