जाति जनगणना पीछे क्यों हटी सरकार?
21-Jul-2015 08:48 AM 1234941

1932 के बाद पहली बार सामाजिक, आर्थिक एवं जाति आधारित जनगणना को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। विहार के चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बन चुका है और ललित लीक्स, व्यापमं, भूमि अधिनियम की तरह जाति जनगणना पर भी संसद में भूचाल आने की संभावना है। जाति आधारित राजनीति करते आए दलों के लिए यह आंकड़े कटोरी में रखे घी के समान पौष्टिक हो सकते हैं लेकिन सरकार के लिए उसकी धमनियों में दौड़ रहे रक्त में अवरोध भी लगा सकते हैं। इसलिए विपक्ष जहां जातिगत आंकड़ों के खेल में सरकार को उलझाना चाहता है, वहीं सरकार अभी तक यही तय नहीं कर पाई है कि इस सर्वे में क्या बताना है और क्या छुपाना है। दिलचस्प यह है कि जब भाजपा विपक्ष में थी, तो उसने जाति आधारित जनगणना की उतनी मुखालफत नहीं की थी। तथ्य यह है कि सब जानना भी चाहते हैं और छिपाना भी चाहते हैं। इससे यह तो साफ हो गया है कि जाति आधारित राजनीति से भारत अभी भी मुक्त नहीं हो पाया है लेकिन यहां यह आंकड़े केवल इतना ही बयान नहीं करते हैंं, बल्कि बहुत कुछ ऐसा है जो भयावह और ग्रामीण तथा शहरी भारत की विकट तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं।
इसीलिए सामाजिक, आर्थिक एवं जाति आधारित जनगणना 2011 को लेेकर तमाम स्तर पर बहुत कुछ कहा-सुना जा रहा है। इससे जो तस्वीर उभर रही है, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि विकसित होने की तरफ बढ़ रहे भारत के समक्ष चुनौतियां अभी भी उतनी ही विशाल हैं। देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी बेहाल और बेतरतीब है और विकास की जो बात की जा रही है, वह अभी भी कुछ क्षेत्रों में तो एक स्वप्न ही है। 640 जिलों में की गई जनगणना को ही फिलहाल जारी किया गया है और इसमें भी सरकार ने अपनी सुविधा के अनुसार जो बताने लायक है वही बताया है। 1932 के 8 दशक बाद आया यह सर्वेक्षण धर्म, समुदाय, जाति, समूह के संबंध में विविध किस्म के ब्यौरे दे रहा है। सरकार के लिए यह आई ओपनर है क्योंकि इससे प्रति परिवार प्रगति का भी पता लगता है। कुछ समय पहले एक हास्यास्पद आंकड़ा सामने आया था, जिसमें बताया गया था कि प्रति व्यक्ति आय पिछले 3 वर्ष में बहुत बढ़ गई है। लेकिन यह सर्वे उन सारे बेदर्द अनुमानों और आंकड़ों को धराशाई करने के लिए पर्याप्त हैं। यह एक ऐसा दस्तावेज है, जो किसी भी संवेदनशील सरकार को सही तरीके से काम करने की दिशा दे सकता है। बशर्ते इन आंकड़ों का उपयोग सही तरीके से किया जाए, क्योंकि यह आंकड़े देश की जनसंख्या के लिए आवास, शिक्षा, भोजन, चिकित्सा आदि तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि उससे आगे जाकर मनरेगा, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम सहित तमाम सरकारी नीतियों के प्रभाव और सरकार द्वारा प्रस्तावित विविध कार्यक्रमों के परिणामों का आंकलन भी इस सर्वेक्षण में है। यह बहुत गहन-गंभीर है। इसीलिए जब अरुण जेटली और चौधरी वीरेंद्र सिंह ने इसे जारी किया, तो उन्होंने बहुत सोच-समझकर अपनी बात रखी। रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि गांवों में हर तीसरा परिवार भूमिहीन है और आजीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर है। यह रिपोर्ट पहली डिजिटल जनगणना है। इसके लिए दस्ती इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल किया गया।
रिपोर्ट में कहा गया है 23.52 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में 25 से अधिक उम्र का कोई शिक्षित वयस्क नहीं है। यह ग्रामीण क्षेत्र के शैक्षिक पिछड़ेपन का संकेत देता है। जनगणना के मुताबिक देश में कुल 24.39 करोड़ परिवार हैं जिनमें से 17.91 करोड़ परिवार गांवों में रहते हैं। इनमें से 10.69 करोड़ परिवार वंचितÓ कोटि के माने जाते हैं। वंचितों के आंकड़े से जाहिर होता है कि ग्रामीण इलाकों में 5.37 करोड़ (29.97 प्रतिशत) परिवार भूमिहीन हैं और उनकी आजीविका का साधन मेहनत-मजदूरी है। गांवों में 2.37 करोड़ (13.25 प्रतिशत) परिवार एक कमरे के कच्चे घर में रहते हैं। इसके अलावा 4.08 लाख परिवार आजीविका के लिए कचरा बीनने पर निर्भर हैं जबकि 6.68 लाख परिवार भीख और दान पर निर्भर हैं।
जाति आधारित जनगणना केंद्र की पिछली यूपीए सरकार के समय कराई गई थी और अब राजग सरकार के समय इसकी रिपोर्ट पूरी होकर तैयार है। लेकिन सरकार ने इसे जारी नहीं करने का फैसला किया है। बिहार में अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। पूरे प्रदेश में राजनीतिक हलचल तेज है ऐसे में इस रिपोर्ट को जारी न करना पूरे राजनीतिक खेमे में हलचल पैदा कर रहा है। राजद, जदयू जहां इस रिपोर्ट को जारी करने के लिए आवाज जोर कर रहे हैं वहीं भाजपा ये कह कर किनारा कर रही है कि यूपीए सरकार के समय ही यह निर्णय हो गया था कि ये रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जाएगी।
तब (2011 में) काफी राजनैतिक विवाद हुआ था। तत्कालीन सरकार समेत विभिन्न राजनैतिक दलों के ओबीसी नेताओं ने एसईसीसी में जातिगत गणना 1931 की जनगणना की तर्ज पर करने की वकालत की थी। राजनीति के तीनों यादव एसपी के मुलायम सिंह यादव, आरजेडी के लालू प्रसाद और जे डी यू के शरद यादव ने 2010 और 2011 में संसद के भीतर और बाहर जोरदार तरीके से इस मुद्दे को उठाया था। उन्होंने मांग की थी कि इसे जाति के आधार पर किया जाना चाहिए ताकि पिछड़े वर्ग से जुड़े लोगों की संख्या का पता लगाया जा सके। यूपीए मंत्रिमंडल में भी इसपर काफी मतभेद था। जो लोग इसके विरोध में थे उन्हें आशंका थी कि यह मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालना हो सकता है और आरक्षण पर नए सिरे से गौर करने की मांगें उठ सकती हैं।
यह 1931 के बाद पहली जनगणना है और इसमें विशेष क्षेत्र, समुदायों, जातियों और आर्थिक समूहों के संबंध में विभिन्न विवरण और भारत में घरों की प्रगति को मापा गया है।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोरचा (सेकुलर) के नेता जीतन राम मांझी ने  भी जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग की है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि जब जातिगत जनगणना के लिए आयोग बना, सर्वे हुआ तो इसे गुप्त रखने की क्या जरूरत।  इसको सामने लाना चाहिए। रिपोर्ट सार्वजनिक होने से देश में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, ओबीसी, अल्पसंख्यक और महिलाओं की कितनी आबादी है इसका खुलासा हो जायेगा। कोई कहता है कि अनुसूचित जाति की जनसंख्या 18 प्रतिशत है, कोई 20 तो कोई 23 प्रतिशत मानता है। रिपोर्ट जारी होने से यह पता चल जायेगा कि कितनी आबादी पिछड़ी है। रिपोर्ट आने से इन वर्गो के लिए चलायी जा रही योजनाओं के संचालन में सहुलियत होगी और बजट भी बढ़ाया जा सकेगा। साथ ही समाज में इन वर्गो के सही आर्थिक आंकड़े भी सामने आयेंगे। इस रिपोर्ट के आने से किसी भी जाति के गरीब कितने लोग भूमिहीन हैं और मकानविहीन हैं, पता चलेगा। रिपोर्ट आने के बाद इनकी स्थिति में सुधार के लिए प्रभावी निर्णय लिया जा सकता है। इस सर्वे को सिर्फ जाति से जोडऩा उचित नहीं है, बल्कि सर्वे में इन वर्गो के लोगों की व्यक्तिगत राय है कि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी की जानी चाहिए।

6.68 लाख परिवार भीख मांगकर अपना घर चला रहे हैं
4.08 लाख परिवार कचरा बीनकर और 6.68 लाख परिवार भीख मांगकर अपना घर चला रहे हैं। सरकार की ओर से बाज जारी जनगणना रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है। देश के सिर्फ 4.6 प्रतिशत ग्रामीण परिवार आयकर देते हैं जबकि वेतनभोगी ग्रामीण परिवारों की संख्या 10 प्रतिशत है। आयकर देने वाले अनुसूचित जाति के परिवारों की संख्या 3.49 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जनजाति के ऐसे परिवारों की संख्या मात्र 3.34 प्रतिशत है।
जनगणना आंकड़े जारी करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  कहा कि इस आंकड़े से सरकार को बेहतर नीति नियोजन में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि योजनाओं की विशालता और हर सरकार की पहुंच को देखते हुए इस दस्तावेज से हमें नीति नियोजन के लिहाज से लक्षित समूह को सहायता पहुंचाने में मदद मिलेगी।ÓÓ इस दस्तावेज से भारत की वास्तविकता जाहिर होगी और यह सभी नीतिनिर्माताओं, केंद्र और राज्य सरकार दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण होगा। जेटली ने कहा 1932 की जाति जनगणना के बाद करीब 7-8 दशक के बाद हमारे पास ऐसा दस्तावेज आया है। यह ऐसा दस्तावेज है जिसमें कई तरह के ब्योरे हैं। कौन लोग हैं जो जीवन शैली के लिहाज से आगे बढ़े हैं, कौन से ऐसे समूह हैं जिन पर भौगोलिक क्षेत्र, सामाजिक समूह दोनों के लिहाज से भावी योजना में ध्यान देना है। यह जनगणना सर्वेक्षण देश के 640 जिलों में किया गया था। इसमें 17.91 करोड ग्रामीण परिवारों का सर्वेक्षण किया गया है। देश में ग्रामीण और शहरी दोनों तरह के परिवार मिलाकर कुल 24.39 करोड परिवार हैं। सभी ग्रामीण परिवारों में से उन 7.05 करोड़ या 39.39 प्रतिशत परिवारों को बाहर रखे गये परिवार बताया गया है जिनकी आय 10,000 रुपये प्रति माह से अधिक नहीं है या जिनके पास कोई मोटर गाड़ी, मत्स्य नौका या किसान क्रेडिट कार्ड नहीं हैं। कुल ग्रामीण परिवारों में से 5.39 करोड (30.10 प्रतिशत) परिवार जीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं, 9.16 करोड (51.14 प्रतिशत) परिवार दिहाडी के आधार पर हाथ से किये जाने वाले श्रम से आय कमाते हैं। करीब 44.84 लाख परिवार दूसरों के घरों में घरेलू सहायक के तौर पर काम करके आजीविका कमाते है, 4.08 लाख परिवार कचरा बीनकर और 6.68 लाख परिवार भीख मांगकर अपना घर चला रहे हैं।
-ऋतेंद्र माथुर

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