ध्यानी और ज्ञानी ही सफल है
21-Jul-2015 07:43 AM 1234883

वैष्णव ने गंगा तट पर डेरा जमाया, पंडित को बुलाया, पंडित ने यजमान को पूजन सामग्री लाने को कहा, पूजा कराई-यज्ञ कराया सामग्री गंगा में विसर्जित कर दी। मन को संतोष मिला कि पवित्रतम गंगा के तट पर भगवान की पूजा की। मन में कहीं गौरव भाव भी उत्पन्न हुआ- अहो! मैंने तो गंगा के तीर पर भगवान की कथा कराई, प्रसाद वितरण किया और बची हुई पूजन सामग्री को सद्गति देते हुए गंगा में विसर्जित कर दिया। प्रतिदिन-प्रतिपल असंख्य भक्त भारत में नदियों के किनारे, पवित्र स्थलों पर मंदिरों-शिवालयों में या फिर घर पर इसी तरह पूजा करते हैं। पूजन की यह पद्धति उनकी अपनी आस्था और विश्वास के कारण विकसित हुई है। इसमें कई बार आडंबर और पाखंड भी हो जाता है। कई बार समय, संसाधन तो बर्बाद होते ही हैं, नदियों और पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचती है।
हमारे मनीषी और ऋषि-मुनि इस तथ्य से भलि-भांति परिचित थे इसीलिए उन्होंने ईश्वर का पूजन करने और स्मरण करने की ईको फें्रडली विधि तलाशी थी- ध्यान! कबीर ने कहा है मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास।
ईश्वर की यही विशेषता है। हम उसे बाहर तलाशते हैं और वह हमारे अंदर ही छिपा रहता है। जो हमारे भीतर छिपा हो वह जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत भटकने, तीर्थ स्थानों और पवित्र नदियों की खाक छानने, आडंबरयुक्त पूजा-अर्चना करने, हवन और यज्ञों में घी-दूध-अनाज आदि का दहन करने या फिर लाउड स्पीकर लगाकर लगभग कान फाड़ते हुए तीव्र स्वर मेंं गाने से कहां मिल सकता है। इन सबसे तो हमारी शक्ति और सामथ्र्य का प्रदर्शन ही होता है। जो जितना सामथ्र्यशाली है वह उतना ज्यादा आडंबर करेगा। किसी की सामथ्र्य 25 रुपए का लड्डू खरीदने की है, तो कोई 25 लाख का लड्डू खरीद सकता है। कोई करोड़ोंं की मूर्ति खरीद सकता है और कोई टनों से घी का दहन करने की सामथ्र्य रखता है। पूजा का यह बड़ा अजीब और दिखावे से भरपूर विधान है। हम किसी कुपोषित बच्चे को घी-दूध नहीं दे सकते किंतु दूध का अभिषेक करने और यज्ञ में घी का दहन करने में हमें कोई कष्ट नहीं होता। हम अपने संसाधनों की इस प्रमादचर्या के लिए तर्क भी तलाश लाते हैं। हर अपव्यय की फूहड़ और आधारहीन किंतु वैज्ञानिक व्याख्या करने का भ्रम फैलाते हैं। लेकिन परमात्मा इन सबसे प्रसन्न होता है? क्या परमात्मा उस जघन्य अपराध को सहन कर सकता है कि उसकी एक संतान तो कुपोषण और भूख से बिलबिलाते हुए दम तोड़ दे और वहीं उसकी एक अन्य संतान पत्थर की मूर्तियों का दुग्धाभिषेक करे या फिर यज्ञ में घी और अनाज क दहन करे। बुद्धि, विवेक, ज्ञान और संवेदनाएं जिसमें स्वाहा हों, वह पूजन पद्धति परमात्मा को न स्वीकार्य थी न स्वीकार्य है।
इसीलिए उस परम तत्व को, उस परम शक्ति को, उस निराकार को, उस विराट को, उस नियंता को अपने अंदर ही तलाशा जा सकता है। रूड्डठ्ठ द्मठ्ठश2 ह्लद्ध4ह्यद्गद्यद्घ अपने आप को पहचानो। उसकी तलाश अपने भीतर करो। ध्यान की गहराईयों में इतने गहरे उतरो कि उससे साक्षात्कार हो सके। जब उसको अपने अंदर महसूसोगे, स्वयं ही आडंबर से दूर होते जाओगे। जिसने उस सर्वशक्तिमान को अपने भीतर महसूस लिया, तलाश लिया, वह तर गया। वह मंदिर जाए न जाए पूजा करे न करे, उसे ईश्वर रूपी अमृत स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसीलिए ध्यान को सर्वोत्तम पूजन विधि माना गया है। चित्त को एकाग्र करके अपने मस्तिष्क में विचारों के प्रवाह को रोकना। जहां चित्त है वहां तमाम तरह की चिंताएं हैं, अंतरद्वंद्व हैं, अंतरव्यक्ति संप्रेषण नहीं तो अंतराव्यक्ति वार्तालाप है। हम अपने आप से जूझते हैं, अपने ही भीतर छिड़े तुमुल संग्राम में विजयश्री प्राप्त करने के लिए आकांक्षाओं की अक्षौहिणी सेना लेकर लड़ते रहते हैं। जब हमारे भीतर इतना कोलाहल हो, तो चित्त कहां एकाग्र हो पाता है। ध्यान में शरीर और मन दोनों को प्रथक करना होता है। जब यह प्रथकता प्राप्त हो जाए, तो शरीर कब वाल्मीकि बन जाएगा, कहना असंभव है। लेकिन उस स्थिति तक नहीं तो उस स्थिति के आस-पास कहीं दूर ही पहुंचने की चेष्टा तो की जाए। उसमें भी असीम आनंद है, उसमें भी परमात्मा को समझने का संतोष मिल सकता है। जनक जी भोजन कर रहे हैं, साथ में एक दिग्विजयी राजा भी बैठा हुआ हैैै। जनक जी का ध्यान भोजन पर है। वे एक-एक कौर पूरे स्वाद के साथ लेते हैं और आनंद उठाते हुए पूरे रसास्वादन के साथ उसे उदरस्थ करते हैं। किंतु वह राजा चिंतित है। चिंता इस बात की है कि ऊपर जो तलवार लटक रही है, उसे एक मूषक कुतर रहा है। क्या जानें कब वह तलवार गिरेगी और देह को घायल कर देगी। एक तलवार ने भोजन का पूरा स्वाद छीन लिया। जनक तो विदेह थे। उन्हें देह की सुध कहां थी। उनके ध्यान में तो सदैव परमात्मा ही था। इसलिए वे उस क्षण का आनंद उठा रहे थे। ध्यानी की यही अवस्था होती है। वह ध्यान में परमात्मा का स्मरण करता है और आत्मा से एकाकार होने का आनंद भी उठाता है। इसलिए ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ पूजन पद्धति है। न संसाधनों की आवश्यकता और न ही कहीं आने-जाने का लालच। जब समय मिला, एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। पहले-पहल किसी एकांत में, किसी निर्जन स्थान पर ध्यान का अभ्यास किया। जब ध्यान में पारंगत हो तो फिर भयानक कोलाहल के बीच भी, अपार कष्ट में, बाधाओं में, मौसम और प्रकृति की विपरीत परिस्थितियों में, हर जगह, हर क्षण ध्यान लगाने का अभ्यास हो सकता है। यही परमात्मा से मिलने का श्रेष्ठ मार्ग भी है।

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