दर्शन मतलब स्वयं दृश्य हो जाना
05-Aug-2015 06:38 AM 1234869

यदि आप किसी चीज को देखते हैं और उसकी छाप संपूर्णता में चाहते हैं और यदि आप खुद को कम कर लेते हैं तो आप महसूस करेंगे कि जो कुछ आप देख रहे हैं, वह धीरे-धीरे बढऩा शुरू हो जाता है और फिर वह जीवंत हो जाता है।
दर्शन शब्द का मतलब है, निहारना या देखना। जब आप कहते हैं कि मैं दर्शन कर रहा हूं तो आप ये बता रहे हैं कि आप कुछ देख रहे हैं। भारत में जब हम मंदिर में जाते हैं, तो हम वहां प्रार्थना के लिए नहीं जाते हैं। बड़ी संख्या में लोग मंदिर में प्रतिमा देखने के लिए आते हैं। मतलब दर्शन करने के लिए आते हैं। कोई प्रार्थना नहीं, कोई पूजा नहीं, कुछ भी नहीं बस सिर्फ दर्शन, प्रतिमा के दर्शन। ये जीवन की प्रक्रिया को बहुत गहरे से समझने के बाद आता है। तो इसका मतलब क्या है? मैं देखना चाहता हूं हो सकता है इसे सुनकर ऐसा लगे जैसे खरीदी कर रहे हैं? लेकिन ऐसा नहीं है, ज्यादातर लोग यही नहीं समझते हैं यदि मैं कहता हूं कि मैं देख रहा हूं या मैं निहार रहा हूं कि तुम कौन हो तो ये दूसरे के होने का वह अनुभव है, वह छवि है जो मेरे भीतर घटित होती है। यदि आप अपने आप में भरे हुए हैं तो कुछ भी भीतर नहीं जा पाएगा। कोई भी छवि आपकी आंखों से बाहर चली जाएगी। लेकिन यदि आप खुद में ज्यादा नहीं है तो फिर छाप की संभावना बनती है, यदि आप अपने में ज्यादा नहीं हो तो ये आपमें विकसित होता है। यदि आप कुछ समझना चाहते हैं, आपको वह होना पड़ता है, इसके सिवा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है। यदि आप प्यार को समझना चाहते हैं या यदि आप सच को समझना चाहते हैं तो आपको प्यार होना पड़ेगा... आपको सच होना पड़ेगा। बस यही एक रास्ता है। ये तभी होगा, जब आप वो हो पाएंगे, तभी आप उसका अनुभव भी कर पाएंगें, नहीं तो आपके पास सिर्फ उसकी परिभाषा ही होगी। ये वो चीज नहीं है जो आप कर सकते हैं, ये वो चीज है जो आपको बना सकती है। ये कोई युक्ति नहीं है कि आप किसी भी तरह से कुछ पा लें, नहीं आपको वह होना ही होगा। यदि आप कुछ निहारते हैं तो आप उसका हिस्सा हो जाते हैं।
जब उस कुछ को आप अपना आप होने के लिए दे देते हैं तभी यह सवाल उठता है कि आप अपने आप को शून्य में कब बदल पाएंगें। इसलिए जब आप जानना चाहते हैं, तो आपको वो होना पड़ेगा। जब आप वह हो जाते हैं, तब जो आप हैं वह चला जाता है, तब ही आप उससे ज्यादा हो पाते हैं, जो आप कभी थे। ये जुड़ता नहीं है। ये पूरा-का-पूरा बदलाव है। इसे स्वीकारना ही होगा, नहीं तो आप इसे छू भी नहीं पाएंगे। आप यहां बैठे हैं और संवाद का आनंद ले रहे हैं, या फिर उपस्थिति का आनंद ले रहे हैं, दोनों ही आनंद है, अलग-अलग तरह के आनंद। किसी चीज को देखना आनंद हो सकता है, किसी से बात करना या किसी को छूना या किसी के साथ अंतरंग होना...यहां तक कि जानने से खुद का मनोरंजन करना भी आनंद है - लेकिन जाने बिना, हुए नहीं हो सकता है। तो यदि आप दर्शन करते हैं, आपको अपने भीतर बहुत कुछ जज्ब करना होता है। यदि आप इतने ध्यानस्थ हैं कि आप वहां है ही नहीं, आप एक खाली घर से हैं-यदि आप खाली घर की तरह है तो फिर आपका दर्शन करना सार्थक है। यदि आप खाली घर की तरह नहीं है, आप एक भरे हुए घर की तरह है, आप भरे हुए हैं अपने आप से, तो ये अच्छा होगा कि आप कम से कम प्रेम और करूणा से भरे हुए दर्शन करें क्योंकि ऐसा होगा तभी आप जो देखेंगे उसकी छवि आपके भीतर गहरी होगी। ये करूणा है, ये करूणा आपके भीतर इसलिए नहीं है कि आप किसी को प्यार करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि इसलिए है कि आप स्वयं प्रेम हो गए हैं। भारत में दर्शन का प्रादुर्भाव वैदिक काल से ही है ! वैदिल काल में वेदों तथा उपनिषदों की रचना हु़ई! यह माना जाता है कि वेद किसी मानव द्वार लिखित ग्रंथ नहीं है ये वो ज्ञान है जो स्व्यं भगवान ने चार ऋषियों को सुनाया था ! वेद ईश्वर की वाणी है ! वेद का अर्थ ज्ञान होता है ! ऋग्वेद में देवताओं की स्तुति से संबंधित मंत्रों का संकलन है , यजुर्वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन है , सामवेद संगीत से संबंधित है तथा अथर्ववेद जादू-टोना , तन्त्र-मन्त्र से संबंधित है ! वैदिक काल के बाद के काल को हम महाकाव्य काल भी कह सकते है जिस में रामायण तथा महाभारत जैसे महाकव्य लिखे गये थे ! जैन तथा बौद्ध धर्मो का विकास भी इसी काल में हुआ था!  उसके बाद के काल में भारतीय दर्शन के षड्-दर्शन का विकास हुआ! इस काल को सूत्र काल कहा जाता है! भारतीय दर्शन को दो भागो में बाँटा जा सकता है - आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन ! यहाँ आस्तिक शब्द का अर्थ ईश्वर में विश्वास करने से नहि है और ना ही नास्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास न करने से है ! आस्तिक का अर्थ है जो वेदो में विश्वास रखता है या उनकी प्रामाणिकता को स्वीकार करता है तथा नास्तिक का अर्थ है जो वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नही करता है !  चार्वाक दर्शन, जैन दर्शन तथा बौद्ध दर्शन को नास्तिक दर्शन माना जाता है जबकि षड्-दर्शन यानि न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा मीमांसा-वेदांत को आस्तिक माना जाता है !
यदि आस्तिक और नास्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास रखने और ईश्वर में विश्वास ना रखने से ले तो चार्वाक , मीमांसा तथा सांख्य नास्तिक एवं बाकी आस्तिक में आयेंगे ! मीमांसा तथा सांख्य अनिश्वरवादी है फिर भी ये वेदो कि प्रामाणिकता को ठुकराते नही है ! यदि आस्तिक और नास्तिक का अर्थ परलोक में विश्वास रखने या ना रखने से लिया जाए तो चार्वाक को छोड़ के बाकी सब आस्तिक माने जाते है , केवल चार्वाक ही ऐसा दर्शन है जो परलोक में विश्वास नही रखता!भारतीय दर्शन में केवल चार्वाक दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो हर तरह से नास्तिक है !
-ज्योत्सना अनूप यादव

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