21-Jul-2015 07:50 AM
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जब समाज पाखंड से लड़ता है तो कई ऐसे पड़ाव आते हैं, जब सत्ता के समक्ष अनिर्णय की स्थिति पैदा हो जाती है। कुछ ऐसा ही पेचीदा यक्ष प्रश्न केंद्र में सत्तासीन भाजपानीत सरकार के समक्ष

उपस्थित हो रहा है। जब से नरेंद्र मोदी को सत्ता मिली है, कई मौकों पर वैश्यावृत्ति को वैध करने की मांग उठाई गई है। यह मांग उठाने वाले कोई बाहरी नहीं बल्कि भाजपा की अपनी विचारधारा से ओत-प्रोत संघनिष्ठÓ मस्तिष्क हैं। चाहे वह राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमार मंगलम हों, या फिर हरियाणा राज्य महिला आयोग की उपाध्यक्ष सुमन दाहिया- जिन्होंने प्रधानमंत्री, हरियाणा के राज्यपाल और राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष को पत्र लिखकर वैश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की मांग की है। हिंदू महासभा सहित तमाम दक्षिणपंथी संगठन वैश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने के खिलाफ एक नहीं कई बार लामबंद हो चुके हैं। सरकारें भी इस नाजुक विषय में उलझने से डरती हैं। लेकिन सख्त से सख्त प्रशासन वैश्यावृत्ति और इसके साथ-साथ चल रही अवैध गतिविधियों को रोकने में नाकाम रहा है। जाहिर सी बात है इसीलिए इसे वैध बनाने की मांग उठती रही है। कानूनी मान्यता देने का सवाल कई बार उत्पन्न हुआ है। बहुत से संगठन वैश्यावृत्ति को वैध करने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। सुमन दाहिया का कहना है कि कानूनी मान्यता मिलने से समाज और प्रशासन महिलाओं को प्रताडि़त नहीं कर सकेगा, जो दुर्भाग्यवश या विवशता के चलते इस पेशे में आई हैं। इससे देह व्यापार के लिए उत्पीडि़त मजबूर महिलाओं की रक्षा होगी।
दरअसल देह व्यापार एक ऐसा पेशा है, जो विवशता और दुर्भाग्य के साथ-साथ लालच और विलासिता से भी जुड़ा हुआ है। इस पेशे में एक तरफ वे मजबूर महिलाएं हैं, जो पेट की भूख की खातिर देह बेचने को विवश हो जाती हैं और वे शौकिया महिलाएं भी हैं जिनकी विलासिता की भूख उन्हें हर अनैतिकता की सीमा पार कर जाने को विवश करती है। कुल मिलाकर यह पेशा न तो नैतिक है और न ही पवित्र किंतु इसके बाद भी अनंतकाल से जारी है। असंख्य उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं, जब गणिकाएं राजनीतिक उत्थान और पतन का कारण बनीं। कई क्रांतियों, लड़ाइयों और विद्रोहों की नींव वैश्याओं के कोठों पर रखी गई। चाणक्य जैसे विद्वानों ने गणिकाओं को समाज का अहम अंग मानते हुए वैश्यालयों को उचित राजकीय संरक्षण और समर्थन प्रदान करने की वकालत की। मगध की सत्ता को बदलने वाली भेद-नीति वैश्यालयों में ही पनपी थी। तक्षशिला की अभेध सुरक्षा को शत्रुओं ने गणिकाओं के माध्यम से ही भेद दिया था। संसार का कोई भी क्षेत्र, प्रदेश ऐसा नहीं है जहां यह जारजकर्मÓ न होता हो। सख्त से सख्त कानूनों वाले देशों से लेकर स्वीडन के उदार लोकतंत्र तक हर जगह कहीं खुलकर तो कहीं छिपकर यह पेशा चल रहा है। देह की मंंडियां सजी हुई हैं। भारत में तो इंटरनेट और मोबाइल क्रांति के बाद यह एक सुव्यवस्थित व्यवसाय बन चुका है, जो पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की नाक के नीचे फल-फूल रहा है। इसीलिए यदा-कदा इसे वैध करने की मांग उठती रही है। कुछ समय पहले कर्नाटक के लिंगायत समुदाय की धर्मगुरु माथे महादेवी ने यह कहते हुए बहस को जन्म दिया था कि बलात्कार रोकना है, तो वैश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिया जाए। महादेवी लिंगायत समुदाय की सबसे पूजनीय साध्वी हैं। हालांकि उनके इस बयान का विरोध किया गया, लेकिन वे अडिग रहीं और उन्होंने कहा कि यह सुझाव देने वाली वे अकेली नहीं हैं बल्कि समाज के अलग-अलग तबकों से यह मांग अक्सर उठती रहती है।
भाजपा और संघ की विचारधारा को देखा जाए, तो वैश्यावृत्ति जैसे पतित पेशे को कानूनी दर्जा दिया जाना, न केवल असंभव है बल्कि इसका चौतरफा विरोध होने की भी आशंका है। इसके बावजूद भी कुछ महिलाएं साहस करके इस बात को उठा रही हैं, तो उनके साहस की सराहना की जा सकती है। हालांकि यह दुखद ही है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत देश इस पेशे में लिप्त असंख्य महिलाओं को उचित पुनर्वास और सम्मानित जीवन देने में असमर्थ रहा है। यह भी एक तथ्य है कि यह एक सामाजिक बुराई है, जिसमें सरकार केवल दंड और कानूनी प्रक्रिया तय कर सकती है। इसे रोकना सरकार के बस में नहीं है। इसलिए वैधता का सवाल बार-बार उठाया जाता है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ललिता कुमार मंगलम ने जिस दलील के साथ वैश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने का सुझाव दिया था, उसका आधार व्यवहारिकता है। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी संसद में ऐसे किसी भी कानून से इनकार कर चुकी हैं। महिला आयो की अध्यक्ष ने अपना प्रस्ताव केंद्रीय मंत्रिमंडल की अधिकार प्राप्त समिति के समक्ष रखा था। प्रस्ताव भले ही खारिज कर दिया गया हो, लेकिन इससे जुड़ी सच्चाई वैसी ही है।
राष्ट्रीय महिला आयोग का दावा था कि वेश्यावृत्ति को वैधानिक कर देने से महिलाओं की तस्करी रुक जाएगी। साथ ही इसकी वैधता के बाद सुरक्षित तरीके से यौन संबंध बनाना आसान होगा। आयोग का यह भी कहना है था कि इससे यौन कर्म में लगी महिलाओं का एचआईवी सहित तमाम संक्रामक यौन रोगों से भी बचाव हो सकेगा। आयोग की अध्यक्ष कहना था कि यौन-कर्म को वैधता प्रदान करने के साथ ही ऐसे कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए, जिससे इस पेशे में लगी महिलाओं के कामकाज के घंटे और उनका पारिश्रमिक तय हो सके ताकि उनके स्वास्थ्य की भी उचित देखभाल हो सके। निश्चित ही आयोग के उद्देश्यों से असहमत नहीं हुआ जा सकता। मगर इन उद्देश्यों से भी कहीं अधिक गंभीर है महिलाओं के इस असम्मानजनक कर्म से जुड़ा यह मुद्दा, जिससे कुछ व्यावहारिक प्रति-प्रश्नों के साथ समाज और मनुष्य को देखने के नजरिए से संबंधित सवाल भी जुड़े हैं। आयोग की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इन ज्वलंत सवालों के तार्किक जवाब भी तलाशे और समाज के सामने पेश करे।
यह पूरा धंधा महिलाओं के घोर अमानवीय शोषण पर आधारित है। बदनाम बस्तियों में स्थित कोठों के मालिक-मालकिन, दलाल और संगठित गिरोहों की मिलीभगत से गरीब तबके की अशिक्षित लड़कियां तस्करी के जरिए लाई जाती हैं और फिर उन्हें इस अमानवीय पेशे में धकेल दिया जाता है, जहां उन्हें अपने बारे में कोई निर्णय लेने के लिए एक क्षण के लिए भी आजादी मयस्सर नहीं होती। इसलिए सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वेश्यावृत्ति को वैधता प्रदान कर देने के बाद देश में इस कर्म का कितना विस्तार हो जाएगा। जिस्मफरोशी की वैधता से जुड़े दूसरे देशों के अनुभव बताते हैं कि जहां-जहां भी वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता दी गई है, वहां इस काम से जुड़ी महिलाओं की हालत पहले से बेहतर नहीं है। जर्मनी में इसको कानूनी रूप देने के बाद वहां महिला देहकर्मियों की संख्या संख्या दोगुनी हो गई। इसके बावजूद बहुमंजिली इमारतों मे चलने वाला यह कर्म अब भी 90 फीसद गैरकानूनी है। नीदरलैंड में इसको वैधानिक बना देने के बाद भी वहां इस कर्म से जुड़ी महिलाओं की कार्य-स्थितियां बेहद खराब हैं। नीदरलैंड सरकार खुद अब यह मानती है कि उसने इस काम को कानूनी मान्यता देकर एक राष्ट्रीय भूल की है।
अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम 1956 के तहत यौन कर्म के व्यवसायीकरण को अपराध माना जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक महिला अपने शरीर का इस्तेमाल एकल आधार पर कर सकती है। परंतु सार्वजनिक तौर पर उसे इस कर्म को करने की मनाही है। महिला आयोग का इरादा इसी कानूनी निषेध को खत्म कर महिलाओं के यौन कर्म से जुड़े कारोबार को वैधता प्रदान कराना था। लेकिन अहम सवाल यह है कि आखिर महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा देने के बजाय उनके देह व्यापार को वैधता प्रदान करने का रास्ता क्यों चुना जाना चाहिए? आखिर क्यों इन महिलाओं को अन्य कामों की बजाय देह कर्म को ही विकल्प के रूप में चुनना पड़ रहा है? 2004 में केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग ने एक सर्वे कराया था, जिसमें देश में 28 लाख से भी ज्यादा महिलाएं देह कर्म के कारोबार मे संलिप्त पाई गई थीं। आज तो यह आंकड़ा 35 लाख को पार कर चुका होगा। चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें एक तिहाई के करीब कम उम्र की बच्चियां शामिल हैं। इसी सिलसिले में बाल संरक्षण आयोग की एक रिपोर्ट भी बताती है कि हर साल 60 हजार से भी अधिक बच्चियों को उनके घर से बड़े शहरों में लाकर देह व्यापार में झोंक दिया जाता है। इस कारोबार में पूरा का पूरा एक संगठित तंत्र शामिल है। वर्ष 2013-14 में गायब हुए 67 हजार बच्चों में से 45 फीसद बच्चों की तस्करी देह व्यापार के लिए की गई थी। स्थिति यह है कि आज देश में हर आठ मिनट में एक बच्ची का अपहरण हो जाता है।
राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा देह कर्म को कारोबार की शक्ल में वैधता प्रदान कराने के पीछे की मंशा इस पेशे से जुड़ी महिलाओं का आर्थिक शोषण रोकने, उन्हें कोठा संचालकों, दलालों और पुलिस की प्रताडऩा से बचाने तथा रोजगार की गारंटी प्रदान करने की लगती है। अहम सवाल यह है कि देश में देह कारोबार को कानूनी दर्जा दे देने से क्या ऐसे नेटवर्क टूट जाएंगे? या इससे उपरोक्त गिरोहों को खुलकर देह व्यापार चलाने का मौका नहीं मिल जाएगा? भारत में सबसे बड़ी बदनाम बस्ती या रेड लाइट एरिया माने जाने वाले कोलकाता के सोनागाछी में कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं का अनुभव बताता कि जब वहां सुरक्षित यौन संबंध के उपाय लागू किए गए, तो कंडोम अपनाने के प्रति अनिच्छुक ग्राहकों से कोठों के मालिक और दलाल ज्यादा पैसा वसूलने लगे।
यह सच है कि इस कारोबार के प्रति झुकाव के लिए देश की गरीबी और बेरोजगारी के साथ ही सरकारों की गरीब विरोधी नीतियां अधिक जिम्मेदार हैं, लेकिन क्या देह व्यापार को वैध कर देने से महिलाओं में गरीबी और बेरोजगारी की समस्या किसी भी हद तक कम हो जाएगी। हकीकत यह है कि कोई भी महिला खुशी-खुशी अपनी इच्छा से इस काम को नहीं अपनाती। बहुआयामी अनवरत शोषण और रोजगार की विकल्पहीनता ही उन्हें मजबूरन इस कर्म की ओर खींचकर ले आती हैं। देश में देह व्यापार को वैधता मिलने के बाद इससे जुड़ी समस्याओं में और इजाफा ही होगा। महिला और बाल तस्करी बढऩे से महिलाओं व बच्चियों की दुर्गति तो होगी ही, साथ ही कॉलगर्ल जैसे अभिजात्य देह कर्म का भी और ज्यादा फैलाव होगा। तथाकथित आधुनिकता की ओर बढ़ते समाज की खुली और भोगवादी जीवनशैली ने आज स्त्री-पुरुष के पुरातन वैवाहिक संबंधों का रूपांतरण कर दिया है। विवाह संस्था लगातार कमजोर पड़ रही है। देह कर्म का कारोबार भी वैवाहिक रिश्तों के बिगडऩे-टूटने का एक कारक बना हुआ है।
फिर सबसे अहम सवाल यह भी है कि क्या किसी सभ्य समाज में यौन-क्रिया के व्यापार की इजाजत होनी चाहिए? यह दलील कतई स्वीकार्य नहीं हो सकती कि इस धंधे को आज तक रोका नहीं जा सका, इसलिए इसे वैधानिक दर्जा दे देना चाहिए। इसे आज तक रोका नहीं जा सका है तो यह हमारी शासन और समाज व्यवस्था की विफलता है। दरअसल यह धंधा इसलिए चल रहा है, क्योंकि पुरुष प्रधान समाजों ने महिलाओं को इंसान न समझ कर सिर्फ और सिर्फ भोग की वस्तु और बच्चे पैदा करने की मशीन ही समझा है। चूंकि समाज में इस मानसिकता से संचालित देह के सौदागर मौजूद हैं, अत: सिरे से अस्वीकार्य इस बुराई को भी पेशा कहा जाना आम प्रचलन में है।
-ज्योत्सना अनूप यादव