05-Aug-2015 07:17 AM
1235065
वीरों की धरती बुंदेलखंड आज ऐसा क्षेत्र बन गया है जिसे अभिशाप की नजर से देखा जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ने यहां के निवासियों के उत्थान के लिए हजारों करोड़ रूपए का बजट जारी

किया, लेकिन वह कहां खप गया यह सरकारों को भी मालूम नहीं है। दरअसल, बंदेलखंड के निवासियों की नियति ही ऐसी है कि उनका हमेशा शोषण होता रहता है। अभी तक सूखे, शोषण और पलायन से जुझ रहे शोषित बुंदेलखंड में अब कुपोषण भी पैर पसारने लगा है।
बुंदेलखंड का नाम देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल है। उप्र और मप्र दोनों राज्यों में पडऩे वाले इस इलाके में उप्र के झांसी, बांदा, ललितपुर और उरई जैसे जिले और मप्र के टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह, सागर, बीना और दतिया जैसे जिले शामिल हैं। पथरीला इलाका, पानी की कमी और आधे-अधूरे विकास के चलते यह क्षेत्र अपने आस-पास के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता में भी काफी पीछे रह गया है। इसका एक बहुत बड़ा कारण दोनों प्रदेश के कणर्धारों द्वारा बुंदेलखंड पर पूरी तरह ध्यान नहीं देना है। पिछले सात-आठ सालों से लगातार पड़ रहे सूखे ने यहां के हालात और भी खराब कर दिए हैं। सिंचाई के साधनों के अभाव में बुंदेलखंड के किसान सालभर में एक फसल बड़ी मुश्किल से कर पाते हैं। छोटे किसानों की तो कई बार खेती की लागत ही फसल से ज्यादा हो जाती है। लगातार पड़ रहे सूखे के बाद भी राज्य सरकारों ने इन क्षेत्रों में सिंचाई के दूसरे साधन जैसे कुएं, तालाब और नहरों के निर्माण पर ध्यान नहीं दिया है।
केंद्र ने बुंदेलखंड में जल संसाधनों के विकास के लिए 3760 करोड़ का भारी-भरकम पैकेज उपलब्ध कराया है। इसके बाद भी टीकमगढ़, छतरपुर, दमोह और पन्ना जैसे जिलों में आपको तालाब के नाम पर कुछ गड्ढे ही नजर आएंगे। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में खेती इस क्षेत्र के लिए घाटे का सौदा बन गई है।
कृषि मजदूरी का संकट : सूखे ने किसानों से ज्यादा मुसीबत उन दलित मजदूरों की कर दी है जो आय के लिए पूरी तरह कृषि मजूदरी पर निर्भर थे। बुंदेलखंड के गांवों में 40 से 50 फीसद आबादी दलितों की है। हालांकि इनके पास खेती के लिए जमीन नहीं है लेकिन बड़े किसानों की जमीन बटाई पर लेकर और कृषि मजदूरी करके उनकी आजीविका बड़े आराम से चल रही थी। लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्हें काम मिलना पूरी तरह बंद हो गया है। ऐसे में काम की तलाश में यहां से लाखों लोग दिल्ली, गुडग़ांव और उप्र की ओर पलायन कर गए हैं। आज बुंदेलखंड का शायद ही कोई गांव ऐसा हो, जहां से लोग काम की तलाश में शहर नहीं गए हों। पलायन करने वालों में 90 फीसदी आबादी दलितों की है। इनमें से भी सबसे बड़ी संख्या चर्मकार समाज की है। लेकिन पलायन ने स्थिति को सुधारने की जगह और बिगाड़ा है। स्थिति यह है कि शहर जाने वाले बच्चे गांव के बच्चों की तुलना में ज्यादा कुपोषण के कुचक्र में फंस रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ गांव में मौजूद उनकी परपंरा और खान-पान में भी शहरी संस्कृति का घुन लगना शुरू हो गया है।
बिगड़ते गए हालत- टीकमगढ़ जिले की निवाड़ी तहसील के सभी गांवों के 40 से 50 फीसदी लोग शहरों में रह रहे हैं। इनमें से 90 फीसदी लोग चर्मकार जाति के हैं। पिछले कई साल से लगातार पड़ रहे सूखे ने इनसे हर साल खेतों में मिलने वाला काम छीन लिया है। भूखे परिवार का पेट भरने के लिए इनके पास शहर जाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। निवाड़ी ब्लॉक के टीला गांव के मुकेश कुमार साल में छह माह फरीदाबाद में बिताते हैं। मुकेश वहां इमारतों में गारा-मिट्टी डालने का काम करते हैं। मुकेश बताते हैं कि उनके पिता के पास केवल 3 एकड़ जमीन है, जिससे माता-पिता के अलावा उनके और छोटे भाई के परिवार की गुजर-बसर मुश्किल से ही सही, हो जाती थी। लेकिन पिछले आठ सालों से लगातार पड़ रहे सूखे ने खेती के धंधे को बर्बाद कर दिया है। बड़े किसान तो बोरिंग करवा के खेती कर लेते हैं, लेकिन मुकेश जैसे छोटे किसानों के लिए यह संभव नहीं है। मुकेश कहते हैं कि सिंचाई की सुविधा न हो पाने के कारण कई बार तो हमारे खेत खाली पड़े रह जाते हैं। कई बार ऐसा होता है कि छह माह की मेहनत के बाद खेतों में जो उपज होती है, उससे अगली बार बोने के लिए बीज का इंतजाम भर हो पाता है। ऐसे में मजदूरी के लिए शहर जाना हमारी मजबूरी है। मुकेश पत्नी और बच्चों को गांव में छोड़कर अकेले ही मजदूरी के लिए जाते हैं। वे छह माह में 20 से 25 हजार तक कमा लेते हैं, जिसमें से 10 से 12 हजार रुपए तक ही घर के लिए बचा पाते हैं, बाकी पैसा उनके वहां रहने और खान-पान पर खर्च हो जाता है।
गांव में नहीं मिलती मजदूरी - गिदखिनी गांव के देवेन्द्र अहिरवार पूरे गांव में बीएससी पास करने वाले दूसरे व्यक्ति हैं, लेकिन उनकी शिक्षा भी उन्हें कोई काम नहीं दिलवा पा रही है। देवेन्द्र के परिवार में चार लोग हैं। मां रामकुवंर बाई, छोटा भाई मानवेंद्र अहिरवार और देवेंद्र की पत्नी। इतने लोगों की आमदनी का एकमात्र सहारा है 3 बीघा जमीन। देवेंद्र कहते हैं कि जमीन में बमुश्किल 12 बोरा गेहूं होता है, जिसमें से आधा गेहूं तो घर के लिए रखना पड़ता है। बचे गेहूं से बामुश्किल पांच से छह हजार रुपए मिल पाता है। इससे सालभर का राशन तक नहीं आ पाता है। इस बार तो मौसम की मार से फसल खराब हो गई है, इसलिए सिर्फ छह बोरा गेहूं हुआ है जो घर के खाने में ही काम आएगा। देवेंद्र गांव में मजदूरी भी करते हैं, लेकिन इस मजदूरी का पैसा भी तुरंत नहीं मिलता है। यही नहीं, गांव में मजदूरी का रेट भी शहर की तुलना में बहुत कम है। यहां दो सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिलती है, जिसका पेमेंट भी गांव वाले जब पैसा आएगा तब देंगे की तर्ज पर करते हैं। गांव के कई लोग पैसा कमाने के लिए दिल्ली गए हैं। देवेन्द्र भी अब शहर जाने का मन बना रहे हैं। शहर भी नहीं मिटा पा रहे भूख- इस समस्या का सबसे दुखद पहलु यह है कि काम और बेहतर जीवन की तलाश में शहर पहुंचे इन लोगों के हाथ मायूसी ही आती है। यहां इन्हें काम तो मिल जाता है पर काम से मिलने वाली आधी से ज्यादा मजदूरी रहने-खाने के इंतजाम में खत्म हो जाती है।
-ब्रजेश साहू