मातृशक्ति के हाथ में प्रशासनिक शक्ति
21-Jul-2015 09:21 AM 1234793

अनीता सिंघल व राजेंद्र सिंघल की इकलौती संतान इरा सिंघल शारीरिक रूप से नि:शक्त है। लेकिन नि:शक्त शब्द उसके लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि नि:शक्तता को ही उसने सशक्तता में बदल दिया। कम्प्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग करने वाली इरा ने एफएमएस से एमबीए किया और भूगोल विषय का चयन करते हुए बाजी मार ली। एक नहीं चार-चार बार यूपीएससी परीक्षा पास की। जुनून कुछ इस कदर था कि आईएएस ही बनना है, उससे कम कुछ और मंजूर नहीं था। अब दुनिया इरा के कदमों में है। उसकी हमेशा से कुछ अलग करने की इच्छा रही। 1995 में दिल्ली आने से पूर्व मेरठ में सोफिया गल्र्स स्कूल में पहली से लेकर छठवीं तक की पढ़ाई। दिल्ली के लोरेटो कान्वेंट स्कूल में दसवीं तक बाद में आर्मी पब्लिक स्कूल धौला कुआं से बारहवीं की पढ़ाई। आगे की पढ़ाई डीयू में और उसके बाद कैडबरी इंडिया में नौकरी। यह तो केवल पढ़ाव थे, मंजिल तो कुछ और थी। यूपीएससी की परीक्षा में 2010 में इरा को 815वीं रैंक मिली। उस समय वे भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी बनीं, लेकिन मेडिकल तौर पर अयोग्य घोषित कर दी गईं क्योंकि उनकी लंबाई केवल साढ़े चार फुट थी। हौसला आसमान के बराबर था इसलिए सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया जहां से राहत मिली, यह लड़ाई 2 साल चली। वर्तमान में आईआरएस हैदराबाद में प्रशिक्षण पा रही इरा आईएएस बनना चाहती थीं, इसके लिए ऊंची रैंक जरूरी थी इसलिए उसने वर्ष 2012-13 में भी सफलता प्राप्त की पर ऊंची रैंक नहीं मिली। इस बार सर्वोच्च आईं। इरादे मजबूत थे। सवाल यह है कि शारीरिक बनावट, कद या अन्य शारीरिक कमियां-विशेषताएं प्रशासनिक सेवाओं में बाधक क्यों होना चाहिए? विश्व बदल चुका है। आज दिमाग की ज्यादा कद्र है। शरीर से ज्यादा दिमाग का महत्व है। हॉकिंस जैसे वैज्ञानिक 90 प्रतिशत विकलांग होने के बावजूद इस मानवता को राह दिखा रहे हैं। ऐसे में इरा जैसे विलक्षण दिमागोंं को उनकी शारीरिक कमी के कारण उनके हक से वंचित किया जाना, अन्याय ही है। इरा ने सिद्ध कर दिया है कि वह किसी से कम नहीं है। इसलिए इरा को उसकी मन-पसंद नियुक्ति मिलनी ही चाहिए। स्कोलियोसिस बीमारी से पीडि़त इरा मानसिक रूप से सशक्त है। इस बीमारी में रीढ़ की हड्डी झुक जाती है और कई बार सिकुड़ जाती है। इसका लगातार इलाज जरूरी है। लेकिन इरा की बीमारी उसके काम में बाधक नहीं बनेगी। बीमारी बाधक होती, तो इरा यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षा उत्तीर्ण ही न कर पाती।
पहले ही प्रयास में दूसरा स्थान हासिल करने वाली रेणु राज की कहानी थोड़ी अलग है। रेणु के माता-पिता उसे डॉक्टर बनाने के ख्वाब देख रहे थे लेकिन वह सिविल सर्विसेज में भाग्य आजमाना चाहती थीं। केरल के कोवलम जिले के एक चिकित्सालय में डॉक्टर का काम करने वाली रेणु को विश्वास नहीं था कि वह पहले प्रयास में सफल हो जाएगी। रेणु की खासियत यह है कि उन्होंने विवाह के बाद इस परीक्षा को पास किया। उनके पति भी डॉक्टरी पेशे से जुड़े हैं। कोवलम शहर की ही इंजीनियर हरिथा वी. कुमार ने वर्ष 2013 में यूपीएससी टॉप की थी। इसलिए प्रेरणा भी थी और अवसर भी। कुछ इसी तरह की कहानी निधि गुप्ता की है जो वर्तमान में सहायक सीमा शुल्क एवं केन्द्रीय आबकारी आयुक्त के तौर पर काम कर रही हैं। निधि टॉप टेन में आना चाहती थी और वे सफल रहीं। अब उन्हें उनका मनपसंद विभाग और पोस्टिंग मिल सकेगी। दिल्ली की ही वंदना राव चाहती तो ओबीसी केटेगिरी में आगे बढ़ सकती थी, लेकिन उनके विलक्षण दिमाग के सामने आरक्षण का कोई महत्व नहीं है।
देशभर में चौथी रैंकिंग हासिल करने वाली वंदना ने 10वीं तक की पढ़ाई नजफगढ़ के कृष्णा मॉडल स्कूल से की। उसके बाद द्वारका सेक्टर-19 में स्थित शांति ज्ञान निकेतन से उन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई की। हरियाणा की कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन करने और कंप्यूटर साइंस इंजीनियरिंग में यूआईईटी की डिग्री लेने वाली वंदना के पिता हरि राम यादव दिल्ली पुलिस में एएसआई हैं और उनकी मां रामेश्वरी यादव गृहिणी हैं। वंदना के 2 बड़े भाई हैं। सबसे बड़े भाई हरीश यादव टीचर हैं, जबकि दूसरे भाई प्रतीक यादव कंप्यूटर इंजीनियर हैं। वंदना अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने पिता और भाइयों द्वारा लगातार किए गए सपोर्ट और उनकी प्रेरणा को देती हैं, जबकि अपनी मां को वह अपनी सफलता के पीछे का सबसे मजबूत पिलर मानती हैं, जो लगातार उसे सपोर्ट करती रहीं। यूपीएससी की परीक्षा में वंदना का यह दूसरा प्रयास था और इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की थी। वंदना बताती हैं कि उन्होंने खुद से पढ़ाई की और तैयारी के लिए किसी कोचिंग सेंटर का सहारा नहीं लिया। वंदना का मानना है कि मिडिल क्लास बैकग्राउंड वाले हर एक परीक्षार्थी के लिए यह एक उदाहरण है कि अगर खुद पर भरोसा हो और कड़ी मेहनत की जाए, तो यूपीएससी की परीक्षा में सफलता हासिल करने के लिए किसी कोचिंग की जरूरत नहीं है। वंदना के मुताबिक कड़ी मेहनत और लगन ही उनकी सफलता की कुंजी है और उनका मंत्र यही है कि असफलता के बाद भी किसी को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए और अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए लगातार प्रयास करते रहना चाहिए। यूपीएससी में 1236 उम्मीदवार सफल हुए। इनमें 590 सामान्य श्रेणी, 354 ओबीसी, 194 एससी, 98 एसटी वर्ग के प्रत्याशी है।
कट ऑफ से सभी कटे
यदि किसी के 60 प्रतिशत नंबर आए हैं तो उसे भारत के किसी भी प्रतिष्ठित या साधारण कॉलेज में दाखिला लेने के विषय में सपना नहीं देखना चाहिए। जिस तरह 2009 से देश के सभी प्रमुख कॉलेजों के कट ऑफ माक्र्स बढ़ते जा रहे हैं। उसे देखकर तो यही लग रहा है कि औसत बुद्धि वाले छात्रों का भविष्य खतरे में है। इन छात्रों ने अच्छे कॉलेजेस में प्रवेश की उम्मीद छोड़ दी है। दिल्ली में तो 97 प्रतिशत नंबर लाने वाला छात्र शीर्ष तीन कॉलेजों में दाखिले के लिए आवेदन ही नहीं देता है। उन्हें पता है कि आवेदन देने और पैसा-समय बर्बाद करने में कोई सार नहीं है। क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय केे तमाम कॉलेजेस में कट ऑफ माक्र्स 100 प्रतिशत के करीब जा पहुंचे हैं। बीकॉम आनर्स की चौथी कट ऑफ लिस्ट में श्री वेंकटश्वर कॉलेज में 97.25 प्रतिशत पर भी एडमीशन मुश्किल है। बाकी प्रतिष्ठित कॉलेज में क्या हाल है समझा जा सकता है। जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में 94.25 प्रतिशत से नीचे एडमीशन पाना संभव नहीं है। इस केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 83 कॉलेजेस संबद्ध है जिनमें एक लाख 50 हजार छात्रों को रेग्यूलर कोर्ससेज और दो लाख 50 हजार छात्रों को अन्य संकायों में प्रवेश मिलता है। सेंट स्टीफन्स कॉलेज में तो 100 प्रतिशत लाने पर ही बहुत से संकायों में एडमीशन मिल सकता है। लेडी श्रीराम जैसे कॉलेजेस की भी यही स्थिति है। चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, हैदराबाद जैसे बड़े शहरों के ख्यातिनाम कॉलेज में 95 प्रतिशत माक्र्स से कम आने पर एडमीशन के विषय में सोचना हास्यास्पद लगता है। लेकिन देश के अन्य शहरों में भी यही हालात है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के अधिकांश कॉलेजेस में 80 प्रतिशत से ऊपर कट ऑफ रहा। बाकी कुछ ऐसे कॉलेज जो 800-1000 वर्गफीट की जगह में दुकान नुमा खुले हुए हैं। उनमें भी 60 प्रतिशत से कम पर एडमीशन मिलना कठिन हो रहा है। देश के सभी कॉलेजों का विभिन्न संकायों का औसत इस वर्ष 69 प्रतिशत तक गया।
इसका अर्थ यह है कि एक तरफ तो इंजीनियरिंग जैसे पाठ्यक्रमों में सीटें खाली जा रही है तो दूसरी तरफ अच्छे कॉलेजों में परीक्षार्थियों को प्रवेश के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। ये विडंबना नहीं तो क्या है। लेकिन शिक्षा की दुर्दशा का यही एकमात्र पहलू नहीं है। देशभर के 39 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 4 हजार से अधिक पद रिक्त हैं। जिन्हें भरने के लिए अब 3 हजार शिक्षकों को अगले छह माह के भीतर किराए पर लिया जाएगा। किराए पर लिया जाएगा यह वाक्य थोड़ा चुभता जरूर है। लेकिन यह कड़वी सच्चाई है। भारत में तमाम विश्वविद्यालय शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। इस तथ्य से यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन भी अवगत है। चिंताजनक बात तो यह है कि जो विश्वविद्यालय जितना प्रतिष्ठित है उस विश्वविद्यालय में शिक्षकों का टोटा सबसे ज्यादा है। मिसाल के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकांश कॉलेजेस में कट ऑफ माक्र्स 97 प्रतिशत से ऊपर गया है। लेकिन यहां 900 शिक्षकों की कमी है। हाल ही में विश्वविद्यालय ने कुछ नियुक्तियां की थी पर वे भी पर्याप्त नहीं हैं। यही हाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का है जहां 280 शिक्षक कम है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में तो 700 शिक्षकों की कमी पडऩे से बहुत से पाठ्यक्रमों पर संकट मंडरा रहा है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय  में भी 480 शिक्षकों की कमी है। जामिया मीडिया इस्लामिया, हैदराबाद, इलाहाबाद, असम, तेजपुर, इंग्लिश एंड फॉरेन लेंग्वेज हैदराबाद, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय हैदराबाद, मणिपुर विश्वविद्यालय, नार्थ ईस्ट हिल विश्वविद्यालय, मिजोरम विश्वविद्यालय, बाबा साहब अम्बेडकर विश्वविद्यालय, विश्व भारत विश्वविद्यालय, नागालैंड विश्वविद्यालय, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ विहार, महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय बिहार, नालंदा विश्वविद्यालय, गुरूघासीदास विश्वविद्यालय, इग्नो केन्द्रीय विश्वविद्यालय गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू, कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, केरल, डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइवल विश्वविद्यालय जैसे तमाम विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी है। उधर छात्रों को एडमीशन नहीं मिल रहा और दूसरी तरफ मेधावी छात्रों की सूची लगातार लंबी होती जा रही है। देश की तरुणाई को सुयोग्य शिक्षकों द्वारा शिक्षित करने की आवश्यकता है। मानव विकास मंत्रालय पाठ्यक्रमों को तो भारतीयता के अनुरूप बनाने के मिशन में जुट गया है। लेकिन योग्य शिक्षकों का अभाव और छात्रों के लिए उचित पाठ्यक्रमों की कमी के कारण शिक्षा का सारा ढांचा ही चरमरा रहा है।
-भोपाल से कुमार सुबोध

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