सत्य का आनंद - सच्चिदानंद
16-Aug-2015 07:58 AM 1235247

शास्त्रों में जगत को मिथ्या बताया गया है और आत्मा सत्य मानी गई है। तात्पर्य यह है कि आत्मा में ही सत है। इसलिए अपने आत्म स्वरूप में रहकर ही सत की तलाश की जा सकती है। प्रश्न यह है कि आत्म स्वरूप में कैसे पहुँचा जाये। सबसे कठिन राह यही है। यह राह उसी को मिल सकी है जिसका चित्त सत से भरपूर हो। सरल रूप से समझा जाये तो सच्चे चित्त में ही सच्चा आनंद प्राप्त हो सकता है। जो चित्त मलिन है, पूर्वाग्रह से ग्रसित है, लालसाओं से भरपूर है, वासना और मोह के दलदल में फसा हुआ है वह सचिदानंद नहीं हो सकता। उस परम आनंद को प्राप्त करने के लिए तो चित्त को इन सारे कषायों से मुक्त होना पड़ेगा। जिस तरह धोबी मल मल कर वस्त्र का मेल निकाल देता है उसी तरह ज्ञानी चित्त को मथकर उसे इतना निर्मल बना लेता है कि आनंद की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आती। किंतु निर्मल चित्त केवल ज्ञानी को ही सुलभ है यह कहना उचित नहीं है। सामान्यजन भी निर्मल चित्त पा सकते हैं। वे अपने मन से सांसारिकता को जितना दूर करने की कोशिश करेंगे चित्त उतना ही निर्मल होता जायेगा। शरीर की दैहिक, दैविक और भौतिक आवश्यकताएं हैं। सांसारिकता में पारिवार-समाज देश के प्रति कत्र्तव्यों का निर्वहन करना पड़ता है। इसलिए पूरी तरह र्निलिप्त होना संभव नहीं है। कहीं न कहीं कुछ न कुछ लिप्तता तो बनी ही है। लेकिन यह लिप्तता जिस सीमा तक अनिवार्य है उससे अधिक लिप्त होना ही अपने आनंद को नष्ट करना है। जितना जरूरी है उतना लिप्त रहा जाय और यथा संभव निर्लिप्त रहने का प्रयास किया जाये तभी सच्चे आनंद की प्राप्त हो सकती है। भगवान का सबसे सरल और सार्थक नाम सच्चिदानंद ही है।

यह तीन शब्दों सÓ, चिÓ यानी चेतना और आनंदÓ के योग से बना है। इसमें सत् का अर्थ है- टिकाऊ यानी कभी न बदलने वाला, न समाप्त होने वाला। इस कसौटी पर केवल परब्रह्म ही खरे उतरते हैं। उसका नियम, अनुशासन, विधान और प्रयास सुस्थिर है। सृष्टि के मूल में वही है। जितने भी बदलाव हम जीवन और सृष्टि में देखते हैं, उनका सूत्र- संचालक भी वही है। उसी के गर्भ में समूचा ब्रह्मांड पलता है। सृष्टि तो महाप्रलय की स्थिति में बदल जाती है और फिर लंबे समय बाद नए रूप में प्रकट होती है, लेकिन नियंता यानी परब्रह्म की सत्ता में कोई अंतर नहीं आता। इसीलिए परब्रह्म को सत् कहा गया है। चित् या चेतना का असली अर्थ क्या है? चित् का अर्थ है- चेतना या विचार कर सकने की क्षमता। जानकारी, मान्यता, भावना वगैरह इसी के दूसरे चेहरे हैं। मानव के अंत:करण में चित् को मन, बुद्धि आदि के रूप में देखा जाता है। साइकोलॉजिस्ट इसका वर्गीकरण चेतन, अचेतन और सुपरकांशस के रूप में करते हैं। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं में भी चेतना अपने मूल स्वरूप में एक जैसी ही बनी रहती है। यहां तक कि प्राणी के मरने के बाद भी उसका अंत नहीं होता। बुद्धिमान और मूर्ख सभी में विभिन्न स्तरों के अनुरूप वह विद्यमान रहती है। जड़ पदार्थ और प्राणियों के बीच असली अंतर एक ही है- चेतना का होना या न होना। जड़ पदार्थ के परमाणु भी गतिशील रहते हैं, उनमें भी उत्पादन, उनके बढऩे और उनके बदलने का प्रोसेस चलता रहता है, लेकिन उन्हें इसका ज्ञान नहीं होता। दरअसल, वे ग्रह- नक्षत्रों की तरह एक कक्षा में घूमते तो रहते हैं, पर अपनी इस चाल को कंट्रोल कर सकने की स्थिति में नहीं होते, जबकि प्राणी अपने मन-मुताबिक अपने कामकाज को तय कर सकते हैं। इस ब्रह्मांड में अनंत चेतना का भंडार भरा पड़ा है। उसी के द्वारा पदार्थों को व्यवस्था और प्राणियों को चेतना प्राप्त होती है। इनमें से परम चेतना को ही परब्रह्म कहते हैं। यह परम चेतना ही अपनी योजना के अनुसार सभी को दौडऩे और सोचने-विचारने की ताकत देती है। इसलिए उसे च्चित्ज् यानी चेतन कहा जाता है। आनंद की क्या परिभाषा है? इस दुनिया का सबसे बड़ा आकर्षण आनंदज् ही है। किसी व्यक्ति को जिस वस्तु में आनंद का अनुभव होता है, वह उसी की ओर भागता है। शरीर की इंद्रियां अपने-अपने हिसाब से मनुष्य को सोचने और कुछ काम करने की प्रेरणा देती हैं। जो भौतिक सुविधाएं हैं, वे शरीर को सुख प्रदान करती हैं। मानसिक लिप्साएं हमें अपना अहम साधने के लिए उकसाती हैं। हमारा अंतर्मन, जो आत्मा की उपस्थिति के कारण काफी शुद्ध रहता है, उसे स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति, समाधि जैसे आनंदों की अपेक्षा रहती है। असल में च्आनंदज् प्रकारांतर से प्रेम का दूसरा नाम है। जिस भी वस्तु, व्यक्ति या प्राकृतिक चीज से प्रेम हो जाता है, वही प्रिय लगने लगती है। प्रेम कम होते ही व्यक्ति या वस्तु विशेष से खीझ होने लगती है, जिससे रूपवान और गुणवान होने पर भी वस्तु या व्यक्ति बुरे लगने लगते हैं। उनसे दूर हटने या उन्हें दूर हटा देने की इच्छा होती है। आनंद में प्रेम की क्या जगह है? इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं - अंधेरे में जितने स्थान पर टार्च की रोशनी पड़ती है, उतना हिस्सा ही प्रकाशवान होता है। वहां का दृश्य स्पष्ट होने लगता है। प्रेम को ऐसी ही टार्च की रोशनी कहना चाहिए, जिससे जहां भी देखा जाएगा, वही सुंदर, प्रिय एवं सुखद लगने लगेगा। वैसे इस संसार में कोई भी पदार्थ या प्राणी अपने मूल रूप में प्रिय या अप्रिय है नहीं। हमारा दृष्टिकोण, मूल्यांकन और रुझान ही किसी वस्तु या व्यक्ति को आनंददायक और प्रिय या फिर कुरूप और अप्रिय बनाता है। प्रेम को परमेश्वर भी कहा गया है। प्रिय ही सुख है- इसका मतलब यह हुआ कि ईश्वर ही आनंद है। उसी के आरोपण से हम सुख का अनुभव करते और प्रसन्न होते हैं। सच्चिदानंद का दर्शन कैसे हो सकता है? आत्मा परमात्मा का ही एक सूक्ष्म अंश माना गया है। तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है- ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी। यानी यह आत्मा उसी सच्चिदानंद को निरंतर खोजती रहती है, परंतु माया के अवरोध की वजह से उसे प्राप्त नहीं कर पाती है। जब माया का आवरण हट जाता है, तो सच्चिदानंद के स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं।
द्यराजेश बोरकर

-अक्स ब्यूरो

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